2019 में लोकसभा चुनाव के मद्देनजर केन्द्र सरकार द्वारा पिछले दिनों मानसून सत्र के दौरान दलित एक्ट को लेकर मार्च माह के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने का चुनावी दांव खेला गया और आनन-फानन में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार रोकथाम) संशोधन विधेयक 2018 संसद में पारित करा दिया, जिसे लेकर गुस्से का इजहार करने के लिए सवर्ण वर्ग द्वारा गत दिनों भारत बंद का आयोजन किया गया, जिसका देश के कई राज्यों में व्यापक असर भी देखा गया। उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा एस.सी.-एस.टी. एक्ट के गलत इस्तेमाल को लेकर चिंता जाहिर करते हुए 20 मार्च 2018 को कुछ निर्देश दिए गए थे, जिसके तहत एससी-एसटी कानून के तहत प्राथमिकी दर्ज होते ही किसी की तुरंत गिरफ्तारी पर रोक लगा दी गई थी और गिरफ्तारी के बाद अग्रिम जमानत का प्रावधान भी कर दिया गया था।
अदालत के फैसले के विरोध में दलित वर्ग सड़कों पर उतर आया था और 2 अप्रैल को इस समुदाय द्वारा भारत बंद के नाम पर देश के 20 राज्यों में हिंसा, अराजकता और आक्रामकता का ताण्डव किया गया था, जिसके चलते न केवल देशभर में अरबों रुपये की सम्पत्ति का नुकसान हुआ था बल्कि दर्जन भर लोग मौत के मुंह में भी समा गए थे। 2 अप्रैल के दलित बंद और 6 सितम्बर के सवर्ण बंद के बारे में चर्चा करने से पहले जान लें कि आखिर एससी-एसटी उत्पीड़न रोकथाम कानून है क्या? सर्वप्रथम 1955 में ‘प्रोटेक्शन आॅफ सिविल राइट्स एक्टझ् बनाया गया था लेकिन उसके बावजूद दलित समाज के साथ छूआछूत और अत्याचार के मामलों में कोई कमी न आते देख दलितों से होने वाले भेदभाव व अत्याचार को रोकने के लिए 1989 में दलितों को विशेष सुरक्षा का अधिकार प्रदान करते हुए एक अधिनियम बनाया गया, जिसे जम्मू कश्मीर को छोड़कर समस्त भारत में लागू किया गया।
इस एक्ट के तहत पीड़ित दलितों के मामलों में तुरंत फैसला लेने के लिए विशेष अदालतें बनाई जाती हैं। दलित वर्ग के सम्मान, स्वाभिमान, उत्थान व उनके हितों की रक्षा के लिए तथा उन पर हो रहे अत्याचारों को रोकने के लिए इस अधिनियम में 20 से भी ज्यादा कृत्य अपराध की श्रेणी में शामिल किए गए, जिनके लिए दोषी पाए जाने पर 6 माह से लेकर 5 साल तक की सजा का प्रावधान है और क्रूरतापूर्ण हत्या के लिए मृत्युदंड का भी प्रावधान है। इसी प्रकार कोई सरकारी कर्मचारी, जो अनुसूचित जाति या जनजाति का सदस्य नहीं है, यदि वह जानबूझकर इस अधिनियम के पालन में कोताही बरतता है तो उसे 6 माह से 1 साल तक की सजा का प्रावधान है। एससीएसटी एक्ट के तहत दलित समुदाय का कोई व्यक्ति यदि किसी के खिलाफ शिकायत दर्ज कराता है, तो आरोपी व्यक्ति के खिलाफ तुरंत प्राथमिकी दर्ज हो जाती है और उसे बिना जांच के गिरफ्तार कर लिया जाता है।
अब सवाल यह है कि आखिर देश की सर्वोच्च अदालत में बैठे विद्वान न्यायाधीशों को उपरोक्त कानून में बदलाव की जरूरत क्यों महसूस हुई? दरअसल एससी-एसटी उत्पीडऩ रोकथाम कानून इसीलिए अस्तित्व में लाया गया था ताकि सदियों से दमन के शिकार वंचित समाज को सामाजिक विसंगितयों तथा अन्याय से मुक्ति दिलाने के साथ दबंगों के उत्पीड़न से उनके आत्म स्वाभिमान की भी रक्षा की जा सके किन्तु पिछले कुछ वर्षों के दौरान दलित एक्ट का निदोर्षों के खिलाफ जिस बड़े पैमाने पर दुरूपयोग होता रहा है, उसी के मद्देनजर देश की सर्वोच्च अदालत ऐसी पहल करने पर विवश हुई थी ताकि एक कानून की आड़ में निर्दोष व्यक्ति बेवजह जिल्लत के शिकार न हों। अदालत ने अपने फैसले के बाद स्पष्ट तौर पर कहा भी था कि उसने एस.