देश में उच्च शिक्षा में सुधार के बारे में व्यापक बहस चल रही है। शिक्षाविद्, बुद्धिजीवी और अन्य विशेषज्ञों ने शिक्षा के स्तर के बारे में चिंता व्यक्त की है और उसमें बदलाव की मांग की है। हमारे देश में शिक्षा प्रणाली में निश्चित रूप से बदलाव की आवश्यकता है और यह बदलाव केवल आईआईटी, आईआईएम या विश्वविद्यालयों में ही नहंी अपितु ग्रामीण और पिछडे़ जिलों में स्थित उच्च शिक्षा संस्थानों में भी किया जाना चाहिए।
विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रम में बदलाव के बारे में भी चर्चा चल रही है और उसे अधिक व्यावहारिक और प्रासंगिक बनाने की मांग की जा रही है। विभिन्न संस्थानों ने इस बारे में प्रक्रिया शुरू कर दी है और कुछ संस्थानों ने अपने यहां गुणवत्ता में सुधार के लिए व्यापक बदलाव किए हैं। विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता एक बड़ी मांग है और इस संबंध में केन्द्रीय विश्वविद्यालयों ने कुछ प्रगति की है जबकि राज्य विश्वविद्यालय अभी भी राज्यों के पूर्ण नियंत्रण में हैं।
विश्व में भारत की स्थिति के मद्देनजर शिक्षा प्रणाली में सुधार आवश्यक है। वर्तमान में न केवल विश्व स्तर पर अपितु एशियाई देशों में भी शिक्षा के मामले में भारत की स्थिति अच्छी नहंी है। इसलिए इस बारे में चर्चा चल रही है कि हमें शिक्षा में सुधार करना चाहिए अन्यथा हमारा देश चीन और सिंगापुर जैसे देशों से पिछड़ जाएगा।
इस बात को ध्यान में रखते हुए केन्द्र ने भरतीय उच्च शिक्षा आयोग विधेयक लाने का प्रस्ताव किया है। जिसके माध्यम से विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम 1956 का निरस्तन किया जाएगा। सरकार की अनेक समितियों ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के स्थान पर नए विनियामक की स्थापना की सिफारिश की है। किंतु सरकार द्वारा यकायक उठाए गए इस कदम पर कुछ अध्यापकों ने आशंकाएं व्यक्त की हैं।
केन्द्रीय विश्वविद्यालय अध्यापक एसोसिएशन ने इस विधेयक के द्वारा विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता कम होने की आशंका व्यक्त की है। ऐसा समझा जाता है कि भारतीय उच्च शिक्षा आयोग को उच्च शिक्षा के गुणवत्ता नियंत्रण और बेहतर मानदंड सुनिश्चित करने हेतु निगरानी की शक्तियां प्राप्त होंगी। किंतु उसके पास अनुदान देने की शक्ति नहीं होगी। अनुदान मानव विकास संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा दिए जाएंगे और आयोग केवल शैक्षिक विनियामक होगा।
विधेयक में प्रस्ताव किया गया है कि प्रत्येक विश्वविद्यालय को नया पाठ्यक्रम शुरू करने के लिए आयोग से अनुमति लेनी होगी। प्रस्तावित विधेयक के अनुसार किसी नए पाठ्यक्रम को शुरू करने से पहले विश्वविद्यालयों को अनुमति लेनी होगी। आयोग को यदि प्रतिकूल रिपोर्ट प्राप्त होती है तो वह नए पाठ्यक्रम को शुरू करने की अनुमति वापस ले सकता है।
उच्च शिक्षा संस्थानों के वार्षिक मूल्यांकन से शिक्षा क्षेत्र में सुधार आएगा और गुणवत्ता सुनिश्चित होगी। इस विधेयक की आलोचनाएं की जा रही हैं किंतु किसी नई बात को करने पर ऐसी आलोचना होती रहती हैं। आयोग को पाठ्यक्रम विनियमित करने, नए पाठ्यक्रम शुरू करने, खराब प्रदर्शन कर रहे उच्च शिक्षा संस्थानों को बंद करने और उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रशासनिक और शीर्ष पदों की पात्रता शर्तें निर्धारित करने की शक्ति होगी। इसके चलते आगामी वर्षों में उच्च शिक्षा में सुधार होगा और यह उच्च शिक्षा के वर्तमान विनियामक ढ़ांचे से अलग होगा और वैश्विक मानदंडों के अनुरूप होगा।
