क्रिकेटर से राजनीतिज्ञ बने इमरान खान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ले चुके हैं। मीडिया के मार्फत आ रही खबरों के अनुसार पाकिस्तान भारत से मधुर व बेहतर रिशते चाहता है। लेकिन आजादी के बाद अब तक जिस तरह पाकिस्तान ने शरारती पड़ोसी की भूमिका निभाई है उससे यह नहीं कहा जा सकता कि इमरान खान के नेतृत्व के बाद पाकिस्तान की नीति और नीयत में कोई फर्क आएगा।
वहीं पाकिस्तान की लगातार तीसरी लोकतांत्रिक सरकार सेना की दखल के बीच सुशासन स्थापित कर पाएगी, यह एक बहुत बड़ा सवाल है। पिछली दो सरकारें सेना के दखल के कारण तलवार की धार पर चलते हुए अपना शासन किसी तरह कायम रख पाई थीं और अंत में सेना की बलि चढ़ गईं। वहीं इमरान के सेना से सहज संबंधों के मद्देनजर लगता है कि इनकी सरकार को सेना से तारतम्य बिठाने के लिये जद्दोजहद नहीं करनी पड़ेगी। इमरान सरकार के आगाज से लगता है कि नई सरकार के एजेंडे में भारत से रिश्ता चौथी वरीयता पर रहेगा। पहली वरीयता पर अंतर्कलह निपटाकर सुशासन स्थापित करना, दूसरी वरीयता अफगानिस्तान से रिश्ते, तीसरी वरीयता चीन और रूस से संबंधों की प्रगाढ़ता और चौथी वरीयता पर भारत से संबंध इस्लामाबाद की कूटनीति का रुख दिखा रहे हैं।
वैसे तो इमरान खान ने भारत से फिर से वातार्लाप से समस्याएं सुलझाने में रुचि जाहिर की है। परंतु मोदी सरकार चुनावी वर्ष में कश्मीर और आतंकवाद से अलग हटकर किसी वार्ता के लिए तैयार होगी, कहना मुश्किल है। इन सब विवादों के बीच भारतीय पंजाब अपने अलग हुए हिस्से से पारंपरिक व्यापार को, जो कि 1965 के युद्ध के बाद बंद हो गया था, पुनर्जीवित करने में ज्यादा उत्सुक है। वैसे तो मोदी सरकार ने व्यापारी वर्ग के लिए नई-नई योजनाएं और नए-नए क्षेत्र खोले हैं, लेकिन पंजाब के अपने उस सीमा पार हिस्से से संबंधों को पुनर्जीवित करने का स्वप्न अभी साकार होता नहीं दिख रहा है।
इमरान खान के शपथ ग्रहण समारोह में पंजाब के कैबिनेट मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू की उपस्थिति रिश्तों को सुधारने की तरफ संकेत हो सकती थी, लेकिन उनकी यात्रा पंजाब में सत्तारूढ़ कैप्टन अमरेंद्र सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार के बीच ही राजनीतिक बवंडर उठा गई। पिछली बार इस तरह की उम्मीद तब जगी थी जब बादल और शहबाज शरीफ ने इस व्यापार के मुद्दे पर एक संयुक्त वक्तव्य दिया था। वैसे इस्लामाबाद और नई दिल्ली, दोनों को अपने कूटनीतिक रिश्तों में एक नई समझ और विवादों से परे क्षेत्रीय व्यापार की उन्नति पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के तौर पर नई पारी खेलने उतरे पूर्व क्रिकेटर इमरान खान आॅक्सफोर्ड विवि से शिक्षित हैं। आधुनिक सोच उनकी पहिचान रही है तथा एक कट्टर इस्लामी देश में रहने के बाद भी वे उन मूलभूत मुद्दों पर बात करते रहे हैं जो विकास एवं जनहित से जुड़े हों। बीते दो दशक से वे बतौर राजनीतिक नेता सत्ता में आने के लिए जद्दोजहद कर रहे थे। उन्होंने नेशनल असेम्बली में संख्याबल जुटाकर दिखाने के बाद बाकायदा पदभार ग्रहण भी कर लिया। उसके बाद प्रसारित अपने संदेश में इमरान ने पाकिस्तान को आर्थिक बदहाली से उबारने तथा आतंकवाद पर लगाम लगाने जैसी बातें कहीं।
बलूचिस्तान में मचे विद्रोह की चर्चा भी उन्होंने की। देश में फैली बेरोजगारी को लेकर भी इमरान ने अपनी चिंता व्यक्त की लेकिन सबसे बड़ी बात उन्होंने ये कही कि यदि मुल्क ने अपनी दिशा और तौर-तरीके नहीं बदले तो उसकी बरबादी तय है। चुनाव प्रचार के दौरान भी इमरान ने विकास को प्रमुख मुद्दा बनाकर देश की राजनीति को नया रूप देने की कोशिश की थी। उल्लेखनीय है इमरान ने क्रिकेट से सन्यास लेने के बाद अपनी मां की स्मृति में एक अत्याधुनिक कैंसर अस्पताल बनवाकर सार्वजनिक क्षेत्र में प्रवेश किया तथा अपनी छवि एक जनसेवक के तौर पर स्थापित भी की। हालांकि अपनी शादियों तथा रोमांस के किस्सों के चलते वे प्लेबॉय के तौर पर भी प्रसिद्ध हुए। कठमुल्लों की जमात ने तो उन्हें तवज्जो नहीं दी लेकिन आखिरकार इमरान सत्ता तक पहुंच ही गए जिसमें पाकिस्तान के उन युवा मतदाताओं की बड़ी भूमिका मानी जा रही है जो देश की बदहाली से ऊबकर बदलाव चाहते थे।
