जाहिद खान
फिल्म निर्माता, निर्देशक, कथाकार, पत्रकार, उपन्यासकार, पब्लिसिस्ट और देश के सबसे लंबे समय तकरीबन बाबन साल तक चलने वाले स्तंभ ‘द लास्ट पेज’ के स्तंभकार ख्वाजा अहमद अब्बास उन कुछ गिने चुने लेखकों में से एक हैं, जिन्होंने अपने लेखन और फिल्मों दोनों से पूरे देश को मुहब्बत, अमन और इंसानियत का पैगाम दिया। अब्बास ने न सिर्फ फिल्मों, बल्कि पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में भी नए मुकाम कायम किए। हरफनमौला शख्सियत के धनी अब्बास साहब को देश में समानांतर या नव-यथार्थवादी सिनेमा के रहनुमाओं में गिना जाता है। ख्वाजा अहमद अब्बास का जन्म 7 जून, 1914 को हरियाणा के पानीपत शहर में हुआ।
उनके दादा ख्वाजा गुलाम अब्बास 1857 स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख सेनानियों में से एक थे और वह पानीपत के पहले क्रांतिकारी थे, जिन्हें तत्कालीन अंग्रेज हुकूमत ने तोप के मुंह से बांधकर शहीद किया था। इस बात का भी शायद ही बहुत कम लोगों को इल्म हो कि अब्बास, मशहूर और मारूफ शायर मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली के परनवासे थे। यानी वतन के लिए कुछ करने का जज्बा और जोश उनके खून में ही था। अदब से मुहब्बत की तालीम उन्हें विरासत में मिली थी।
ख्वाजा अहमद अब्बास की शुरूआती तालीम हाली मुस्लिम हाई स्कूल में और आला तालीम अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में हुई। उनके अंदर एक रचनात्मक बैचेनी नौजवानी से ही थी। वे भी देश के लिए कुछ करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने कलम को अपना हथियार बनाया। छात्र जीवन से ही वे पत्रकारिता से जुड़ गए। उन्होंने ‘अलीगढ़ ओपिनियन’ नाम की देश की पहली छात्र-प्रकाशित पत्रिका शुरू की। जिसमें उन्होंने उस वक्त देश की आजादी के लिए चल रही तहरीक से मुताल्लिक कई विचारोत्तेजक लेख प्रकाशित किए।
ख्वाजा अहमद अब्बास ने उस वक्त लिखना शुरू किया जब देश अंग्रेजों का गुलाम था। पराधीन भारत में लेखन से समाज में अलख जगाना, उस वक्त सचमुच एक चुनौतीपूर्ण कार्य था, पर उन्होंने यह चुनौती स्वीकार की और जिंदगी के आखिर तक अपनी कलम को विराम नहीं लगने दिया। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद अब्बास जिस सबसे पहले अखबार से जुड़े, वह ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ था। इस अखबार में बतौर संवाददाता और फिल्म समीक्षक उन्होंने साल 1947 तक काम किया। अपने दौर के मशहूर साप्ताहिक ‘ब्लिट्ज’ से उनका नाता लंबे समय तक रहा।
इस अखबार में प्रकाशित उनके कॉलम ‘लास्ट पेज’ ने उन्हें देश भर में काफी शोहरत प्रदान की। अखबार के उर्दू और हिंदी संस्करण में भी यह कॉलम क्रमश: ‘आजाद कलम’ और ‘आखिरी पन्ने’ के नाम से प्रकाशित होता था। अखबार में यह कॉलम उनकी मौत के बाद ही बंद हुआ। ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ और ‘ब्लिट्ज’ के अलावा ख्वाजा अहमद अब्बास ने कई दूसरे अखबारों के लिए भी लिखा। मसलन ‘क्विस्ट’, ‘मिरर’ और ‘द इंडियन लिटरेरी रिव्यूव’। एक पत्रकार के तौर पर उनकी राष्ट्रवादी विचारक की भूमिका और दूरदर्शिता का कोई सानी नहीं है। अपने लेखों के जरिए उन्होंने समाजवादी विचार लगातार लोगों तक पहुंचाए।
ख्वाजा अहमद अब्बास फिल्मों में पार्ट-टाईम पब्लिसिस्ट के रूप में आए थे, लेकिन बाद में वे पूरी तरह से इसमें रम गए। साल 1936 से उनका फिल्मों में आगाज हुआ। सबसे पहले वे हिमांशु राय और देविका रानी की प्रॉडक्शन कम्पनी बॉम्बे टॉकीज से जुड़े। आगे चलकर साल 1941 में उन्होंने अपनी पहली फिल्म पटकथा ‘नया संसार’ भी इसी कंपनी के लिए लिखी। साल 1945 में फिल्म ‘धरती के लाल’ से ख्वाजा अहमद अब्बास का कैरियर एक निर्देशक के रूप में शुरू हुआ। ख्वाजा अहमद अब्बास की यथार्थवाद में गहरी जड़ें थीं। उनके लिए सिर्फ फिल्म ही महत्वपूर्ण थीं, न कि उससे जुड़े आर्थिक लाभ।
