आत्मघाती हमले करने के लिए बड़ी संख्या में किशोरों की गई हैं भर्तियां
Children being intimidated
(प्रमोद भार्गव ) पापाकिस्तान स्थित प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद और हिजबुल मुजाहिद्नि ने पिछले वर्ष जम्मू-कश्मीर में सेना और सुरक्षा बलों पर हुए आत्मघाती हमले करने के लिए बड़ी संख्या में मासूम बच्चे और किशोरों की भर्तियां की हैं (Children being intimidated) । इन्हें सेना और आतंकियों के बीच हुई मुठभेड़ों दौरान इस्तेमाल भी किया गया। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की ताजा आई रिपोर्ट में इन तथ्यों का खुलासा हुआ है। यह रिपोर्ट ‘बच्चे एवं सशस्त्र संघर्ष’ के नाम से जारी हुई है। रिपोर्ट के मुताबिक ऐसे आतंकी संगठनों में शामिल किए जाने वाले बच्चे और किशोरों को आतंक का पाठ मदरसों में पढ़ाया गया है। पिछले साल कश्मीर में हुए तीन आतंकी हमलों में बच्चों के शामिल होने के तथ्य की पुष्टि हुई है। पुलवामा जिले में मुठभेड़ के दौरान 15 साल का एक नाबालिक मारा गया था। यह रिपोर्ट जनवरी-2017 से दिसंबर तक की है। मुबंई के ताज होटल पर हुए आतंकी हमले में भी पाक द्वारा प्रशिक्षित नाबालिग अजमल कसाब शामिल था।
रिपोर्ट के मुताबिक पाकिस्तान में मौजूद आतंकी संगठनों ने ऐसे वीडियो जारी किए हैं, जिनमें किशोरों को आत्मघाती हमलों का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। पाकिस्तान में सशस्त्र समूहों द्वारा बच्चों व किशोरों को भर्ती किए जाने और उनका इस्तेमाल आत्मघाती हमलों के लिए इस्तेमाल किए जाने के आरोपों को लेकर लगातार खबरें मिलती रही हैं। जनवरी-17 में तहरीक-ए-तालिबान ने एक वीडियो जारी किया था, जिसमें लड़कियों सहित बच्चों को सिखाया जा रहा है कि आत्मघाती हमले किस तरह किए जाते हैं।
आत्मघाती हमलों के लिए भर्ती किए गए ज्यादातर बच्चे पाकिस्तान के हैं। इस रिपोर्ट में दावा किया गया है कि दुनियाभर में बाल अधिकारों के हनन के 21,000 मामले सामने आए हैं। पिछले साल दुनियाभर में हुए संघर्षों में 10,000 से भी ज्यादा बच्चे मारे गए या विकलांगता का शिकार हुए। आठ हजार से ज्यादा बच्चों को आतंकियों, नक्सलियों और विद्रोहियों ने अपने संगठनों में शामिल किया हैं। ये बच्चे युद्ध से प्रभावित सीरिया, अफगानिस्तान, यमन, फिलीपींस, नाईजीरिया, भारत और पाकिस्तान समेत 20 देशों के हैं।
भारत के जम्मू-कश्मीर में युवाओं को आतंकवादी बनाने की मुहिम कश्मीर के अलगाववादी चला रहे हैं। इस तथ्य की पुष्टि पिछले साल 20 वर्षीय गुमराह आतंकवादी अरशिद माजिद खान के आत्म-समर्पण से हुई थी। अरशिद कॉलेज में फुटबॉल का अच्छा खिलाड़ी था। किंतु कश्मीर के बिगड़े माहौल में धर्म की अफीम चटा देने के कारण वह बहक गया और लश्कर-ए-तैयबा में शामिल हो गया। उसके आतंकवादी बनने की खबर मिलते ही मां-बाप जिस बेहाल स्थिति को प्राप्त हुए उससे अरशिद का हृदय पिघल गया और वह घर लौट आया।
दरअसल कश्मीरी युवक जिस तरह से आतंकी बनाए जा रहे हैं, यह पाकिस्तानी सेना और वहां पनाह लिए आतंकी संग्ठनों का नापाक मंसूबा है। पाक की अवाम में यह मंसूबा पल रहा है कि ‘हंस के लिया पाकिस्तान, लड़के लेंगे हिंदुस्तान।’ इस मकसद पूर्ति के लिए मुस्लिम कौम के उन गरीब और लाचार बच्चे, किशोर और युवाओं को इस्लाम के बहाने आतंकवादी बनाने का काम मदरसों में किया जा रहा है, जो अपने परिवार की आर्थिक बदहाली दूर करने के लिए आर्थिक सुरक्षा चाहते हैं। पाक सेना के भेष में यही आतंकी अंतरराष्ट्रीय नियंत्रण रेखा को पार कर भारत-पाक सीमा पर छद्म युद्ध लड़ रहे हैं। कारगिल युद्ध में भी इन छद्म बहरुपियों की मुख्य भूमिका थी।
इस सच्चाई से पर्दा संयुक्त राष्ट्र ने तो अब उठाया है, किंतु खुद पाक के पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल एवं पाक खुफिया एजेंसी आईएसआई के सेवानिवृत्त अधिकारी रहे, शाहिद अजीज ने ‘द नेशनल डेली अखबार’ में पहले ही उठा दिया था। अजीज ने कहा था कि ‘कारगिल की तरह हमने कोई सबक नहीं लिया है। हकीकत यह है कि हमारे गलत और जिद्दी कामों की कीमत हमारे बच्चे अपने खून से चुका रहे हैं।’ कमोबेश आतंकवादी व अलगाववादियों की शह के चलते यही हश्र कश्मीर के युवा भोग रहे हैं।