कहने को तो नवाज शरीफ और भुट्टो परिवार के लोग भी इमरान की तरह से ही विदेशों में पढ़े तथा आधुनिक खयालों के हैं किन्तु लंबे समय से मुल्क की सत्ता इन्हीं दो परिवारों के इर्द-गिर्द घूमती रही। इसलिए लोगों में ये धारणा मजबूत हो गई कि पाकिस्तान की दुरावस्था के लिए शरीफ और भुट्टो परिवार ही जिम्मेदार हैं। लेकिन एक बात पूरे चुनाव और उसके बाद स्पष्ट रूप से देखने मिली कि सेना ने इमरान की ताजपोशी के लिए पूरा इन्तजाम किया। नवाज शरीफ की गिरफ्तारी से उनकी पार्टी कमजोर पड़ चुकी थी वहीं बेनजीर भुट्टो के बेटे बिलावल को पाकिस्तानी अवाम ने अपरिपक्व मानकर किनारे कर दिया। ले-देकर इमरान ही बतौर विकल्प बच रहे थे।
सेना को भी ये लगा कि राजनीति के घाघ खिलाडियों की बजाय इमरान पर हाथ रखना उसके लिए कहीं ज्यादा सुविधाजनक रहेगा। जहां तक बात भारत के साथ रिश्तों की है तो इमरान ने पहले वक्तव्य में बातचीत से मसला सुलझाने की इच्छा तो जाहिर की लेकिन उनकी शपथ विधि में गये पंजाब के मंत्री तथा पूर्व क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्दू को पाक अधिकृत कश्मीर के राष्ट्रपति के बगल में बिठाकर उसी धूर्तता और कुटिलता का परिचय दे दिया जो पाकिस्तान की नीति और नीयत का पर्याय है। जिस इस्लामी कट्टरपन की दुहाई पाकिस्तान के हुक्मरान तथा आतंकवादी नेता देते आए हैं उसकी वजह से पूरा अरब जगत आग के मुहाने पर खड़ा हुआ है। सीरिया तबाह हो चुका है वहीं ईराक अब तक उबर नहीं सका है।
यद्यपि फौज उन्हें विकास और आधुनिकता के सपने साकार करने से रोकने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी तथा चीन भी पाकिस्तान की मजबूरियों का लाभ उठाने से बाज नहीं आयेगा किंतु यही वक्त है जब इमरान इस उपमहाद्वीप में एक नई सोच वाले नेता के रूप में उभरकर पाकिस्तान की छवि और भविष्य दोनों सुधार सकते हैं। एक बात और भी महत्वपूर्ण है कि जो जनता आतंकवादी संगठनों के उम्मीदवारों को थोक के भाव हरा सकती है वह जरूरत पड़ने पर सेना के दबाव से भी सत्ता को मुक्त करने आगे आ सकती है। चुनाव के दौरान पाकिस्तानी समाचार माध्यमों में भारत में चल रहे विकास के एजेंडे की खूब चर्चा हुई। आतंकवाद के कारण देश की छवि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खराब होना भी मुद्दा बना।
यहां तक कि भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से तुलना करते हुए वहां के नेताओं को निकम्मा तक ठहराया गया लेकिन इमरान के पास पूर्ण बहुमत नहीं होने के कारण वे मजबूत की बजाय मजबूर प्रधानमंत्री हो सकते हैं। भारत के साथ सीमा पर तनाव बनाए रखते हुए पाकिस्तानी सत्ताधीश अपनी जनता का भावनात्मक शोषण करते आए हैं। कश्मीर में आतंकवाद को प्रश्रय देकर आतंकवादी संगठनों को खुश करने की कोशिश भी होती रही है लेकिन इसके कारण मुल्क के अंदरूनी हालात बुरी तरह से खराब होते गए। बलूचिस्तान के लोग विद्रोह पर उतारू हैं। देर सबेर पृथक सिंध की दबी हुई चिंगारी भी भड़क सकती है। सबसे बड़ी बात अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को पहले सरीखी खैरात न दिया जाना है। जिसकी वजह से उसकी माली हालत दिन ब दिन बिगड़ती जा रही है।
ये सब देखते हुए इमरान खान के सामने चुनौतियों के पहाड़ खड़े हुए हैं। पूर्ण बहुमत मिलने पर वे शायद बहुत कुछ कर सकते थे किन्तु एक लंगड़ी सरकार का नेतृत्व तथा सत्ता संचालन में अनुभवहीनता के चलते उनमें वह पैनापन नहीं रहेगा जो क्रिकेट खेलते समय बतौर तेज गेंदबाज उनकी गेंदों में रहा करता था। बहरहाल भारत को इमरान की इस नई भूमिका पर सतत निगाह रखनी पड़ेगी क्योंकि अपनी निजी जिंदगी में चलते रहे अस्थायित्व की तरह सत्ता-सुंदरी के साथ उनका गठबंधन कितना स्थायी रहेगा ये कहना मुश्किल है।
राजेश माहेश्वरी
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