डॉ. दीपक आचार्य
हर दिशा में लोगों की भीड़ बेतहाशा भाग रही है। सभी को अपने नम्बर बढ़ाने की पड़ी है। जो नम्बरी हैं उन्हें भी, और जो गैर नम्बरी हैं उन्हें भी। प्रतिभाओं और हुनर से बेखबर या कि हर दृष्टि से खाली डिब्बे माने जाने वाले लोगों की सबसे बड़ी समस्या ही यह है कि वे अपना वजूद कायम करने के लिए खुद की बजाय औरों पर निर्भर करते हैं और जीवन के हर मोड़ पर किसी न किसी ऐसे आका को तलाशते हैं जो उनके कामों को अच्छी तरह अंजाम देने में मददगार हो सके। चाहे फिर उन आकाओं को खुश करने के लिए उन्हें कुछ भी क्यों न करना पड़े। सेवसा-चाकरी से लेकर सर्वांग समर्पण से कहीं कोई गुरेज नहीं। इसके लिए स्वाभिमान को गिरवी रखना या तिलांजलि देनी पड़े तो कोई शर्म या संकोच नहीं।
जीवन में स्वाभाविक विकास और तरक्की के दो ही रास्ते हैं जिन्हें सात्विक कहा जा सकता है। एक तो अपने हुनर में निरन्तर निखार लाते हुए जमाने की मांग के अनुरूप खुद को योग्य एवं सामर्थ्यशाली के रूप में ढालना, दूसरा जो प्रतिभाएं ईश्वर ने दी हैं उन्हीं को स्वीकार करते हुए पूरे परिश्रम के साथ अहंकार मुक्त होकर तिनके की तरह बहते चले जाना। ये दोनों ही मार्ग निरापद और आत्मीय संतोषदायी हैं।
लेकिन आजकल लोग कम से कम समय में अधिक से अधिक पा जाने के लिए उतावले हैं और ऐसे लोग हमेशा शॉर्टकट अपनाते रहते हैं। ऐसे-ऐसे नए-नए प्रयोग करते रहते हैं जिन्हें हमारे पूर्वजों ने भी कभी नहीं अपनाया। ऐसे लोगों के लिए अपने मूल्य से कहीं ज्यादा मूल्यवान होने की चिन्ता रहती है। ये लोग ऊँचा उठने के लिए वे सारे हथकण्डे करते रहते हैं जिन्हें आम बोलचाल में स्टंट, करतूत या षड़यंत्र कहा जाता है। इन लोगों के लिए जीवन भर स्वाभिमान, संवेदना और संबंध का कोई वजूद कभी नहीं होता। इनका एकमात्र संबंध स्व-विकास से ही है और इस स्व का दायरा इतना संकीर्ण होता है कि उनका पूरा परिवार तक बमुश्किल ही इसमें समा पाता है।
संसार में औरों को पटाने और अपने अनुकूल बनाने के लिए की जाने वाली सारी तरकीबों में ये माहिर होते हैं। साक्षात दण्डवत, कनक दण्डवत, चरणस्पर्श और चम्पी से लेकर ये लोग हर तरह के काम कर लेने को अपना सौभाग्य और गौरव समझते हैं। कीचन से लेकर बाथरूम केबिनेट और अँधेरे-उजाले के आयोजनों तक इनकी सहज पहुंच होती है। यह पहुंच किसी एक या दो के लिए नहीं होती बल्कि समय-समय पर स्थान और पात्र बदलते रहते हैं। जो उनके किसी भी काम का है, उसके ये हो लेते हैं। फिर आजकल बड़े लोगों को भी ऐसों की तलाश होती है जो यस सर, यस सर, यस मैम, यस बॉस करते रहें। सर और मैेम का जयगान ही तो वह जलतरंग है जिसके चलते साहबों और बेगमों को रिझाने में मदद मिलती है।
खुद को ऊँचा उठाने के फेर में ये लोग कभी वल्लरियां बनकर चिपकने लगते हैं, कभी अमरबेल की तर्ज पर छाती पर चढ़ जाते हैं और कभी अन्त:वस्त्रों में छिपी केंकड़ा जूँ की तरह। इन्हें कुछ भी करने और बनने से कोई गुरेज नहीं होता। सामने वाला कैसा भी हो, कुछ भी हमें क्या, हमें तो अपने काम से मतलब है और अपने काम के लिए बहुरुपिया अभिनय करने वाले लोगों से हमारा इतिहास भरा पड़ा है, फिर हम करें तो किसी को आपत्ति क्यों होनी चाहिए। ये लोग विनयी भाव से जितना अधिक नीचे गिरते या झुकते हैं
उनका बाहरी कद उसी अनुपात में बढ़ता हुआ दिखता है। लोग चाहे कुछ भी समझें, इससे उन्हें क्या ? कोई रहे, कोई आए, कोई जाए। इनके काम अपने आप होते चले जाते हैं, और इस प्रजाति के लोगों के लिए हर दिन सुकून भरा होता है। जिस अनुपात में स्वार्थ और खुदगर्जी का प्रतिशत बढ़ता चला जाता है उस अनुपात में उससे कहीं अधिक आनुपातिक रूप से स्वाभिमान, शुचिता और मानवता का खात्मा होता जाता है। लेकिन इससे उन लोगों को क्या जो पदार्थ, भोग-विलास और संग्रही प्रवृत्ति के हैं।
चाहे जहां मिल जाएंगे, हर किसी के आगे झुक जाने जाने वाले। चरणस्पर्श की मुद्राएं करते हुए गिर जाएंगे और फिर उठ जाएंगे ऐसे कि जैसे ऊँचे उठ गए हों। इन सभी लोगों को देखें और उन्हें दाद दें कि उन्होंने ऊँचा उठने के लिए गिरने में जितनी मेहनत की है वो कोई कम नहीं है, न ही इतनी मेहनत आप या हम कर सकते हैं। इन सब के बावजूद कभी रंज न करें कि हम इतनी जल्दी ऊँचे क्यों नहीं उठ पाए। हम सब पर ईश्वर की कृपा है या हम उस सीमा तक नग्न नहीं हो पाए हैं जितना वे हो चले हैं। खुद को सौभाग्यशाली मानें कि हमने वो सब कुछ नहीं किया जो औरों ने ऊपर उठने के लिए किया है। जमाने की निगाह में हमारा स्वाभिमान और इंसानियत अभी बनी हुई तो है। और इस बात पर भी गर्व करें कि दुनिया में हम और हम जैसे बहुत सारे लोगों की नस्ल अभी बनी हुई हैं जिनकी बदौलत इंसानियत के पुष्पों की गंध बरकरार है।