राजनीतिक विरक्ति के इस मौसम में उलटी दिशा में शतरंज खेलें, अंत से शुरू करें और लगता है प्रधानमंत्री के मन में यही चल रहा है। जब उन्होंने विपक्ष को हैरान कर दिया और तीन तलाक को गैर-कानूनी घोषित करने के लिए अध्यादेश जारी किया। अध्यादेश जारी कर उन्होंने तुरंत तीन तलाक देने को दांडिक अपराध बनाया जिसके लिए तीन साल के कारावास की सजा और जुर्माने का प्रावधान किया गया। युद्ध रेखाएं खींची जा चुकी हैं और देखना यह है कि मुस्लिम महिलाएं विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक को राज्य सभा में पुन: पेश किया जाता है या समाप्त हो जाएगा। इस विधेयक में तलाक-ए-विद्दत को अपराध माना गया है। प्रश्न उठता है कि इस विधेयक के बारे में आम सहमति क्यों नहीं बन रही है जिसमें मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के संरक्षण का प्रावधान किया गया है और एक कुरीति को समाप्त किया गया है। क्या विपक्ष इस बात पर अड़ा हुआ है कि इस विधेयक को संसद की स्थायी समिति को भेजा जाए जो इन सुझावों पर विचार करे कि क्या ऐसा करने वाले व्यक्ति के विरुद्ध मुकदमा चलाने से पूर्व उसे जमानत दी जाए ताकि इस कानून का दुरूपयोग रोका जा सके और महिला को अपने लिए और अपने बच्चों के लिए पति से गुजारा भत्ता मिल सके। वह महिला अपने अल्पवयस्क बच्चों की अभिरक्षा की हकदार हो।
कुल मिलाकर यह सब राजनीति का खेल है। आज भाजपा दशकों से मुस्लिम महिलाओं के कष्टों के लिए विपक्ष को दोषी बता रही है और विपक्ष पर आरोप लगा रही है कि वह महिलाओं को न्याय दिलाने, उनकी गरिमा स्थापित करने तथा उन्हें समानता देने के एक प्रगतिशील विधेयक में अड़चन पैदा कर रही है। जबकि विपक्ष भाजपा पर आरोप लगा रहा है कि वह मुस्लमानों को सताने के लिए इस अध्यादेश को लायी है और विपक्ष का मानना है कि यह अध्यादेश या विधेयक मुस्लमानों को परेशान करने के लिए लाया गया है। उसका मानना है कि एक सिविल अपराध को दांडिक अपराध बनाने की आवश्यकता नहीं है और पति को जेल की सजा देकर महिला का जीवन और दयनीय बन जाएगा क्योंकि महिला और उसके बच्चों को गुजारा भत्ता देने के लिए कोई नहीं होगा। हैरानी इस बात पर भी होती है कि अपनी पत्नियों को छोडने वाले हिन्दु पुरूषों के बारे में ऐसे ही प्रावधान क्यों नहीं किए गए हैं? विपक्ष का कहना है कि मानवीय मुद्दे को राजनीतिक फुटबाल बना दिया गया है और कुल मिलाकर दोनों ही पक्ष महिलाओं के अधिकारों के बारे में वोट बैंक की राजनीति कर रहे हैं। कुछ लोग इस विधेयक की यह कहकर आलोचना कर रहे हैं कि यह मुस्लिम पुरूषों के विरुद्ध है तथा मुस्लिम पुरूषों के विरुद्ध उसकी पत्नी की सहमति के बिना तीन तलाक देने पर उसके विरुद्ध मुकदमा चलाया जा सकता है। जबकि दूसरी ओर हिन्दू पुरूष अपनी पत्नी से अलग होने पर यदि अपनी पत्नी से बलात्कार करता है तो उसके विरुद्ध मुकदमा नहीं चलाया जा सकता जब तक उसकी पत्नी सहमत न हो। इस विसंगति को दूर किया जाना चाहिए। कुछ लोगों का मानना है कि यदि तुरंत तीन तलाक देने की प्रथा को अवैध घोषित किया जाता है तो फिर तलाक-ए-विद्दत देने वाले व्यक्ति को जेल की सजा कैसे दी जा सकती है।
कुछ लोगों का यह भी मानना है कि इस कानून के माध्यम से सरकार पिछले दरवाजे से एक समान नागरिक संहिता लाने का प्रयास कर रही है। यदि राज्य सभा इसे संसद के शीतकालीन सत्र में पारित भी कर देती है तो फिर इन नए संशोधनों की मंजूरी के लिए उसे लोक सभा में वापस भेजा जाएगा तथा 2019 के चुनाव तक भाजपा और विपक्ष दोनों के लिए यह एक मुद्दा बन जाएगा। इस विधेयक के माध्यम से दोनों अपनी छवि चमकाने और एक-दूसरे पर आरोप लगाने का कार्य करेंगे। पहली बार नहीं है कि हमारे नेताओं द्वारा महिलाओं के अधिकारों का उपयोग राजनीतिक मुद्दे के रूप में किया जा रहा है। इसकी शुरूआत 1986 में हो गयी थी जब राजीव गांधी सरकार ने शाहबानो मामले में उच्चतम न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय को पलट दिया था। कांग्रेस सरकार ने मुसलमानों का पक्ष लेते हुए संसद से मुस्लिम महिलाएं ;विवाह विच्छेद पर अधिकार संरक्षणद्ध अधिनियम पारित करवाया और इसके द्वारा तलाकशुदा महिला को किसी तरह के गुजारे भत्ते से वंचित किया। 