देश की राजधानी दिल्ली में सरकार द्वारा हजारों पेड़ काटने की अनुमति प्रदान किए जाने को लेकर विवाद खड़ा होने के बाद अंतत: दिल्ली सरकार द्वारा यह तर्क देते हुए राजधानी में पेड़ काटने के सभी आदेश रद्द कर दिए गए हैं कि पेड़ काटने के नियमों के उल्लंघन का मामला सामने आया है। राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) द्वारा भी दक्षिणी दिल्ली की कालोनियों के पुनर्विकास के नाम पर पेड़ों की कटाई पर अस्थायी रोक लगाई जा चुकी है तथा दिल्ली हाईकोर्ट ने भी पेड़ों की कटाई पर रोक लगाते हुए सरकार से सवाल किए हैं कि क्षतिपूरक वनीकरण नीति के तहत लगाए जाने वाले 10 छोटे पौधे एक बड़े पेड़ की बराबरी कैसे कर सकते हैं? कड़ी फटकार लगाते हुए हाईकोर्ट द्वारा दो टूक शब्दों में कहा गया कि दक्षिणी दिल्ली की सरकारी आवासीय कालोनियों के पुनर्निर्माण के नाम पर 16500 पेड़ों को काटने का प्रस्ताव इस शहर को मरने के लिए छोड़ देने जैसा है। वैसे सरकारी परियोजनाओं के तहत 3300 पेड़ अब तक काटे भी जा चुके हैं। कैग की एक रिपोर्ट पर नजर डालें तो दिल्ली पहले से ही करीब नौ लाख पेड़ों की कमी से जूझ रही है और दूसरी ओर शहरीकरण की कीमत पर सरकारी आदेशों पर साल दर साल हजारों हरे-भरे विशालकाय वृक्षों का सफाया किया जा रहा है।
पिछले 5-6 वर्षों के दौरान दिल्ली में नए आवासीय परिसर, भूमिगत पार्किंग, व्यापारिक केन्द्र खोलने और मार्गों को चौड़ा करने के लिए करीब बावन हजार छायादार वृक्षों का अस्तित्व मिटाया जा चुका है और इन्हीं पांच वर्षों के प्रदूषण के आंकड़ों का विश्लेषण किया जाए तो पता चलता है कि इस दौरान हरियाली घटने से दिल्ली में वायु प्रदूषण करीब चार सौ फीसदी बढ़ा है। अब मौसम चक्र तेजी से बदल रहा है, जलवायु संकट गहरा रहा है और इन पर्यावरणीय समस्याओं से निपटने का एक ही उपाय है वृक्षों की अधिकता। वायु प्रदूषण हो या जल प्रदूषण अथवा भू-क्षरण, इन समस्याओं से केवल ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाकर ही निपटा जा सकता है लेकिन इसके बावजूद दिल्ली में प्रदूषण की भयावह स्थिति होने पर भी साढ़े सोलह हजार वृक्षों को काटने का निर्णय सरकारी नीतियों पर बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाता है।
संभवत: इसीलिए दिल्ली हाईकोर्ट ने भी पेड़ काटे जाने की मंजूरी देने पर गंभीर सवाल उठाते हुए पूछा है कि क्या दिल्ली इस हालत में है कि वो इतने वृक्षों का विनाश झेल लेगी और क्या आवासीय परियोजना के लिए राजधानी में हजारों पेड़ काटे जाने को देश बर्दाश्त करेगा? पिछले कुछ समय में पर्यावरण संबंधी अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कई रिपोर्टों में स्पष्ट हो चुका है कि दिल्ली दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में शुमार है। हर साल दिल्ली में करीब पांच हजार लोग वायु प्रदूषण के कारण दम तोड़ देते हैं।
इतनी बड़ी संख्या में पेड़ काटे जाने की योजना के विरोध में स्वर बुलंद होने पर सरकारी एजेंसियों द्वारा तर्क दिया गया कि जितने पेड़ काटे जाने हैं, उसके बदले 10 गुना वृक्ष लगाए जाएंगे किन्तु वृक्षारोपण के मामले में सरकारी निष्क्रियता के मामले किसी से छिपे नहीं हैं। कैग की रिपोर्ट के अनुसार 2015-17 के बीच दिल्ली में 13018 वृक्ष काटे गए थे और उसके बदले 65090 पौधे लगाए जाने थे किन्तु लगाए गए मात्र 21048 पौधे और इनमें भी बहुत सारे सजावटी पौधे लगाकर खानापूर्ति कर दी गई। मामला सामने आने पर शहरी विकास मंत्रालय द्वारा रटा-रटाया जवाब देकर पल्ला झाड़ लिया गया कि मंत्रालय कम पेड़ लगाने के मामले की जांच कराएगा।
