केजरीवाल सरकार की अग्निपरीक्षा का दौर शुरू

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दिल्ली में निर्वाचित सरकार और उपराज्यपाल के बीच लंबे समय से चली आ रही अधिकारों की जंग को लेकर गत 4 जुलाई को आए देश की सर्वोच्च अदालत की पांच सदस्यीय संविधान पीठ के फैसले की हालांकि हर राजनीतिक दल अपने-अपने नफा-नुकसान के हिसाब से व्याख्या कर रहा है, कोई इसे अपनी सरकार की जीत रहा है तो कोई दिल्ली सरकार की अराजकता की हार लेकिन अदालती फैसले को ध्यान से देखें तो यह न किसी की हार है और न किसी की जीत बल्कि दिल्ली में पिछले कुछ वर्षों के दौरान अधिकारों की लड़ाई को लेकर जो अजीबोगरीब स्थिति बन गई थी, अदालत ने दिल्ली से जुड़े कानूनों की नए सिरे से व्याख्या कर उन्हीं अधिकारों को स्पष्ट किया है।

दिल्ली राज्य अधिनियिम में जो प्रावधान पहले से ही निहित हैं, अदालत ने उन्हीं की नए सिरे से व्याख्या करते हुए एक बेहद संतुलित फैसला दिया है। सही मायने में अदालत ने न केवल उपराज्यपाल बल्कि केजरीवाल सरकार को भी अपने इस फैसले से आईना दिखाया है और दोनों को ही उनके अधिकार तथा अधिकारों के उपयोग की सीमाएं भी बताई हैं।

अदालती फैसले के बाद अब दिल्ली सरकार की जो महत्वाकांक्षी योजनाएं और विकास कार्य सरकार तथा उपराज्यपाल के बीच चल रही तनातनी के चलते ठप्प पड़े थे, उनके सुचारू रूप से संचालित होने की उम्मीद जगी है। दरअसल जब से दिल्ली में रिकॉर्ड बहुमत के साथ केजरीवाल सरकार सत्तासीन हुई, तभी से उपराज्यपाल और सरकार के बीच तनातनी चलती रही है, जिसका दिल्ली के प्रशासनिक कामकाज पर गंभीर प्रभाव पड़ा है।

केजरीवाल और उनके सहयोगियों द्वारा आरोप लगाए जाते रहे हैं कि केन्द्र के इशारे पर उपराज्यपाल द्वारा उन्हें काम नहीं करने दिया जा रहा, उन्हें एक चपरासी तक नियुक्त करने का अधिकार नहीं, अधिकारी मुख्यमंत्री या मंत्रियों की नहीं सुनते बल्कि उपराज्यपाल कार्यालय के इशारों पर काम करते हैं। एंटी करप्शन ब्यूरो का नियंत्रण सरकार से छीनकर उपराज्यपाल को देने का मामला हो या तबादलों को लेकर बढ़ता विवाद अथवा राजधानी में करीब डेढ़ लाख सीसीटीवी लगाने का मामला, इस तरह के हर मामले को लेकर पहले नजीब जंग और अब उपराज्यपाल अनिल बैजल के साथ केजरीवाल सरकार का विवाद रहा है।

मई 2015 में केजरीवाल सरकार ने उपराज्यपाल की शक्तियों पर केन्द्र की अधिसूचना के खिलाफ हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था और अगस्त 2016 में हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि देश की राजधानी और केन्द्र शासित प्रदेश होने के कारण उपराज्यपाल ही दिल्ली के असली मुखिया हैं और उनके फैसलों को मानना दिल्ली सरकार की बाध्यता है। हाईकोर्ट के इस फैसले के बाद दिल्ली सरकार के अधिकार बेहद सीमित हो गए थे और दिल्ली सरकार तथा उपराज्यपाल के बीच टकराव और बढ़ने लगा था।