31 वर्ष बाद फिर पिछले अगस्त में एक नया इतिहास बना जब उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्यीय खंडपीठ ने उस कानून को असंवैधानिक घोषित किया जिसमें मुस्लिम पुरूषों को तीन बार तलाक कहने से अपनी पत्नी को तलाक देने की अनुमति दी गयी थी।
न्यायालय ने इस तथ्य पर ध्यान नहीं दिया कि तीन तलाक एक धार्मिक प्रथा का अभिन्न अंग है। दिसंबर में लोक सभा ने मुस्लिम ममहिलाएं विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक पारित किया जिसके अंतर्गत मुस्लिम पुरूषों द्वारा तलाक-ए-विद्दत की घोषणा को शून्य माना गया और उसे एक संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध बनाया गया। 32 वर्ष बाद हमने एक चक्र पूरा कर दिया है और फिर यह विधेयक सरकार और विपक्ष के किंतु-परंतु की राजनीति में फंसा हुआ है। उदार मुसलमान मानते हैं कि तीन तलाक और निकाह हलाला गैर-इस्लामी और इस्लाम के विरुद्ध है। इसके लिए वे पैगम्बर की पत्नी का उदाहरण देत हैं जो एक विधवा कारोबारी थी और पैगम्बर से 15 वर्ष बड़ी थी जबकि उनकी छोटी पत्नी आएशा युद्ध में सैनिकों का नेतृत्व कर रही थी और यह इस बात का प्रमाण है कि इस्लाम में महिलाओं को समान दर्जा दिया गया है। वे लिंग समानता की बात भी करते हैं तथा इस्लामिक महिलावाद को एक नई आधुनिक प्रवृति मानते हैं। इसीलिए आज अनेक भारतीय मुस्लिम महिलाएं इस्लाम की भावना पर प्रश्न उठाती हैं। हाल के एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार 88 प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं चाहती हैं कि तीन तलाक और बहु विवाह जैसी पितृ सत्तात्मक कानूनी प्रथाओं को समाप्त किया जाए। वे चाहती हैं कि सरकार परंपरागत इस्लामी अदालतों पर निगरानी रखे। जबकि 95 प्रतिशत महिलाओं ने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के बारे में भी नहीं सुना है। कुल मिलाकर यह कानून गेम चेंजर है और इसका आने वाले समय में दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। इसके माध्यम से न केवल मुस्लिम महिलाएं मध्यकालीन पर्सनल लॉ से मुक्त होंगी अपितु उन्हें कानून के समक्ष समानता भी मिलेगी और उनके लिंग के आधार पर भेदभाव के विरुद्ध उन्हें कानूनी संरक्षण भी मिलेगा। मुस्लिम महिलाओं में तलाक की दर अधिक है। जनवरी 2017 और सिंतबर 2018 के बीच तुरंत तीन तलाक के 430 मामले प्रकाश में आए हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार मुस्लिम महिलाओं में तलाक की दर 3.53 है जबकि अन्य सभी धर्मों में यह 1.96 है। इसके साथ ही एक मुस्ल्मि पुरूष पर 3.7 मुस्लिम महिलाओं ने तलाक दिया है।
उन पांच राज्यों के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि जहां पर मुसलमानों की जनसंख्या अखिल भारतीय औसत 14 प्रतिशत से अधिक है वहां पर मुस्लिम महिलाओं में तलाक की दर अन्य सभी धर्मों से अधिक है। उत्तर प्रदेश, झारखंड और बिहार में हिन्दुओं की तुलना में मुसलमानों में तलाक की दर ऊंची है। जबकि जम्मू-कश्मीर, पश्चिम बंगाल और केरल में विवाह विच्छेद की दर सबसे अधिक है। वैवाहिक कानूनों का विनियमन इस्लामिक देशों में स्वीकार किया गया है और इसे शरिया के विरुद्ध नहीं माना जाता है। वस्तत: अनेक इस्लामिक देशों में मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार किया गया है और इसे संहिताबद्ध किया गया है। सीरिया, ईरान, ट्यूनीशिया, मोरक्को, सऊदी अरब और पाकिस्तान सहित 22 देशों में बहु विवाह प्रथा पर प्रतिबंध लगाया गया है।
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