साथ ही भारतीय उच्च शिक्षा आयोग राजनीतिक नियंत्रण से मुक्त होगा। यह एक 14 सदस्यीय निकाय होगा जो पूर्णत: पेशेवर निकाय के रूप में कार्य करेगा। हाल ही में एआईसीटीई के अध्यक्ष ने उच्च शिक्षा संस्थानों में गुणवत्ता में गिरावट के लिए उपकुलपतियों के गलत चयन को दोषी बताया है। जिसके चलते कोलकाता, मंबई और मद्रास जैसे सुस्थापित विश्वविद्यालयों का कार्यकरण प्रभावित हुआ है।
भारतीय उच्च शिक्षा आयोग को धीरे-धीरे और अधिक शक्तियं दी जानी चाहिए और नए संस्थानों को मान्यता देने के मामले में उसे विशेष शक्तियां दी जानी चाहिए क्योंकि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में संस्थानों की अत्यधिक संख्या अच्छा नहंी है। आयोग को अनुदान देने के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय को सिफारिश करने की जिम्मेदारी भी दी जानी चाहिए। किसी अन्य निकाय को ऐसी शक्ति देने से मामले उलझ सकते हैं और भारतीय उच्च शिक्षा आयोग का महत्व कम होगा।
एक अन्य महतवपूर्ण पहलू आयोग को उन्हें अंतर संकाय अध्ययन की अनुमति भी देनी चाहिए जैसे बायो इन्फोर्मेटिक्स, मैरीन इंजीनियरिंग, जलचर, नैनो टेक्नोलोजी, पर्यावरण विज्ञान और प्रबंधन आदि। हाल ही में कुछ विश्वविद्यालयों को शैक्षिक स्वायत्तता देने का निर्णय स्वागत योग्य है और गत वर्षों में जिन विश्वविद्यालयों के कार्य निष्पादन में सुधार आया है उन्हें भी स्वात्तता दी जानी चाहिए।
भारतीय उच्च शिक्षा आयोग विधेयक में अनुसंधान के पहलू पर बल नहीं दिया गया है। क्या आयोग इस पहलू की भी जांच करेगा या इसके लिए किसी अन्य राष्ट्रीय निकाया का गठन किया जाएगा? किंतु अधिक संस्थाओं का गठन अच्छा नहंी है और उच्च शिक्षा के लिए एक स्वतंत्र और सक्षम निकाय बनाया जाना चाहिए। विज्ञान और प्रौद्योगिकी में अनुसंधान को प्राथमिकता दिए जाने की आवश्यकता है।
गत कुछ वर्षों में वैज्ञानिक प्रकाशनों के मामले में भारत का योगदान केवल 3.5 से 3.7 प्रतिशत तक रहा है और वह चीन से बहुत पीछे है जिसका योगदान 21 प्रतिशत है। भारतीय संस्थानों में शिक्षण और अनुसंधान की गुणवत्ता अच्छी नहंी है। जिसके चलते अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियां भारतीय संस्थानों को अच्छी रैकिंग नहंी देते हैं।
इस नए विधेयक से आशा की जाती है कि भारतीय संस्थान विश्व के 150 से 200 शीर्ष संस्थानों में आ पाएंगे। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और पूणे विश्वविद्यालय रैकिंग के मामले में बहुत पीछे है और उनकी रैकिंग लगभग 800 के आसपास है। जबकि चीन, इंडोनेशिया, मलेशिया, थाईलैंड, और दक्षिण अफ्रीका के दर्जनों विश्वविद्यालयों का प्रदर्शन भारत से कहीं अच्छा है।
इसके अलावा सरकार को उच्च शिक्षा के विस्तार के लिए अधिक धन राशि आवंटित करनी चाहिए ताकि हमारा देश तकनीकी ज्ञान के क्षेत्र में विशेषज्ञ सेवाएं उपलब्ध करा सके और अंतर्राष्ट्रीय जगत में अपनी पहचान बना सके। इस संबंध में प्रोफेसर यशपाल समिति द्वारा 2009 में की गयी सिफारिशें प्रासंगिक हैं जिसमें उन्होंने उच्च शिक्षा के लिए अधिक धन राशि आवंटित करने और निजी निकायों पर कड़ा विनियमन और निगरानी रखने की सिफारिश की थी। समय आ गया है कि इन सिफारिशों को जल्दी से जल्दी लागू किया जाए।
धुर्जति मुखर्जी (इंफा)
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