आजादी के सात दशक बाद भी यह सवाल जेरेबहस है कि आजादी की जंग के दौरान जो सपने बुने-गढ़े गए थे क्या वे पूरे हुए हैं? क्या समाज के अंतिम पांत का अंतिम व्यक्ति आजादी के लक्ष्य को हासिल कर लिया है? दो राय नहीं कि आजादी के बाद इन सात दशकों में देश ने उल्लेखनीय प्रगति की है और वैश्विक जगत में भारत का परचम लहराया है। पर गौर करने वाली बात यह है कि देश आज भी गंभीर सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों से उबर नहीं पाया है।
ऐसे में आवश्यक हो जाता है कि इन सात दशकों की उपलब्ध्यिों और चुनौतियों का मूल्यांकन हो। अगर उपलब्धियों की बात करें तो नि:संदेह देश प्रगति की राह पर अग्रसर है। देश की अधिकांश आबादी जो कृषि कार्य से जुड़ी है उनकी जीवन शैली में बदलाव हुआ है और किसानों की हालत सुधरी है। फसलों की उत्पादकता बढ़ी है और राष्ट्रीय आय का लगभग 28 प्रतिशत भाग कृषि आय से प्राप्त हो रहा है। कृषि कार्य हेतु भूमि उपयोग बढ़कर 43.05 प्रतिशत हो गया है। सरकारी कामकाज में पारदर्शिता और बिचैलियों की भूमिका समाप्त होने से किसानों को उनके उत्पादों की अच्छी आय मिलने लगी है और उत्तम कृषि उत्पादन ने अर्थव्यवस्था और उद्योग-धंधों का विस्तार किया है।
जहां लघु एवं कुटीर उद्योगों ने हर हाथ को काम दिया है वहीं बड़े पैमाने के उद्योगों ने रोजगार सृजन के साथ तीव्र औद्योगीकरण की नींव को मजबूत की है। औद्योगीकरण और वैश्वीकरण ने भारतीय शिक्षा, विज्ञान व संचार के क्षेत्र में क्रांति ला दी है। आज देश में कई विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय और तकनीकी संस्थान हैं जिनकी बदौलत भारतीय छात्र देश-दुनिया में रोज नए-नए इनोवेशन कर रहे हैं। विज्ञान के क्षेत्र में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन-इसरो ने कीर्तिमान रच दिया है। अब इसरो के जरिए स्वदेशी उपग्रहों के साथ कई विदेशी उपग्रह एक साथ भेजे जा रहे हैं। इन सात दशकों में देश में सामाजिक सुरक्षा व सेवाओं का भी विस्तार हुआ है।
सामाजिक सुरक्षा को मजबूत करने के लिए आज देश में पोषण सुरक्षा की देखभाल राष्ट्रीय तैयार मध्यान्ह भोजन कार्यक्रम, समन्वित बाल विकास योजना, किशोरी शक्ति योजना, किशोर लड़कियों के लिए पोषण कार्यक्रम और प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना चलायी जा रही है। राष्ट्रीय तैयार मध्यान्ह भोजन कार्यक्रम लगभग पूरे भारत में चल रहा है। समन्वित बाल विकास योजना का विस्तार भी चरणबद्ध ढंग से हो रहा है। 11 से 18 वर्ष तक की उम्र की लड़कियों के पोषण एवं स्वास्थ्य संबंधी विकास के लिए सरकार ने किशोरी शक्ति विकास योजना को हर जगह लागू किया है।
एक अरसे से श्रम आंदोलन के तहत सामाजिक सुरक्षा को मजबूत बनाने के लिए राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कार्यक्रम लागू करने की मांग की जाती रही जिसे सरकार ने 2005 के मध्य में लागू कर दिया। इस अधिनियम के तहत कोई भी वयस्क व्यक्ति जो न्यूनतम मजदूरी पर आकस्मिक श्रम करने के लिए इच्छुक है वह 15 दिनों के अंदर स्थानीय जनकार्य में रोजगार पाने के लिए पात्र होगा। इसके अंतर्गत लोगों को वर्ष में उसके निवास से एक किमी के भीतर 100 दिनों का काम दिए जाने का प्रावधान लागू किया गया है।
राज्यों के अंतरगत लक्षित जन वितरण प्रणाली के तहत पहचान किए गए गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों में से, अत्यंत ही गरीब एक करोड़ परिवारों की पहचान करने का कार्य अंत्योदय योजना के तहत किया गया है। इन परिवारों को 2 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से गेहूं और 3 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से चावल मुहैया कराया जाता है। सामाजिक सुरक्षा के तहत रोजगार सृजन और गरीबी उन्मूलन रणनीति के तहत सरकार द्वारा स्वरोजगार योजना और दिहाड़ी रोजगार योजना चलाया जा रहा है। खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग को संशोधित कर लघु एवं ग्रामीण उद्योगों के जरिए ज्यादा से ज्यादा रोजगार सृजन करने के लिए सुनिश्चित किया गया है।
