रिलायंस ग्रुप ने पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष सुनील जाखड़ सहित कांग्रेस के कई वक्ताआें को लीगल नोटिस भेज कर लोकतंत्र को हलके में लिया है। जाखड़ ने नोटिस का जहाज बनाकर व उसे हवा में उड़ाकर रिलांयस को जवाब भी अपने तरीके से दे दिया है। शायद इस तरीके के साथ जाखड़ का जवाब किसी वकील द्वारा दिए गए जवाब से कहीं अधिक मजबूत व चर्चित बन गया है। वैसे भी रिलायंस में ऐसी कोई उम्मीद नहीं थी कि वह संसद में चल रही कार्रवाई के खिलाफ किसी नेता को नोटिस भेजेंगे। अगर अनिल अंबानी अपना पक्ष ही रख देते तो यह काफी होना था। दरअसल यह रूझान अनिल अंबानी का गैर-जरूरी उत्साह व अपने आप को राजनीतिक पार्टियों को टक्कर देने के अहसास की उपज है।
नि:संदेह रिलायंस गु्रप देश का बड़ा कारोबारी घराना है, जो देश की आर्थिकता का अटूट अंग भी बन गया है। रिलांयस को अपने उत्पादों व तकनीक का प्रचार-प्रसार करने का भी अधिकार है लेकिन जब कोई जनप्रतिनिधि किसी लोक मसले पर संसद में आवाज उठाता है तो उसकी अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक लगाना लोकतंत्रीय विरोधी कार्रवाई ही मानी जाएगी। अगर देखा जाए तो जाखड़ का विरोध रिलांयस ग्रुप के साथ ही नहीं बल्कि केन्द्र सरकार के साथ है। जाखड़ तो सरकार पर दोष लगा रहे हैं कि सरकार ने उद्योगपति को फायदा पहुंचाने का कार्य किया है। लीगल नोटिस भेजने की कार्रवाई रिलायंस के लिए ही नमोशी वाली बन गई है। कोई भी राजनीतिक पार्टी लीगल नोटिस का समर्थन नहीं करेगी।
यह घटनाचक्र देश में राजनीतिक व्यवस्था में कार्पोरेट के हावी होने को दर्शाता है। पता नहीं कितने ही नेता संसद के अंदर व बाहर सरकार व निजी कंपनियों की सौदेबाजी के खिलाफ बोल चुके हैं। अगर विधायकों/सांसदों के खिलाफ पैसों के जोर पर बोलने पर पाबंदी लगानी है तो फिर लोकतंत्र की जरूरत ही नहीं रह जाती। कार्पोरेट घरानों ने राजनीति में अपनी मजबूत पकड़ के साथ बेशुमार लाभ कमाया व सरकारी निर्णयों को भी प्रभावित करने की चर्चाएं भी सामने आती रही हैं। रिलायंस ग्रुप की ताजा कार्रवाई के साथ किसी संदेह की गुंजाईश नहीं रह जाती। कार्पोरेट इतना संयम जरूर बरतें कि कम से कम सच-झूठ संबंधी बोलने का अधिकार किसी से न छीना जाए। आम जनता के हितों की अहमियत को समझा जाए या न समझा जाए लेकिन यह बेआवाज नहीं होने चाहिए।
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