नेशनल रजिस्टर आॅफ सिटीजन अर्थात एनआरसी की अंतिम सूची जारी होने के बादपूर्वोतर राज्य असम में 40 लाख लोगों के भविष्य पर बादल मंडराने लगे है। यह लोग दशको से असम में रह रहे हैं। बांग्ला भाषा बोलने वाले इन लोगों की भारतीय नागरिकता छीन ली गई है। अब ना तो ये लोग पहले की तरह वोट कर सकेंगे, ना ही यह लोग किसी कल्याणकारी योजना का लाभ ले सकेगे और तो और अब खुद की अपनी ही संपति पर इनका कोई अधिकार नहीं रह जायेगा। पूरी सूची को अपडेट करने में तीन साल का समय लग गया। साल 2015 सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देश के बाद और उसकी देख रेख में यह सूची अपडेट हुई। इसको अपडेट करने में सरकार काकरीब अठारह करोड डॉलर का खर्चा आया है। कहा जा रहा है किइस सूची के आने के बाद असम में रह रहे अवैध बांग्लादेशियों की शिनाख्त करने में मदद मिलेगी। राष्टीय नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी असम में रहने वाले भारतीय नागरिकों की एक सूची है जिन लोगों के नाम इस सूची में शामिल नहीं हैं,उन्हें बांग्लादेश से आए अवैध प्रवासी माना जाएगा।
इस सूची में नाम जुड़वाने के लिए आवेदन करने वाले राज्य के कुल 3.9 करोड लोगों में से चालिस लाख सात हजार सात सौ लोगों के नाम इस सूची में शामिल नहीं है जिसका अर्थ यह है कि इन लोगों के असम का नागरिक होने के दावे को स्वीकार नहीं किया गया है। यह राज्य की कुल आबादी के 12 फिसदी के बराबर है। एनसीआर का पहली सूचीबीते साल 31 दिसंबर को जारी कि गई थीगइ इसमें 3.29 करोड लोगों में से केवल 1.9 करोड को ही भारत का वैध नागरिक माना गया था।
देखा जाए तो पहचान और नागरिकता का प्रश्न असम में रहने वाले लाखों लोगों के लिए नया नहीं है। साल 1985 के बाद असम की विशेष अदालते 85,000 से ज्यादा लोगों को विदेशी घोषित कर चूकी है।इनमें ज्यादातर बंगाली बोलने वाले मुस्लिम थे ।
देश के विभाजन के बाद तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से आने वाले अवैध अप्रवासियों की पहचान के लिए राज्य में वर्ष 1951 में पहली बार एनआरसी को अपडेट करने का काम किया गया था। उसके बाद भी बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ लगातार जारी रही। साल 1971 के बाद असम में इतनी भारी तादाद में शरणार्थी पहुंचे कि राज्य में आबादी का स्वरूप ही बदलने लगा।अवैध रूप से आने वाले इन लोगों ने राज्य के संसाधनों में हिस्सेदारी बांटना शुरू कर दिया।
असम में लंबे समय से इन अवैध बांग्लादेशियों का विरोध हो रहा है और इसी वजह से ही 1951 में राज्य में पहली बार एनआरसी को बनाने की प्रक्रिया शुरू की गई थी। इसके बावजूद यह विवाद थमा नहीं। आॅल असम स्टूडेंट यूनियन (आसू) और असम के दूसरे संगठनों ने अस्सी के दशक की शुरूआत में असम में आदोलन शुरू किया। लगभग छह साल तक चले इस आंदोलन के बाद साल 1985 में प्रदर्शनकारियों और केंद्र सरकार के बीच एक समझौता हुआ। समझौते में कहा गया था कि 25 मार्च 1971 के बाद सही दस्तावेजों के बिना जो असम में रह रहा है उसे विदेशी घोषित किया जाएगा। जिन लोगों के पास असम का निवासी होने संबंधी कोई पुख्ता दस्तावेजी साक्ष्य नहीं होगा उनके नाम एनआरसी में शामिल नहीं किए जाएंगे।
एनआरसी में शामिल होने के लिए नागरिकों को अपने समर्थन में इस बात के दस्तावेजी सबुत पेश करने थे कि वह या उसके पूर्वज वर्ष 1951 की एनआरसी या उसके बाद बनने वाली मतदाता सूचियों में शामिल थे। कुलमिलाकर यह कहा जा सकता है कि इस समझौते के द्वारा अवैध अप्रवासियों की पहचान के लिए एनआरसी को अपडेट करने का प्रावधान किया गया था। लेकिन किसी न किसी वजह से यह मामला लटका रहा। बाद में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश और उसकी देखरेख में वर्ष 2015 में एनआरसी को अपडेट करने काम दुबारा शुरू हुआ । अब तीन वर्ष की कवायद के बाद सामने आई एनआरसी में दशकों से निवास करने वाले 40 लाख से अधिक लोगों के नाम नहीं हैं। ऐसे में सियासी बवाल उठना लाजमी था।
