हमारी भारतीय संस्कृति अनेकों त्योहारों, मेलों, उत्सवों व पर्वों से गुंथी हुई है। यहां मनाये जाने वाले प्रत्येक अनुष्ठान के पीछे प्रेम, एकता, भाईचारा व समरसता का संदेश छिपा है। इन्हीं पर्वों में से एक पर्व विजयादशमी यानी दशहरा है। अश्विन मास की शुक्ल पक्ष की दशमी को संपूर्ण भारतवर्ष में अपार हर्षोल्लास एवं धूमधाम से मनाया जाने वाला यह पर्व असत्य पर सत्य, अन्याय पर न्याय, तमोगुण पर दैवीगुण, दुष्टता पर सुष्टता, दुराचार पर सदाचार, भोग पर योग, असुरत्व पर देवत्व की विजयगाथा को अंकित करने के साथ ही शक्ति उपासना व समन्वय को रेखांकित करने का भी दिन है। वैसे तो इस पर्व को मनाने के पीछे कई धार्मिक, सांस्कृतिक व सामाजिक कारण जुड़े हुए हैं। लेकिन, इनमें दो कारण एक तो इस दिन भगवान श्रीराम के द्वारा दैत्यराज रावण का वध करना और दूसरा शक्ति की आराध्य देवी मां दुर्गा द्वारा आतंकी महिषासुर का मर्दन करना जनमानस में अत्यधिक प्रचलित है। इस दिन हिन्दू समाज में अस्त्र-शस्त्र का पूजन करने की भी परंपरा है। इसके पीछे भी तथ्य है- भारतीय संस्कृति सदा ही वीरता, शौर्य व शक्ति की पूजक व समर्थक रही है। शक्ति के बिना विजय की कामना करना असंभव है। इसलिए हिन्दुओं के प्रत्येक देवी-देवता अपने हाथों में शस्त्र धारण किये दिखाई देते हैं ताकि समय व परिस्थिति आने पर इन अस्त्र-शस्त्र का उपयोग कर आसुरी शक्ति पर विजय प्राप्त कर समाज में धर्म की होने वाली हानि को रोका जा सके।
इस दिन याद किये जाने वाले दो मुख्य पात्रों में एक लोकनायक भगवान श्रीराम हैं, तो दूसरे है असुरों के राजा लंकेश यानी रावण। जहां एक ओर भगवान श्रीराम साक्षात् मर्यादा पुरुषोत्तम की प्रतिमूर्ति, सत्य-संयम-शांति, प्रेम व त्याग के अनुपम उदाहरण व मानव से महामानव बनने के लिए साधना व साहस के द्योतक हैं, तो दूसरी ओर रावण दंभ-ईर्ष्या, आत्मकेंद्रित, आत्ममुग्धता, भौतिक उद्दंडता, अभद्रता व अत्याचार का प्रतीक है। भगवान श्रीराम के इन तमाम दैवीगुणों के कारण उन्हें समाज में विशिष्ट स्थान ही नहीं मिला बल्कि संपूर्ण सांसारिक जगत को उनके आगे नतमस्तक होकर उनका गुणगान करने के लिए बाध्य भी होना पड़ा। वहीं असुर प्रवृत्ति के पोषक व पक्षधर रावण को भगवान राम के हाथों मरकर मृत्युलोक को प्राप्त होना पड़ा। दरअसल, श्रीराम द्वारा ये केवल रावण का मर्दन मात्र नहीं था बल्कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा व चोरी जैसे इन दस शैतानों का संहार था, जिसने रावण की बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया था।
आज हमारे समाज में राम और रावण दोनों विद्यमान है। ये सही है कि बदलते दौर में रावण का रूप जरूर बदल चुका है।
आज यह रावण हमारे बीच जातिवाद, महंगाई, अलगाववाद, बेरोजगारी व भ्रष्टाचार के रूप में मौजूद है। सच तो यह है कि हम हर साल रावण, कुंभकर्ण व मेघनाद के पुतलों का दहन कर व आतिशबाजी के शोर में मशगूल होकर पर्व के वास्तविक संदेश को गौण कर देते हैं। आज के संदर्भ में रावण के कागज के पुतले को फूंकने की आवश्यकता नहीं है बल्कि हमारे मन में बैठे उस रावण को मारने की जरूरत है, जो दूसरों की प्रसन्नता देखकर ईर्ष्या की अग्नि से दहक उठता है, हमारी उस दृष्टि में रचे-बसे रावण का संहार जरूरी है, जो रोज ना जाने कितनी स्त्रियों व बेटियों की अस्मत के साथ खेलता है, हमारी सोच में बैठे उस व्यभिचारी रावण को धराशायी की अत्यन्त आवश्यकता है जो जिस्म की तृष्णा में मर्यादा की लक्ष्मण रेखा को लांघने पर उद्यत होता है। हमें केवल नवरात्रि के नौ दिनों तक बेटियों को देवी मानकर उनकी पूजा करने का ढोंग नहीं करना होगा बल्कि समाज व देश में उस विचारधारा को प्रोत्साहन प्रदान करना होगा जो बेटियों के प्रति पनप रहे भेदभाव व असमानता का अंत कर उनको हर दिन गौरव व गरिमा अहसास कराएं। साथ ही, हमें इस दिन पर राष्ट्र सेवा का प्रण लेने की आवश्यकता है। रावण की तरह जब कभी राष्ट्र की अस्मिता पर संकट के मेघ घिरने लगेंगे तो हम राम की भांति ध्येय साधना के पथ पर अटल रहकर सात्विकता, आत्मीयता, निर्भीकता, अदम्य साहस व शौर्य का परिचय देकर देश की एकता, अखंडता, नैतिकता तथा चारित्रिक सौम्यता की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध रहेंगे। देवेन्द्रराज सुथार