हाईकोर्ट के इसी फैसले को पलटते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने अब जो फैसला सुनाया है, उसके अनुसार दिल्ली सरकार अब अपने फैसले स्वयं करने को स्वतंत्र है और उपराज्यपाल उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकते। सरकार द्वारा अपने फैसलों से उपराज्यपाल को अवगत कराना तो अनिवार्य होगा किन्तु उपराज्यपाल उसमें किसी भी प्रकार के संशोधन का सुझाव नहीं देंगे।

अपरिहार्य स्थितियों में सरकार के किसी फैसले पर उपराज्यपाल असहमति की स्थिति में उसे विचार के लिए राष्ट्रपति के पास भेज सकेंगे लेकिन हर मामले में वो ऐसा नहीं कर सकेंगे और असहमति का भी उनके पास कोई ठोस कारण होना चाहिए। अदालत के वर्तमान फैसले का सबसे बड़ा असर यही होगा कि अब उपराज्यपाल पहले की भांति सरकार के हर फैसले पर कुंडली मारकर नहीं बैठ सकते और इस प्रकार यह फैसला दिल्ली की जनता के हक में कहा जा सकता है।

अदालत ने अपने फैसले में साफ कर दिया है कि पुलिस, सार्वजनिक व्यवस्था और जमीन के मामले उपराज्याल के अधीन रहेंगे लेकिन विधानसभा के फैसलों के लिए अब उपराज्यपाल की सहमति अनिवार्य नहीं है और न ही वे मंत्रिमंडल के फैसलों को अटका सकते हैं, वे सरकार को सलाह तो दे सकते हैं किन्तु उसे मानने के लिए बाध्य नहीं कर सकते।

अदालत ने दो टूक शब्दों में स्पष्ट किया है कि दिल्ली के प्रशासनिक मुखिया उपराज्यपाल ही है लेकिन वे चुने हुए मुख्यमंत्री से ऊपर नहीं हैं। इस प्रकार उपराज्यपाल सरकार के रोजमर्रा के कामकाज में अड़ंगा नहीं लगा सकते और आपसी विवाद के चलते विकास कार्यों को एक-दूसरे पर टालने की प्रवृत्ति पर लगाम लगेगी, जिससे विभिन्न योजनाओं पर ब्रेक नहीं लगेगा।

पिछले कुछ वर्षों से दिल्ली की हालत दो टीमों के बीच लुढ़कती फुटबाल सरीखी रही है और अधिकारों की जंग के नाम पर केन्द्र सरकार हो या दिल्ली सरकार अथवा उपराज्यपाल, सभी ने संविधान की गरिमा को कदम-कदम पर ठेस पहुंचाई है। एक तरफ उपराज्यपाल कहते नजर आए कि मोहल्ला क्लीनिक, आंगनवाड़ी वर्करों की तनख्वाह संबंधी फाइलें उन्होंने स्वीकृत कर दी जबकि सरकार दावा करती रही कि उपराज्यपाल इन फाइलों पर कुंडली मारे बैठे हैं।

दिल्ली में सीसीटीवी कैमरे लगाने संबंधी योजना की फाइल के संबंध में भी सरकार तर्क देती रही कि उसने फाइल उपराज्यपाल को भेजी किन्तु उन्होंने स्वीकृत नहीं की तो उपराज्यपाल कार्यालय कहता रहा कि सरकार ने फाइल उसके पास भेजी ही नहीं। पिछले कुछ वर्षों से दिल्ली में स्थिति यही थी कि दिल्ली सरकार की सभी योजनाएं सरकार और उपराज्यपाल की आपसी खींचतान के बीच फंसी पड़ी थी। इसी वर्ष फरवरी माह में जब नौकरशाहों ने दिल्ली में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के मामले में मुख्यमंत्री का फैसला मानने से इन्कार कर दिया था तो आप के कुछ लोगों और मुख्य सचिव अंशु प्रकाश के बीच हिंसक झड़प तक हो गई थी,