पुरी प्रक्रिया के संदर्भ में देखे तो एक तरफ अवैध रूप से आए अप्रवासी है, दूसरी ओर केन्द्र तथा राज्य की सरकार हैं। दोनों के ही अपने अपने हित है। यहां प्रश्न यह उठ रहा है कि इन स्टेटलेस लोगों का क्या होगा। अवैध नागरिक घोषित हो जाने के कारण भारत में यह रह नहीं सकेगे। बाग्लादेश इन्हें स्वीकार नहीं करेगा। ऐसे मेंहमेशा इस बात का खतरा मडराता रहेगा कि कंही देश के हालात म्यांतार से बांग्लादेश भागे रोहिंग्या जैसे न हो जाए। दूसरा अहम प्रश्न यह है कि इन अवेध विदेशियों ने वैध तरीके से असम में जो संपती अर्जित की है उसका क्या होगा। चैथा, अवैघ घोषित किए गए अप्रवासियों को शरणार्थी शिवरों में रखे जाने पर नई तरह की समस्याए पैदा होंगी उनसे निपटने के लिए सरकार की क्या योजना है। शिविरों में बुनियादी सुविधाओं और मानवाधिकारों के हनन के नाम पर अप्रवासियों का मामला पूरी दुनिया का ध्यान खींचेगा। पांचवा, एनआरसी में छूटे लोगों की स्थिति भी स्पष्ट नहीं है क्यों की बाग्लादेश और भारत के बीच ऐसे लोगों को लेकर कोई समझौता नहीं है। अवैध बांग्लादेशी लोगों के कारण भारत-बांग्लादेश संबंधों में तनाव उत्पन्न होगा। बाग्लादेश में भी डर है कि कहीं ये शरणार्थी उनके यहां न पंहुच जाए। बांग्लादेश से अच्छे संबंध रखना भारत की कूटनीतिक मजबूरी भी है। ऐसे में भारत के लिए हालिया स्थिति असहज करने वाली होगी
हालाकी सरकार ने इस मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए अवैध अप्रवासियों के विरूद्व नरम रूख अपनाये जाने के संकेत दिए है। सरकार की ओर से कहा जा रहा है कि जिनके नाम सूची में नहीं होंगे उनको तत्काल न तो जेल में डाला जाएगा और न ही बांग्लादेश भेजा जाएगा। सरकार की माने तो एनआरसी ने वंचित लोगों को एक अगस्त से 28 सिंतबर के बीच अपने दावे और आपतियां प्रस्तुत करने को कहा है। 28 सितंबर के बाद उन पर विचार किया जाएगा। खास बात यह है कि इस प्रकरण में जिन लोगों के दावे स्वीकार नहीं होगें उन्हें इसकी वजह भी बताई जाएगी। तमाम दावों को निपटाने के बाद ही अंतिम सूची जारी की जाएगी। राजनाथ सिंह ने साफ कर दिया है कि एनआरसी कीफाइनल रिर्पोट आने के बाद भी लोगों को इसके खिलाफ फारेन टिब्युनल में अपील करने का अवसर होगा जहां वे अपनी नागरिकता साबित कर सकते हैं।
दूसरी ओर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्रीममता बेनर्जी और अन्य विपक्षी दल इसमें भाजपा की राजनीति देख रहे हैं। लेकिन एनआरसी पर आपती जताने वाले यह लोग शायद इस तथ्य को भूल गए हैं कि बाग्लादेश से चोरीछीपे भारत की सीमा में घुस आए लोगों ने असम और पूर्वोतर के अन्य राज्यों के साथ ही पश्चिम बंगाल के कई इलाको में भी राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य को बदने का काम किया है। यह सच है कि बाग्लादेशी घूसपेठियों ने पहले राशनकार्ड हासिल किए फिर राजनीतिक दलों की शह के चलते वे इस देश के सम्मानीत मतदाता बने। अब आधार जैसे यूनीक दस्तावेज लेकर वे भारत की नागरिकता का दावा करने लगे है। लेकिन नागरिकता कोई ऐसी चीज तो नहीं है जिसे हर किसी को प्लेट में सजाकर दे दी जावे। देश की राजनीतिक पार्टियों को भी इस बात को समझना चाहिए कि व्यक्तिगत हितों के नाम पर अगर हम यूंही राष्ट्रीय हितों का बलिदान करते रहेगें तो भावी संततियों के सामने हम किस तरह के उदाहरण प्रस्तुत करेगे। कम से कम असम के मामले में तो ऐसा ही लग रहा है।
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