यह निर्विवाद है कि व्यक्ति मामूली बीमार होते ही सीधा एलोपैथी के अस्पताल जाना ज्यादा पसंद करता है ताकि तुरंत आराम मिल सके। इन असपतालों में अंग्रेजी दवाओं से चिकित्सा की जाती है। आजकल भारत सरकार और राज्य सरकारों ने हालाँकि अस्पतालों में मुफ्त इलाज की सुविधा दे रखी है। मगर सरकारी अस्पतालों की बदहाली और असाध्य रोगों के इलाज के लिए लोगों को निजी अस्पतालों की शरण लेनी पड़ती है। दोनों ही स्थानों पर अंग्रेजी दवाइयों का बोलबाला है। ये दवाइयां आम आदमी की समझ से बाहर है। स्वास्थ्य पर इनके दुष्प्रभाव से हम वाकिफ नहीं है। दवाइयों की कीमत भी गरीब के लिए जानलेवा है। बाजार में कैसी कैसी दवाइयां और उनकी किस्में है इसका पता या तो डॉक्टर को है या केमिस्ट को। आम आदमी को तो खरीदने से ही मतलब है। अंग्रेजी दवाइयों के इस मकड़जाल में पूरा देश फंसा हुआ है। इस भ्रमजाल से निकलने का रास्ता अभी नहीं मिल रहा है।
अंग्रेजी दवाइयों का गड़बड़झाला भारत में शुरू से ही रहा है। इसके वर्चस्व को तोड़ने की गंभीर कोशिश कभी नहीं हुई जिसके फलस्वरूप इनके दाम मनमाने तरीके से निर्धारित हुए। आम आदमी के समझ से बाहर होने के कारण अंग्रेजी दवाइयों ने खौफनाक ढंग से देश के बाजार पर अपना कब्जा कर लिया। इस जनद्रोह में विदेशी के साथ देशी कम्पनियाँ भी शामिल थी जिन्हे राजतन्त्र का परोक्ष समर्थन शामिल था। इस दौरान नकली और घाटियां दवाइयों का बाजार भी खूब फला फुला। एक रुपए में बनने वाली टेबलेट 100 रुपयों में बेचीं गई।
जीवन रक्षक दवाइयों के दाम आसमान को छूने लगे। राजनीतिक पार्टियों और सामाजिक संगठनों ने इस लूट के खिलाफ कभी जोरदार आवाज बुलंद नहीं की। दवा कम्पनियाँ अपने राजनीतिक आकाओं के हित साधने लगी। यही नहीं घटिया और नकली दवाओं का बाजार भी खूब गर्म हुआ। मानव स्वास्थ्य के साथ सरेआम खिलवाड़ हुआ। बड़ी संख्यां में लोग मौत के मुहं में समां गए तब जाकर राज की निंद्रा टूटी। मगर आपाधापी की कारवाही के आगे कुछ नहीं हुआ। नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद इस गड़बड़झाले को समझने का प्रयास अवश्य हुआ। दवाइयां कुछ हद तक सस्ती हुई मगर अभी भी आसमान काले रंग से रंगा हुआ है। इसे समझने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की अध्यक्षता में किसी आयोग के गठन की जरुरत है जो देख और समझ कर दवा बाजार के गड़बड़झाले के चक्रव्यूह में सेंध लगा सके। सबसे पहले दवाओं के तिलिस्म को समझने की जरुरत है।
एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में लगभग 200 बिलियन डालर का घटिया और नकली दवाओं एवं वैक्सीन का धंधा है। एशिया में बिकने वाली 30 प्रतिशत दवाएँ नकली या घटिया हैं। भारत में बिकने वाली हर पाँच गोलियों के पत्तों में में से एक नकली है। इन दवाइयों से हर वर्ष लगभग 5 प्रतिशत धनहानि देश को होती है और ये धंधा बेरोकटोक चल रहा है और असली दवाइयों के व्यापार से भी ज्यादा तरक्की कर रहा है। दो वर्ष पहले के एक सर्वे से पता चला है कि एशिया घटिया और नकली दवाइयों का सबसे बड़ा उत्पादक है। नकली दवाइयों और वैक्सीनों से हर वर्ष लगभग 10 लाख लोग काल के गाल में समा जाते है। भारत के स्वास्थ्य मंत्रालय की माने तो भारत में 5 प्रतिशत दवाएँ चोर दरवाजे वाली एवं ०.3 प्रतिशत नकली हैं।
देश में 10,500 दवा कंपनियां हैं, लेकिन 1400 दवा कंपनियां ही डब्ल्यूएचओ जीएमपी सटीर्फाइड हैं।दवा एक केमिकल होता है। रसायन होता है। दवा कंपनियां अपने मुनाफा एवं विपरण में सहुलियत के लिए इन रसायनों को अलग से अपना ब्रांड नाम देती है। जैसे पारासेटामल एक साल्ट अथवा रसायन का नाम है लेकिन कंपनिया इसे अपने हिसाब से ब्रांड का नाम देती हैं और फिर उसकी मार्केंटिंग करती है। ब्रांड का नाम ए हो अथवा बी अगर उसमें पारासेटामल साल्ट है तो इसका मतलब यह है कि दवा पारासेटामल ही है।
दवाओं के दुष्प्रभावों का अध्ययन करने वाली संस्था फामार्कोपिया कमीशन ने 105 तरह की दवाओं को लेकर अलर्ट जारी किया है। इन दवाओं से आप किडनी लीवर और हार्ट के गंभीर मरीज बन सकते हैं। ये दवाएं ऐसी हैं जिन्हें हम सामान्यतौर पर खाते रहते हैं और डॉक्टर से कई बार पूछने की जहमत तक नहीं उठाते। फार्मा कंपनियों को भी अब सिगरेट पैकेट की तरह वैधानिक चेतावनी दवाओं के लिए भी जारी करनी पड़ सकती है।
बाल मुकुन्द ओझा
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