एक समय वह था जब लोग खुद आगे चलकर अपनी रुचि का कोई सा काम हाथ में लेते थे और पूरा करके ही दम लेते थे। समाज के लिए उन दिनों उपयोगी लोगों की संख्या भी खूब थी। हालांकि उन दिनों भी नाकारा, नाकाबिल, धूर्त और चतुर लोगों की संख्या कोई कम नहीं थी। पर काम करने वाले लोगों की संख्या खूब ज्यादा थी और ये लोग परिश्रमी और आत्मनिर्भर थे। कालान्तर में श्रम शक्ति का ह्रास होने लगा और अभिजात्य वर्ग के लोग श्रम से जी चुराने लगे। इसके बाद लोगों का स्पष्ट धु्रवीकरण होता चला गया। एक काम करने वाले, दूसरे कुछ भी न करने वाले।
इनमें भी उस किस्म के लोगों को सबसे ज्यादा फायदा है जो कोई काम-काज नहीं करते बल्कि हमेशा अपनी बुद्धि और चातुर्य से कमा खा रहे हैं, पेट और घर भर रहे हैं, श्रम करने वालों का दोहन और शोषण करने में पूरा श्रम कर रहे हैं। पर हकीकत यह भी है कि इन लोगों का धन डॉक्टरों और दवाइयों पर खर्च होता रहता है। कार्य संस्कृति का जितना क्षरण पिछले तीन-चार दशकोें में हुआ है उतना इससे पहले कभी नहीं हुआ। कार्य की गुणवत्ता, कर्मयोग की श्रेष्ठता, गुणग्राहियों की कमी कह लें अथवा और कोई कारण गिना दें, पर इतना जरूर है कि वास्तविक कर्मयोग और गुणात्मकता की पूछ जबसे प्राथमिकता खो बैठी है तभी से कार्य संस्कृति का निरन्तर क्षरण होता ही चला जा रहा है।
आज समाज के सामने कई सारी समस्याएं हैं, कई सुलगते प्रश्नों का समंदर लहरा रहा है, हर कोई बेचैन और उद्विग्न होने की वजह से अशांत है। इसका मूल कारण यही है कि हम लोगों ने अपनी कार्य-संस्कृति को पीछे धकेल दिया है और उसका स्थान पा लिया है मुद्रार्चन तथा आत्मकेन्द्रित संकीर्णताओं ने। हमारे लिए जबसे समाज और देश दूसरी-तीसरी प्राथमिकता पर आ गए हैं तभी से हमारा परिश्रमी और लोकोन्मुखी व्यक्तित्व खण्डित हो चला है। आजकल यह स्थिति सभी क्षेत्रों में है। घर-परिवार से लेकर समाज के काम हों या फिर उन गलियारों के काम-धाम, जहां हमारी नौकरी की गारंटी है और रहेगी।
सभी तरफ आजकल कार्य-संस्कृति अजीबोगरीब गलियारों की ओर भटकने लगी है। छोटे से छोटा आदमी हो या बड़े से बड़ा आदमी। हर तरफ खूब सारे लोग उसे मिल जाएंगे जिनके पास उन कामों के बारे में भी दक्षता का अभाव है जिनके लिए वे मुकर्रर हैंं।
अधिसंख्य लोग अपने से नीचे के लोगों के भरोसे जिन्दगी काट रहे हैं। नीचे वालों ने जैसा कह दिया, कर दिया, लिख दिया, उसी का अनुकरण करते चले जाते हैं। खुद की अकल ये लोग न लगाते हैं, न इनमें इतनी अकल होती ही है। ऐसे नाकाबिलों और कामचोरों के दर्शन आजकल सहजता से होने लगे हैंं।
इन लोगों की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि यह किसी भी प्रकार की मांग या समस्या सामने आने पर खुद कुछ नहीं करते बल्कि हर बात को किसी न किसी बहाने टाल देते हैं अथवा उन्हीं लोगों पर थोप देते हैं जो इसके लिए इनके सान्निध्य को पाने आए होते हैं। कई बड़े लोगों का अपने मातहतों के प्रति भी ऐसा ही व्यवहार होता है। ऐसे निकम्मे और चिड़चिड़े लोगों से शायद ही कोई अधीनस्थकर्मी खुश होता होगा।
सर्वाधिक बार देखा यह गया है कि निकम्मे और नाकाबिल लोग कोई सा काम अपने पास आ जाने पर दूसरों के मत्थे मढ़ देने में माहिर होते हैं। इन लोगों को सिर्फ अपनी चवन्नी चलाने भर से सरोकार होता है, दूसरों की पीड़ाओं और संवेदनाओं से इनका कोई लेना-देना नहीं होता। ऐसे निकम्मे लोगों की दूसरी सबसे बड़ी आदत यह होती है कि ये हमेशा उन लोगों से घिरे रहते हैं जो इनके कामों को आसान कर दिया करते हैं और इनकी आड़ में मनचाहा चुग्गा डकारते रहते हैं। चापलूस लोगों की पूरी की पूरी फौज इनके लिए दाना-पानी से लेकर इनकी भोग-विलासिता के सारे इंतजाम करती है और इनका नाम भुनाते हुए रोजाना पार्टियों का मजा लेती है, अपने घरों में उपहारों के बाजार सजाती है और ऐसे कामटालू और अपने पर आश्रित सफेद हाथियों की मूर्खता या कि भोलेपन को हथियार बनाकर दुनिया भर के मजे लूटती है। अपने इलाकों में भी ऐसे खूब लोग हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि खुद कुछ नहीं जानते, चमचों और चापलूसों से घिरे हुए हैं, उन्हीं की बात मानते और करते हैं।
जो लोग अपने जिम्मे के कामों को दूसरों पर ढोलने के आदी होते हैं वे लोग जिन्दगी भर परायों के भरोसे ही रहा करते हैं और पूरे जीवन में कभी कोई ऐसा मौका नहीं आता जब ये किसी भी काम में दक्षता प्राप्त कर लिए जाने का आत्मविश्वास पैदा कर सकें। तय मानकर चलें कि जो लोग खुद के करने, कहने और सुनने योग्य कामों के प्रति लापरवाह होते हैं वे आत्मविश्वासहीन, धूर्त और हर मामले में नाकाबिल होते हैं। इन्हें कभी भी यश प्राप्त नहीं होता, उलटे लोग इन्हें हमेशा गालियां बकते रहते हैं।
डॉ. दीपक आचार्य
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