इसलिए दु:खी नहीं हैं कि भगवान ने उन्हें सुख नहीं दिया। उनका एकमात्र दु:ख यही है कि और लोग सुखी क्यों हैं। विशेषकर पावन कहे जाने वाले अपने क्षेत्र में ऐसे लोगों की जबर्दस्त भरमार है। जो बेचारे बहुत दु:खी हैं और उनके दु:ख का निवारण करने का सामर्थ्य किसी में नहीं है। सुख और दु:ख की प्राप्ति के पौराणिक मनोविज्ञान से नासमझ ये लोग कभी इस बात का चिंतन नहीं करते कि उनका दु:ख क्या है, इसका कारण क्या है और निवारण का तरीका क्या है। दु:खों के वैचारिक व्योम में सदैव दु:ख प्रकटाने वाले विचारों को लिए हुए ये लोग धीरे-धीरे इतने दु:खी होने लगते हैं कि इनका पूरा आभा मंडल ही दु:खों के कई-कई आवरणों से ढक जाता है और इनका मौलिक सूक्ष्म शरीर भी दिखना बंद हो जाता है।
जो जैसा चिंतन करता है वैसा स्थूल जगत उसके लिए तैयार हो जाता है और उन्हीं तरह के विचारों के अनुरूप उसके जीवन की दिशाएं और दशाएं निश्चित होती रहती हैं। जो किसी भी रूप में वर्तमान या भावी अथवा भूतकालीन दु:ख का चिंतन करता है, सूक्ष्म रूप में उसकी वैचारिक धारणाएं और क्रियाएं इन्हीं दु:खों में ढलने लगती हैं और बाद में मौका पाकर स्थूल आकार पा लेती हैं। इसके विपरीत जो लोग ईश्वरीय विधान को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर दु:खों की बजाय सकारात्मक भावों और सुखों का चिंतन करते हैं उन्हें कालान्तर में सुखों की प्राप्ति होने लगती है। इस सकारात्मक चिंतन से उनका शरीर और आभामण्डल भी दिव्य हो उठता है और सदैव प्रसन्नता की भाव-धारा का प्रवाह बना रहता है।
सुखों की प्राप्ति के लिए कठोर परिश्रम, ईमानदारी के साथ निरन्तर प्रयास, पुरातन श्रेष्ठ परंपराओं का अनुगमन और उच्च विचारों तथा शुचिता भरी जीवन यात्रा जरूरी है। जो लोग आज श्रेष्ठीजन कहे जाते हैं उन्होंने अपने जीवन में कितनी मेहनत की होती है, इससे इन दु:खी होने वालों को कोई सरोकार नहीं। दूसरों के सुख से दु:खी होने वाले लोगों को मनोरोगी की श्रेणी में रखा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। ये लोग न मेहनत करना चाहते हैं, न कर सकते हैं। ऐसे लोगों के जीवन में न नैतिकता होती है न ईमानदारी और न ही समाज के लिए जीने का जज्बा। इन लोगों का सर्वोपरि गुण होता है हड़प जाना और डकार भी न लेना। जिसे जो प्राप्त हुआ है, हो रहा है और होना है, वह उसके पूर्वजन्मों व वर्तमान की मेहनत का प्रतिफल होता है।
हर मनुष्य को कर्मयोग करना चाहिए। इसके लिए पुरुषार्थ चतुष्टय धर्म, अर्थ, कर्म और मोक्ष की प्राप्ति का विधान है। लेकिन इन सभी को दरकिनार कर सिर्फ प्राप्ति ही प्राप्ति के पीछे पड़ जाने वाले लोग आसुरी वृत्तियों का दामन थाम लेते हैं और फिर इनके जीवन से शेष सारी अच्छाइयां और लक्ष्य पलायन कर जाते हैं। इन्हें हर संबंध और हर रास्ता आवक भरा ही लगता है। जो मिल जाए उसी में संतोष नहीं कर पाते, बल्कि ये चाहते हैं जिस तरह भी हो सके, जितनी जल्दी हो सके धन-दौलत का रास्ता उन्हीं के घर आकर समाप्त हो जाए। ऐसे में इन्हें घेर लेती हैं कुण्ठाएं। जहाँ मनोमालिन्य शुरू हो जाता है वहाँ वह सब दिखने लगता है जो अंधकार में ही हो सकता है।
यह अंधकार इनमें वे सारे अवगुण भर देता है जिसकी वजह से जीवन में रोशनी आने के तमाम रास्ते बंद हो जाते हैं। तब इन्हें परिवेश में जो कुछ होता दिखता है उसे ये अपने कब्जे में लाने को लालायित रहने लगते हैं। यहीं से शुरू होती है दु:खी होने की यात्रा। औरों का हर सुख इन्हें दु:खी करता है और इनका दिन उगता ही है दु:खों की फेहरिश्त लेकर। रात को इन्हें सपने में भी दु:खी होने की आदत पड़ जाती है। ऐसे दु:खी लोगों को आप कितना ही कुछ समझा लें, इन उल्लूओं को कभी रोशनी का कतरा रास आता ही नहीं।
इस किस्म के हर दु:खी इंसान का जिस्म भी दुर्गन्ध देने लगता है और बीमारियां घेर लेती हैं। इन आत्म-दुखियारों की पीड़ाओं का निवारण न लुकमान हकीम कर सकते हैं न भगवान या कोई और। इनके शरीर छोड़ने के बाद भी आत्मा दु:खों के पैगाम के साथ यहाँ-वहाँ भटकती रहती है और उन सभी ?से लोगों के इर्द-गिर्द मण्डराने लगती है जो दूसरों के सुख से दु:खी रहते हैं। इन्हें देख कर हम दु:खी न हों, इन पर तरस खाएं और यह मानकर आगे बढ़ चलें कि हमारे यहाँ पिशाचों और प्रेतों का वजूद हर युग में रहा है, और रहेगा।
दीपक आचार्य
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