मैट्रो निर्माण के दौरान भी हजारों पेड़ काटे गए थे किन्तु उसके बदले नए पौधे लगाने के दावों के बावजूद पौधे नहीं लगाए गए। वैसे भी पेड़ों को काटने के बदले जो पौधे लगाए जाते हैं, उनमें से महज दस फीसदी ही बचे रह पाते हैं और ये छोटे-छोटे पौधे प्रदूषण से निपटने तथा वातावरण को स्वच्छ बनाए रखने में मददगार साबित नहीं होते। इन पौधों को वृक्ष का रूप लेने में 8-10 साल लग जाते हैं और नीम, बरगद तथा पीपल जैसे वृक्षों को फलने-फूलने में तो 25-30 साल का समय लग जाता है, तब तक पर्यावरण के साथ क्या होगा? ऐसे में पहले से ही पर्यावरण प्रदूषण से बुरी तरह जूझ रही दिल्ली में हजारों छायादार पेड़ काटे जाने से आपातकालीन स्थिति पैदा हो सकती है। किसी भी क्षेत्र में वातावरण को शुद्ध बनाए रखने के लिए वहां वन क्षेत्र 33 फीसदी होना चाहिए किन्तु दिल्ली में यह सिर्फ 11.88 फीसदी है और दिल्ली से सटे इलाकों फरीदाबाद, नोएडा तथा गाजियाबाद की हालत तो बहुत बुरी है, जहां वन क्षेत्र क्रमश: 4.32, 2.43 तथा 1.89 फीसदी ही है।
ऊंचे और पुराने वृक्ष काटे जाने से दिल्ली में पक्षियों की 15 प्रजातियों का जीवन भी खतरे में है। दरअसल दिल्ली में स्पॉटेड आउलेट, कॉपरस्मिथ बारबेट, ब्राउन हेडेड बारबेट, अलेवजेंडर पैराकीट, रोडविंग पैराकीट, ग्रेटर प्लेनबैक वुडपैकर, ग्रे हॉर्नबिल, ब्लैक काइट, ब्लैक शोल्डर काइट, एशियन पैराडाइज फ्लाईकैचर इत्यादि पक्षियों की 15 प्रजातियां ऐसी हैं, जो ऊंचे दरख्तों पर घोंसला बनाते हैं और अपने खान-पान तथा रहन-सहन की आदतों के चलते ऊंचे पेड़ों पर ही रहना पसंद करते हैं, इनमें कुछ प्रजातियां दुर्लभ पक्षियों की भी हैं। ऐसे ऊंचे वृक्ष काटे जाने से इन पक्षियों का घर भी उजड़ता है और पक्षी विज्ञानियों का कहना है कि ऊंचे दरख्तों की कमी की वजह से पर्यावरण संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली पक्षियों की कई प्रजातियां दिल्ली का रूख करने से कतराने लगी हैं। दिल्ली हाईकोर्ट ने भी हाल ही में अपनी एक टिप्पणी में कहा है कि दिल्ली कभी पक्षियों की आबादी को लेकर मशहूर हुआ करती थी किन्तु आज स्थिति विपरीत है, पेड़-पौधों व पक्षियों के लिए यहां जगह कम होती जा रही है।
सुखद स्थिति यह है कि आम जन अब पर्यावरण संरक्षण और वृक्षों के महत्व को लेकर जागरूक हुआ है और दिल्ली में भी उत्तराखण्ड के करीब पांच दशक पुराने चिपको आन्दोलन की तर्ज पर पेड़ों से चिपककर इन्हें जीवनदान देने के लिए आन्दोलन शुरू हुआ। हम इन तथ्यों को नजरअंदाज नहीं कर सकते कि दिल्ली में यहां की आबादी और क्षेत्रफल के हिसाब से नौ लाख पेड़ों की कमी है और यहां स्वस्थ जीवन के लिए प्राणवायु अब बहुत कम बची है। स्वच्छ प्राणवायु के अभाव में लोग तरह-तरह की भयानक बीमारियों के जाल में फंस रहे हैं, उनकी प्रजनन क्षमता पर इसका दुष्प्रभाव पड़ रहा है, उनकी कार्यक्षमता भी इससे प्रभावित हो रही है। कैंसर, हृदय रोग, अस्थमा, ब्रोंकाइटिस, फेफड़ों का संक्रमण, न्यूमोनिया, लकवा इत्यादि के मरीजों की संख्या तेजी से बढ़ रही है और लोगों की कमाई का बड़ा हिस्सा इन बीमारियों के इलाज पर ही खर्च हो जाता है।
हम प्रकृति से अपने हिस्से की आॅक्सीजन तो ले लेते हैं किन्तु प्रकृति को उसके बदले में लौटाते कुछ भी नहीं। दरअसल एक पेड़ सालभर में लगभग सौ किलो आॅक्सीजन देता है जबकि एक व्यक्ति को वर्षभर में साढ़े सात सौ किलो आॅक्सीजन की जरूरत होती है। नीम, बरगद, पीपल जैसे बड़े छायादार वृक्ष, जो 50 साल या उससे ज्यादा पुराने हों, उनसे तो प्रतिदिन 140 किलो तक आॅक्सीजन मिलती है। इस हिसाब से अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि ऐसे छायादार पुराने वृक्ष काटने से पर्यावरण को कितनी भारी क्षति पहुंचती है और यही वजह है कि ऐसे छायादार वृक्ष अपने आसपास के परिवेश में लगाने की प्राचीन भारतीय परम्परा रही है।
योगेश कुमार गोयल
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