कंधे पर भारी भरकम बस्ते का बोझ, एक हाथ में पानी की बोतल दूसरे हाथ में लंच बॉक्स के लिए धीमी गति से..थके थके से चलते पांव एवं मासूम चेहरों को देखते ही मन में पीड़ा होती है। हम उसे सभ्य, सुसंस्कृत, सुयोग्य नागरिक बनने की शिक्षा दे रहे हैं अथवा केवल कुशल भारवाहक बनने का प्रशिक्षण? बचपन की मस्तियां, शैतानियां, नादानियां, किलकारियां, निश्छल हँसी, उन्मुक्तता, जिज्ञासा आदि अनेक बालसुलभ क्रियाओं को बस्ते के बोझ ने अपने वजन तले दबा दिया है। बचपन का सावन, कागज की कश्ती और बारिश के पानी के बालक केवल बातें ही सुनता है।
स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के बस्ते का लगातार बढ़ता हुआ बोझ एक समस्या के रूप में समाज के सामने है। आजादी के बाद से ही इस पर लगातार चिंतन मनन होता रहा है और लगभग सभी शिक्षा आयोगों, समितियों ने इसकी चर्चा की है। शिक्षा बालक के सर्वांगीण विकास का आधार है। ‘सा विद्या या विमुक्तये हो या विद्या ददाति विनयम’ मन बुद्धि और आत्मा के विकास की बात हो अथवा बालक की अंतर्निहित शक्तियों के प्रकटीकरण की बात। शिक्षा मूल रूप से जीवन का आधार है, शिक्षा के बारे में मूल भारतीय चिंतन यही है।
एक शिक्षक के रूप में मैंने इस समस्या को निकट से अनुभव किया हैं ।
मैं पिछले 10 वर्षों से बस्ते के बोझ की समस्या को हल करने के लिए प्रयासरत हूं और इस अवधि में समाधान के रूप में दो विकल्प देश भर के शिक्षा प्रेमियों शिक्षाविदों , शिक्षकों और अभिभावकों के सामने रखे हैं। इन प्रयासों को एक बड़ा मुकाम मिला जब पिछले वर्ष दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग एवं एनसीईआरटी के तत्वावधान में बस्ते की बोझ की समस्या के समाधान के लिए एक राष्ट्रीय कार्यशाला का आयोजन हुआ। इस कार्यशाला में मुझे देश के विभिन्न राज्यों से आए शिक्षाविदों और अधिकारियों के सामने अपने सुझाव रखने का अवसर मिला
।समस्या ही नहीं समाधान की भी चर्चा होनी चाहिए इस बात का अनुसरण करते हुए मैंने अपने दो सुझाव प्रस्तुत किये। ये सुझाव देश भर में चर्चा का विषय बने। एक सुझाव को देश के विभिन्न राज्यो द्वारा लागू किया है। साथ ही केंद्रीय विद्यालय संगठन ने देश भर में प्राथमिक कक्षाओं के लिए भी इस सुझाव को लागू किया है। अभी हाल ही में राजस्थान सरकार ने भी इस सुझाव को राज्य की स्कूल शिक्षा के लिए लागू किया है। यहां प्रस्तुत कर रहा हूं।
मेरा सुझाव है कि सप्ताह में एक दिन बस्ते की छुट्टी कर दी जाए। देश के विभिन्न भागों में कर्मचारियों के लिए “फाइव डे वीक” की योजना चलती है जिसमें सरकारी कार्यालय सप्ताह में 5 दिन ही खुलते हैं। यहां विद्यालय में शनिवार की छुट्टी भले न करें पर शनिवार को बस्ते की छुट्टी अवश्य कर देनी चाहिए अर्थात बच्चे एवं स्टाफ विद्यालय तो आएँ किंतु बस्ते के बोझ से मुक्त होकर व होमवर्क के दबाव के बिना। सहज प्रश्न खड़ा होता है कि यदि बच्चे बस्ता नहीं लाएँगे तो विद्यालय में करेंगे क्या? समाधान है सप्ताह में एक दिन बच्चे शरीर, मन, आत्मा का विकास करने वाली शिक्षा ग्रहण करेंगे। अपनी प्रतिभा का विकास करेंगे। शिक्षा शब्द को सार्थकता देंगे। और इस शनिवार को नाम दिया “आनंदवार” अर्थात शनिवार की शिक्षा बच्चों को शिक्षा के साथ-साथ आनंद उल्लास और उमंग देने वाली भी हो। यह सुझाव एक प्रयास हैं बालक को तनाव मुक्त, आनंददायी, सृजनात्मक/ प्रयोगात्मक शिक्षा देने का।
सुझाव स्वरूप यह कालांश योजना प्रस्तुत है जिनके आधार पर दिनभर की गतिविधिया सम्पन्न होगीं। प्रथम कालांश – योग, आसन, प्राणायाम – व्यायाम प्रार्थना सत्र के पश्चात पहला कालांश योग-आसन, प्राणायाम, व्यायाम का रहे। बालक का शरीर स्वस्थ रहेगा, मजबूत बनेगा तो निश्चित रूप से अधिगम भी प्रभावी होगा। जीवन-पर्यंत प्राणायाम-व्यायाम के संस्कार काम आएँगे। विश्व योग दिवस का जो प्रोटोकॉल है, वह भी लगभग 40 मिनिट का है, उसका अभ्यास हो सकता है। दूसरा कालांश – श्रमदान /स्वच्छता/ पर्यावरण संरक्षण इस कालांश में विद्यालय परिसर की स्वच्छता का कार्य, श्रमदान एवं पर्यावरण संबंधित कार्यों का निष्पादन होगा।
विद्यालय में वृक्षारोपण, उनकी सार संभाल, सुरक्षा, पानी पिलाना, आवश्यकता होने पर कटाई-छंटाई, कचरा निष्पादन आदि कार्य। तीसरा कालांश – संगीत अभ्यास इस कालांश में गीत अभ्यास, राष्ट्रगीत, राष्ट्रगान, प्रतिज्ञा, प्रार्थना का अभ्यास हो। उपलब्ध हो तो वाद्ययंत्र का अभ्यास और डांस क्लास (नृत्य अभ्यास) भी हम कालांश में करवाया जा सकता है। चतुर्थ कालांश- खेलकूद कुछ खेल इनडोर हो सकते है कुछ आउटडोर हो सकते है। अत्यधिक धूप की स्थिति में कक्षा कक्ष में ही बौद्धिक खेल, छोटे समूह के खेल इत्यादि हो सकते है। आनदं वार बच्चों के बस्ते के बोझ को कम करके शिक्षा को बहुआयामी बना सकता है। पांच दिन बिना भारी भरकम बस्ते के जमकर पढाई और छठे दिन शनिवार को व्यक्तित्व विकास, सजृनात्मकता अभिव्यक्ति। मौजूदा शिक्षा प्रणाली में बिना बदलाव के, बिना किसी वित्तीय भार के इस उपाय से शिक्षा को आनंददायी और विद्यालय परिसर को जीवन निर्माण केन्द्र बनाया जा सकता है।
संदीप जोशी
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