आज भारत के प्रतिष्ठित नागरिक सम्मन पद्मभूषण से सम्मानित मेजर ध्यानचंद जी का जन्मदिन है। उनका जन्मदिन खेल दिवस के रुप में मनाया जाता है। लेकिन बिडंबना यह है कि दुनिया में भारतीय खेल को अभी वह ऊंचाई नहीं मिली है जिसका सपना मेजर ध्यानचंद ने देखा था। सच्चाई यह है कि सवा अरब की आबादी वाले देश में उत्कृष्ट खिलाड़ियों, अकादमियों और प्रशिक्षकों की भारी कमी है और उसी का नतीजा है कि देश खेल के क्षेत्र में अभी भी बहुत पीछे है। एक आंकड़े के मुताबिक देश में सिर्फ पंद्रह प्रतिशत लोग ही खेलों में अभिरुचि रखते हैं। गौर करें तो इसके लिए समाज का नजरिया और सरकार की नीतियां दोनों ही जिम्मेदार हैं। उसका पूरा ध्यान इस बात पर होता है कि राष्ट्रीय खेल अकादमियों का अध्यक्ष व सदस्य कौन होगा। देखा भी जाता है कि जब भी सरकारें बदलती हैं तो खेल में खेल होना शुरू हो जाता है। यहां तक कि मामला न्यायालय की चौखट तक पहुंच जाता है और उसे दखल देना पड़ता है। दुर्भाग्यपूर्ण यह कि खेल संगठनों के नियंता ऐसे लोग हैं जिन्हें खेल का एबीसीडी भी मालूम नहीं है। भला ऐसे माहौल में खेल का विकास कैसे होगा। खेलों के विकास के लिए जरुरी है कि सरकार स्पष्ट नीति के साथ स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों व खेल अकादमियों में धनराशि बढ़ाकर बुनियादी ढांचे के विकास की गति तेज करे ताकि खेल की क्षमता बढ़ सके। उचित होगा कि सरकारें स्कूल स्तर से ही खेल को बढ़ावा देने का काम शुरू करे। स्कूलों में बच्चों की प्रतिभा एवं विभिन्न खेलों में उनकी अभिरुचि का ध्यान रखकर उन्हें विभिन्न वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। इसके बाद उन्हें उचित प्रशिक्षण की सुविधा उपलब्ध होना चाहिए। लेकिन सच्चाई है कि स्कूलों में खेल के प्रति उदासीनता है और उसका मूल कारण खेल संबंधी संसाधनों की भारी कमी और खेल से जुड़े योग्य अध्यापकों का अभाव है। कमोवेश स्कूलों जैसा ही हाल माध्यमिक विद्यालयों का भी है। यहां खेल का केवल औपचारिकता निभाया जाता है। दूसरी ओर कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की बात करें तो यहां संसाधन तो हैं लेकिन इच्छाशक्ति के अभाव में खेलों के प्रति छात्रों की अनासक्ति बनी हुई है। उचित होगा कि केंद्र व राज्य सरकारें खेलों में सुधार के लिए पटियाला में स्थापित खेल संस्थान की तरह देश के अन्य स्थानों पर भी संस्थान खोलें। ऐसा इसलिए कि उचित प्रशिक्षण के जरिए देश में खेलों का स्तर ऊंचा उठाया जा सकता है। यहां यह भी ध्यान देना होगा कि जब तक खेलों को रोजगार से नहीं जोड़ा जाएगा तब तक देश में खेलों की दशा सुधरने वाली नहीं है। अगर खेलों में नौजवानों को अपना भविष्य सुनिश्चित नजर आएगा तभी वे बढ़-चढ़कर हिस्सा लेंगे। खेलों में भविष्य सुरक्षित न होने के कारण ही नौजवानों में उदासीनता है और खेल के क्षेत्र में देश की गिनती फिसड्डी देशों में होती है। गौर करें तो खेल में स्थिति न सुधरने का एकमात्र कारण सरकार की उदासीनता भर जिम्मेदार नहीं है। बल्कि खेल से विमुखता के लिए काफी हद तक समाज का नजरिया भी जिम्मेदार है। आज भी देश में एक कहावत खूब प्रचलित है कि ह्यपढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे होगे खराब। देखा जाता है कि अकसर माता-पिता के माथे पर चिंता की लकीरें खिंच आती हैं जब उनका बच्चा आवश्यकता से कुछ ज्यादा खेलने लगता है। उन्हें डर सताने लगता है कि उनका बच्चा खेलेगा तो पढ़ेगा ही नहीं। स्कूलों में भी गुरुजनों द्वारा बच्चों को डांटते हुए सुना जाता है कि दिन भर खेलोगे तो पढ़ोगे कब। लेकिन अगर सरकार की नीतियों में खेल से रोजगार का जुड़ाव हो तो फिर माता-पिता के मन में बच्चे के भविष्य को लेकर किसी तरह की चिंता नहीं रहेगी। सच तो यह है कि देश में खेल के प्रति उत्साहजनक वातावरण निर्मित नहीं हो पा रहा है और उसी का नतीजा है कि देश अंतर्राष्ट्रीय खेलपदकों से महरुम रह जाता है। हां, यह सही है कि मौजूदा एशियाड खेल में भारत के खिलाड़ी उत्तम प्रदर्शन कर रहे हैं और वे पदक जीतकर देश का मान बढ़ा रहे हैं। लेकिन एक सच यह भी है कि देश में खेल का मतलब क्रिकेट बनकर रह गया है और बाकी खेलों को दरकिनार कर दिया गया है। उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले खिलाड़ियों एवं प्रशिक्षकों को सम्मानित करना होगा। यही नहीं मेजर ध्यानचंद जैसे अन्य महान खिलाड़ी को भी भारत रत्न की उपाधि से विभूषित करना होगा। दो राय नहीं कि खेलों के प्रति बदलते नजरिए से भारत खेल के क्षेत्र में प्रगति कर रहा है लेकिन अभी चुनौती जस की तस बरकरार है। यहां समझना होगा कि जब तक खेल के विकास के लिए ईमानदार नीतियों को आकार नहीं दिया जाएगा, खेल को रोजगार से जोड़ा नहीं जाएगा तब तक भारत में खेल के विकास की गति धीमी ही रहेगी।
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