आखिरकार केंद्र की एनडीए सरकार ने तीन तलाक की कुप्रथा पर रोक लगाने के लिए अध्यादेश जारी कर दिया है। राज्य सभा में बिल अटकने के कारण व सरकार के अंतिम साल में होने के कारण ओर कोई रास्ता भी नहीं था। नि:संदेह इस निर्णय के राजनीतिक पहलू भी हैं। फिर भी देश की करोड़ों मुस्लमान महिलाओं को पुरूष प्रधान समाज की गुलामी से निकालना जरूरी था।
केवल रोटी न बढ़िया पका सकना, कपड़े प्रैस करते सलवट रह जाने, लड़की पैदा होने पर तलाक इत्यादि बातों पर महिलाओं को दुखों में डालना समाज के कुरूप चेहरे की निशानी हैं। तलाक देने के तरीके भी अजीबो-गरीब थे और रिश्तों को मूली-गाजर की तरह लिया जाता था। फोन और वट्सएप पर तलाक दिए जाते रहे हैं। यह कुरीति बहुत पहले खत्म होनी चाहिए थी। धर्म के नाम पर तलाक होते रहे। तलाक के खिलाफ बोलना भी ईशनिंदा की तरह ही माना जाता था।
दरअसल भारतीय समाज की यह बड़ी समस्या है कि कुरीति को बचाने के लिए धर्मों की दुहाई दी जाती है। धर्म व विज्ञान दोनों की नजर में यह अत्याचार है। लोकतंत्र भी इसी सिद्धांत का समर्थक है। अब वक्त महिलाओं को हर क्षेत्र में बराबरी देने का है। राजनीति में 33 प्रतिशत आरक्षण का बिल एक दशक से अधिक समय से लटका हुआ है। राज्यों ने अपने स्तर पर पंचायती चुनाव में 50 प्रतिशत तक आरक्षण दिया है। एक देश में एक सिद्धांत लागू होना चाहिए। तीन तलाक खत्म करने से ही हिंदू, सिख परिवारों में बढ़ रहे तलाक के रुझान को भी रोकने की आवश्यकता है।
महानगरों से चली यह बुराई गांवों तक पहुंच गई है। महिलाओं पर अत्याचार की इंतहा हो गई है। बच्चियों के साथ गैंगरेप आम बात हो गई है। महिलाओं की सुरक्षा के लिए कानून व्यवस्था को मजबूत करने के साथ भारतीय संस्कृति के पुन : जागरण की आवश्यकता है। महिलाओं को आर्थिक तौर पर भी आत्मनिर्भर बनाना होगा। आर्थिक मजबूती महिलाओं की सामाजिक पहरेदार बनेगी लेकिन अभी तक हालात यह हैं कि देश में पुरुष व महिलाएं दोनों के लिए रोजगार पानी समस्या बनी हुई है। बेरोजगारी भी एक बड़ी समस्या है। सरकार को रोजगार के अवसरों को खोजने की आवश्यकता है। वैश्वीकरण के नकारात्मक पक्ष ने सामाजिक रिश्तों की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाई है। महिलाओं पर अत्याचार रोकने के साथ-साथ भारतीय सामाजिक रिश्तों की अहमीयत को भी बहाल करना होगा।
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