जिसके बाद से प्रशासनिक अधिकारी सरकार का किसी भी प्रकार से सहयोग नहीं कर रहे थे। अब चूंकि अदालती फैसले के बाद सरकार को ट्रांसफर, पोस्टिंग, कानून बनाने संबंधी कई अधिकार मिल गए हैं और सरकार का कामकाज उपराज्यपाल के हस्तक्षेप से मुक्त हो गया है, उम्मीद की जानी चाहिए कि बार-बार केन्द्र सरकार पर अपनी नाकामी का ठीकरा फोड़ती रही केजरीवाल सरकार अब धरातल पर अपनी योजनाओं को मूर्त रूप देकर दिल्ली में विकास कार्यों को गति प्रदान करेगी। अदालत ने तो अपने फैसले में स्पष्ट संदेश दे ही दिया है कि बहुत हो चुकी आपसी तकरार और झगड़ेबाजी, अब दिल्ली की जनता के लिए भी कुछ काम करके दिखाओ।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता द्वारा चुनी हुई सरकार की सर्वोच्चता साबित करते इस अदालती फैसले से जहां केजरीवाल सरकार की छवि मजबूत होगी, वहीं अब यह केजरीवाल सरकार की कठिन अग्निपरीक्षा भी होगी कि वो उपराज्यपाल के नियंत्रण से बाहर निकलने के बाद अपने वादों को पूरा करने में कितना सफल होती है। हालांकि ऐसा नहीं है कि केजरीवाल सरकार द्वारा अपने अब तक के कार्यकाल में कोई कार्य नहीं किए गए बल्कि उसने सस्ती बिजली और सीमित मात्रा में मुफ्त पानी देने के अपने लोकलुभावन वायदों की पूर्ति पर गरीब वर्ग में अपनी पकड़ बनाए रखी है।

स्वास्थ्य तथा शिक्षा में क्रांतिकारी बदलाव के लिए कदम उठाने तथा तमाम विवादों के बावजूद बिजली के बिलों में 50 फीसदी कटौती, बिजली दरों पर अंकुश रखना, चुनावी वादे के अनुरूप 750 लीटर तक पानी मुफ्त देना, हैल्थ स्कीम लागू करना, डोर स्टैप योजना के तहत 40 योजनाओं को नागरिकों को उनके द्वार पर उपलब्ध करवाना, दिल्ली में दुर्घटनाग्रस्त लोगों का मुफ्त इलाज कराए जाने की व्यवस्था जैसे कुछ बेहतरीन कार्य सरकार ने किए हैं लेकिन अभी ऐसे अनेक कार्यों की लंबी फेहरिस्त है, जो केजरीवाल की वायदा सूची का हिस्सा थे किन्तु उस दिशा में अभी तक कुछ नहीं हुआ।

यमुना नदी की सफाई, मुफ्त वाई-फाई, महिला सुरक्षा, सीसीटीवी, दिल्ली को पर्यावरण प्रदूषण से मुक्त करना, कूड़ा निस्तारण, जाम की समस्या से लोगों को निजात दिलाना, नई लाइनें बिछाकर लोगों तक पेयजल पहुंचाना, 500 नए स्कूल तथा 20 डिग्री कॉलेज खोलना इत्यादि। दिल्ली में सार्वजनिक परिवहन की समस्या भी बहुत विकट है।

बहरहाल, दिल्ली की जो संवैधानिक स्थिति है, उसके मद्देनजर यह स्पष्ट है कि दिल्ली का विकास तभी संभव है, जब मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के बीच तालमेल और सामंजस्य बने और दोनों मिलकर काम करें अन्यथा रह-रहकर टकराव और विवाद के मामले सामने आते ही रहेंगे। बेहतर होगा, केन्द्र सरकार भी दिल्ली की जरूरतों और विकास के मद्देनजर दिल्ली सरकार के प्रति अपना रवैया बदले और दिल्ली के विकास में बराबर की सहभागी बने।

-योगेश कुमार गोयल

 

 

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