पाक की इसी दुर्भावना का परिणाम था कि जब 10 लाख का खुंखार इनामी बुरहान वानी भारतीय सेना के हाथों मारा गया, तो उसे शहीद बताने के बावत जो प्रदर्शन हुए थे, उनमें करीब 100 कश्मीरी युवक मारे गए थे। कश्मीर में इन भटके युवाओं को राह पर लाने के के लिए केंद्र सरकार और सेना के साथ भाजपा ने भी खूब चिंता जताई थी। इस नाते भाजपा के महासचिव और जम्मू-कश्मीर के प्रभारी राम माधव ने कश्मीर में उल्लेखनीय काम किया था। उन्होंने भटके युवाओं में मानसिक बदलाव की दृष्टि से पटनीटॉप में युवा विचारकों का एक सम्मेलन आयोजित किया था। इसे सरकारी कार्यक्रमों से इतर एक अनौपचारिक वैचारिक कोशिश माना गया था। बावजूद सबसे बड़ा संकट सीमा पार से अलगाववादियों को मिल रहा बेखौफ प्रोत्साहन है।
दरअसल राजनीतिक प्रक्रिया और वैचारिक गोष्ठियों में यह हकीकत भी सामने लाने की जरूरत है कि जो अलगाववादी अलगाव का नेतृत्व कर रहे हैं, उनमें से ज्यादातर के बीबी-बच्चे कश्मीर की सरजमीं पर रहते ही नहीं हैं। इनके दिल्ली में आलीशान घर हैं और इनके बच्चे देश के नामी स्कूलों में या तो पढ़ रहे हैं, या फिर विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों में नौकरी कर रहे हैं। इस लिहाज से सवाल उठता है कि जब उनका कथित संघर्ष कश्मीर की भलाई के लिए है तो फिर वे इस लड़ाई से अपने बीबी-बच्चों को क्योें दूर रखे हुए हैं? यह सवाल हाथ में पत्थर लेने वाले युवा अलगाववादियों से पुछ सकते हैं ?
इन्हीं अलगाववादियो की शह से घाटी में संचार सुविधाओं के जरिए चरमपंथी माहौल विकसित हुआ है। अलगाववाद से जुड़ी जो सोशल साइटें हैं, वे युवाओं में भटकाव पैदा कर रही हैं।
यही वजह रही कि बीते दिनों रमजान के महीने में केंद्र सरकार ने उदारता बरतते हुए संघर्ष विराम का निर्णय लिया। इसके सकारात्मक परिणाम निकलने की बजाय सेना को पत्थरबाजों का दंश झेलना पड़ा। यही नहीं इस संघर्ष विराम का लाभ उठाते हुए आतंकियों ने राइफल मैन औरंगजैब और संपादक शुजात बुखारी की निर्मम हत्याएं कर दीं। नतीजतन भाजपा नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने संघर्ष विराम को तो खत्म किया ही, जम्मू-कश्मीर की पीडीपी सरकार से भी गठबंधन तोड़ लिया। अब यह भी जानकारियां सामने आ रही हैं कि कभी आजादी की मांग का नारा बुलंद करने वाले दहशतगर्दों को अब आजादी नहीं बल्कि इस्लामिक स्टेट जम्मू-कश्मीर चाहिए।
धार्मिक स्थलों और मदरसों की बदलती सूरतें इस तथ्य की गवाह है कि वहां हालत और गंभीर हो रहे है। पहले कश्मीर के भटके हुए युवा अपने लोगों को नहीं मारते थे और न ही पर्यटकों व पत्रकारों को हाथ लगाते थे। लेकिन अब जो भी उनके रास्ते में बाधा बन रहा है, उसे वह निपटाने का काम कर रहे हैं। इस क्रम में औरंगजैब और शुजात बुखारी से पहले ये आतंकी उपनिरीक्षक गौहर अहमद, लेफ्टिनेंट उमर फैयाज और डीएसपी अयूब पंडित की भी हत्या कर चुके हैं। सैन्य विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि पहले ज्यादातर आतंकी कम पढ़े लिखे थे, लेकिन अब जो आतंकी सामने आ रहे हैं, वे काफी पढ़े-लिखे हैं। यही वजह है कि ये पहले से ज्यादा निरंकुश और दुर्दांत रूप में पेश आ रहे हैं।
दरअसल अटल बिहारी वाजपेयी कश्मीरियत, जम्हूरियत व इंसानियत जैसे मानवतावादी हितों के संदर्भ में कश्मीर का सामाधान चाहते थे। लेकिन पाकिस्तान के दखल के चलते परिणाम शुन्य रहा। इसके उलट आगरा से जब परवेज मुशर्रफ पाकिस्तान पहुंचे तो कारगिल में युद्ध की भूमिका रच दी। अटलजी की नीति दो टूक और स्पष्ट नहीं थी। डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में भी इसी ढुलमुल नीति को अमल में लाने की कोशिश होती रही। नरेंद्र मोदी भी इसी नीति में कश्मीर समस्या का हल ढूंढते रहने के बाद असफल हो गए। वास्तव में जरूरत तो यह है कि कश्मीर के आतंकी फन को कुचलने और कश्मीर में शांति बहाली के लिए नरेंद्र मोदी सरकार को पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव से प्रेरणा लेने की जरूरत है। उन्होंने पंजाब में उग्रवाद का फन सेना और स्थानीय पुलिस को खुली छूट देकर कुचला था। इससे न केवल पंजाब में आतंकवाद खत्म हुआ, बल्कि ऐसी शांति बहाल हुई जो ढ़ाई दशक बाद भी बरकरार है।
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