असंगठित क्षेत्र को सामाजिक सुरक्षा से लैस करने के लिए राश्ट्रीय उद्यम आयोग की स्थापना एक पारदर्शी निकाय के रुप में की गयी है। लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि आज भी देश जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, नक्सलवाद, अलगाववाद, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी और लैंगिक असमानता से मुक्त नहीं हो पाया है। देश की एक बड़ी आबादी आज भी जीवन की मूलभूत सुविधाओं मसलन रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित है। सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि देश में 27 करोड़ लोग गरीब हैं। 68 करोड़ लोग ऐसे हैं जो बुनियादी सुविधाओं से महरुम हैं। आर्थिक विषमता की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है।
राष्ट्रीय फैमिली हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट में कहा गया है कि अफ्रीका की तुलना में भारत में दोगुने बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। कुपोषण के शिकार पांच साल से कम उम्र के चार करोड़ बच्चों का शारीरिक विकास नहीं हो पाया है। शिशु मृत्यु दर की हालात और भयावह है। 2015 में देश में पैदा होने वाले प्रति हजार बच्चों पर 37 बच्चों की मृत्यु हुई। बच्चे किस्म-किस्म की गंभीर बीमारियों की चपेट में हैं। मेटरनल मॉर्टेलिटिी रेशियो (एमएमआर) और इंटरनेशनल प्रेग्नेंसी एडवाइजरी सर्विसेज की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में असुरक्षित गर्भपात से हर दो घंटे में एक स्त्री मर रही है। गांवों में डॉक्टरों की भारी कमी है। 90 फीसद गर्भवती महिलाएं स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए झोलाछाप डॉक्टरों पर निर्भर हैं। दूसरी ओर कड़े कानून के बाद भी महिलाओं पर अत्याचार थमने का नाम नहीं ले रहा।
लैंगिंक असमानता जस की तस बनी हुई है। संयुक्त राष्ट्र की ह्यद वर्ल्डस वीमेन 2015 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में पांच साल से कम उम्र की लड़कियों की मौत इसी उम्र के लड़कों की तुलना में ज्यादा होती है। लेकिन अगर श्रम बल में महिलाओं की संख्या को पुरुषों की संख्या के समान की जाए तो भारत की जीडीपी 27 फीसद तक बढ़ सकती है। सख्त कानूनों के बावजूद भी इस समय देश में सवा करोड़ से अधिक बाल श्रमिक मौजूद हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग स्वयं स्वीकार चुका है कि उसके पास बालश्रम के हजारों मामले दर्ज हैं। रोजगार के मामले में भी स्थिति संतोषजनक नहीं कही जा सकती। श्रम मंत्रालय की श्रम ब्यूरो द्वारा जारी सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में बेरोजगारी की दर में लगातार वृद्धि हो रही है। 2016 में बेरोजगारों की संख्या 1.77 करोड़ थी।
इस साल यह संख्या 1.78 करोड़ और 2018 में 1.8 करोड़ हो सकती है। यह राहतकारी है कि भारत सरकार ने बेरोजगारों को रोजगार प्रदान करने के लिए स्किल इंडिया के जरिए सन 2022 तक 40 करोड़ लोगों को प्रशिक्षित करने का लक्ष्य रखा है। शिक्षा की बात करें तो शिक्षा का अधिकार कानून तथा सर्व शिक्षा अभियान जैसी योजनाओं के बावजूद भी लाखों बच्चे स्कूली शिक्षा की परिधि से बाहर हैं। कुल सरकारी खर्च का 20 फीसद हिस्सा शिक्षा पर खर्च होना चाहिए। लेकिन इस मद में 4 फीसद तक भी ही खर्च नहीं हो पा रहा। न्यायिक मोर्चे पर भी अपेक्षित सफलता हासिल नहीं हो रही है। शीध्र व सस्ता न्याय की चुनौती जस की तस बनी हुई है।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 31 दिसंबर 2015 तक सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों सहित देश की सभी अदालतों में 2.64 करोड़ मुकदमें लंबित थे। मुकदमों के निस्तारण में दशकों का वक्त लग रहा है। पर्यावरण के मोर्चे पर भी हालात संतोषजनक नहीं हैं। दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों की सूची में देश की राजधानी दिल्ली शीर्ष पर है। देश में सालाना 12 लाख से अधिक लोगों की मौत प्रदूषण से होती है। 2015 में वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में भारत की हिस्सेदारी 6.3 फीसद रही।
देश में सड़क हादसे से हर वर्ष लाखों लोग काल के मुंह में जा रहे हैं। एक अध्ययन के मुताबिक देश में सड़क नियम का पालन न होने से पिछले एक दशक में 13 लाख से अधिक लोग सड़क हादसों में मारे गए हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह कि लोकतंत्र का मंदिर संसद भी अपने उत्तरदायित्वों के प्रति गंभीर नहीं है। संसद में कामकाज का समय घटता जा रहा है और गैरजरुरी मसलों पर समय जाया किया जा रहा है। देश के राजनेताओं और जनमानस दोनों को समझना होगा कि देश महान व समृद्ध तभी बनेगा जब आजादी के लक्ष्य को हासिल किया जाएगा।
अरविंद जयतिलक
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