सी.-एस.टी. एक्ट के किसी भी प्रावधान को कमजोर नहीं किया बल्कि सिर्फ निर्दोष व्यक्तियों को गिरफ्तारी से बचाने के लिए उनके हितों की रक्षा की क्योंकि इस एक्ट के प्रावधानों का इस्तेमाल निदोर्षों को आतंकित करने के लिए नहीं किया जा सकता। अदालत ने स्पष्ट कहा था कि दलित आन्दोलन करने वालों ने उसके फैसले को सही ढ़ंग से पढ़ा ही नहीं और निहित स्वार्थी लोगों ने उन्हें गुमराह किया।
सुप्रीम कोर्ट ने जांच होने और गलती होने के आरंभिक सबूत मिलने तक गिरफ्तारी नहीं होने के निर्देश दिए थे लेकिन अदालत के फैसले को लेकर बेवजह का विवाद खड़ा किया गया और दलितों द्वारा इसके खिलाफ किए गए आन्दोलन के आगे सरकार ने घुटने टेककर कोर्ट का फैसला पलटने का जो आत्मघाती कदम उठाया, वह न केवल समाज को बांटने में सहायक बन रहा है बल्कि इसके राजनीतिक नुकसान अब सत्तारूढ़ दल को भी कम नहीं होंगे और सवर्णों के आन्दोलन के रूख को देखते हुए यह कहना असंगत नहीं होगा कि मोदी सरकार को सवर्णों की यह नाराजगी बहुत महंगी पड़ेगी। दो टूक शब्दों में कहें तो इस तरह के राजनीति प्रेरित फैसलों से न केवल सामाजिक ताना-बाना टूट रहा है, वहीं पहले से ही जातिद्वेष विद्वेष से पीड़ित समाज में दलित और सवर्ण समाज के एक-दूसरे के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों के चलते स्थिति आने वाले दिनों में और भी भयावह होने की संभावनाओं से इन्कार नहीं किया जा सकता।
पहले दलित विरोध और फिर सवर्णों का विरोध आने वाले दिनों में केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा के लिए मुसीबतों का पहाड़ खड़ा कर सकता है। इस पूरे मामले को लेकर भाजपा के भीतर गुटबाजी भी बढऩे लगी है। कुछ बड़े नेता जहां खुलकर अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार रोकथाम) संशोधन विधेयक 2018 की खिलाफत पर उतर आए र्हैं तो पार्टी के ही कई दलित नेता खुलकर इस एक्ट के पक्ष में खड़े हैं। ऐसे में पार्टी के समक्ष गंभीर दुविधा की स्थिति उत्पन्न हो गई है, अधिकारिक रूप से भाजपा अब न तो दलितों का साथ देने की हिम्मत जुटा पा रही है और न सवर्णों के पक्ष में खड़ा होने का साहस दिखा पा रही है
क्योंकि अगर सवर्णों का साथ दिया तो दलित वर्ग नाराज हो जाएगा और यदि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार रोकथाम) संशोधन विधेयक 2018 पर सरकार अडिग रही तो सवर्ण वर्ग कुपित होगा। इस समय भाजपा की दुविधा यही है कि उसे ऐसा कोई रास्ता भी नहीं सूझ रहा है, जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे अर्थात् सवर्ण और दलित दोनों ही वर्ग संतुष्ट हो जाएं। लोकसभा चुनाव के मद्देनजर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का जो चुनावी दांव केन्द्र में सत्तारूढ़ मोदी सरकार द्वारा चला गया, उससे भाजपा दलित वोट बैंक कितना पुख्ता होगा, इसकी तो कोई गारंटी नहीं है, हां, इसके चलते पार्टी को सवर्णों की नाराजगी का खामियाजा अवश्य भुगतना पड़ सकता है।
योगेश कुमार गोयल
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