अब्बास के लिए सिनेमा समाज के प्रति एक कटिबद्धता थी और इस लोकप्रिय माध्यम से उन्होंने समाज को काफी कुछ देने की कोशिश की। वे सिनेमा को बहुविधा कला मानते थे, जो मनोवैज्ञानिक और सामाजिक वास्तविकता के सहारे लोगों में वास्तविक बदलाव की आकांक्षा को जन्म दे सकती है। अब्बास की ज्यादातर फिल्में सामाजिक व राष्ट्रीय चेतना की महान दस्तावेज है। उनके बिना हिंदी फिल्मों में नेहरू के दौर और रूसी लाल टोपी का तसव्वुर नहीं किया जा सकता।
मशहूर निमार्ता-निर्देशक राज कपूर के लिए ख्वाजा अहमद अब्बास ने जितनी भी फिल्में लिखी, उन सभी में हमें एक मजबूत सामाजिक मुद्दा मिलता है। चाहे यह ‘आवारा’ हो, ‘जागते रहो’ (1956), या फिर ‘श्री 420’। पैंतीस वर्षों के अपने फिल्मी करियर में अब्बास ने तेरह फिल्मों का निर्माण किया। लगभग चालीस फिल्मों की कहानी और पटकथाएँ लिखीं, जिनमें ज्यादातर राजकपूर की फिल्में हैं। एक वक्त ऐसा भी था, जब उनका नाम फिल्मों में कामयाबी की जमानत होता था। उन्हें फिल्मी दुनिया में मुंह मांगी रकम मिलने लगी थी।
बावजूद इसके उन्होंने अदब और पत्रकारिता से अपना नाता नहीं तोड़ा। कहानी संग्रह ‘नई धरती नए इंसान’ की भूमिका में वे लिखते हैं, ‘‘मैं इन तमाम हिन्दुस्तानियों से प्रेम करता हूं। सबसे सहानुभूति रखता हूं। सबको समझने का प्रयास करता हूं। इसलिए कि वह मेरे हमवतन, मेरे साथी, मेरे समकालीन हैं। मैं अपनी कहानियों में उनके चेहरे एवं चरित्र दशार्ना चाहता हंू। न केवल औरों को बल्कि खुद उनको। मनुष्य को समाज का दर्पण दिखाना भी एक क्रांतिकारी काम हो सकता है, क्योंकि आत्मप्रवंचना नहीं बल्कि आत्मदर्शन स्वयं की वास्तविकता जानना,
अपने व्यक्तित्व को समझना भी सामाजिक और मनोवैज्ञानिक बदलावों को बड़ी गति में ला सकता है।’’
अब्बास बुनियादी तौर पर एक अफसानानिगार थे, वे एक बेहतरीन अदीब थे। उन्होंने साहित्य की लगभग सभी विधाओं कहानी, उपन्यास, नाटक, रिपोर्ताज में जमकर लिखा। अब्बास की कहानियों की तादाद कोई एक सैंकड़े से ऊपर है। उन्होंने अंग्रेजी, उर्दू और हिंदी तीनों भाषाओं में जमकर लिखा।
अब्बास उर्दू में भी उतनी ही रवानी से लिखते थे, जितना कि अंग्रेजी में। दुनिया की तमाम भाषाओं में उनकी कहानियों के अनुवाद हुए। अब्बास की कहानियों में वे सब चीजें नजर आती हैं, जो एक अच्छी कहानी में बेहद जरूरी हैं। एक शानदार कथानक, किरदारों का हकीकी चरित्र-चित्रण और ऐसी किस्सागोई कि कहानी शुरू करते ही, खत्म होने तक पढ़ने का जी करे। ख्वाजा अहमद अब्बास ने अपनी जिंदगी के आखिरी वक्त तक लिखा। उनकी कहानियों का दायरा पांच दशक तक फैला हुआ है। ‘एक लड़की’, ‘जाफरान के फूल’, ‘पांव में फूल’, ‘मैं कौन हूं’, ‘गेंहू और गुलाब’, ‘अंधेरा-उजाला’, ‘कहते हैं जिसको इश्क’, ‘नई धरती नए इंसान’, ‘अजंता की ओर’, 20वीं सदी के लैला मजनू’, ‘आधा इंसान’, ‘सलमा और समुद्र’, और ‘नई साड़ी’ ख्वाजा अहमद अब्बास के प्रमुख कहानी संग्रह हैं।
उनकी पहली कहानी ‘अबाबील’ साल 1935 में छपी और उसके बाद यह सिलसिला बीसवी सदी के आठवे दशक तक चला। इस बीच मुल्क में उन्होंने कई दौर देखे। अंग्रेजों की गुलामी, बंटवारे की आग, नये हिन्दुस्तान की तामीर, हिन्दुस्तान-पाकिस्तान जंग, हिन्दुस्तान-चीन जंग। इन सभी दौरों को यदि अच्छी तरह से जानना-समझना है, तो उनकी कहानियों को पढ़कर गुजरिये।
कुछ देर उनके ख्यालो के साथ चलिये, कुछ देर ठहरिये। बहुत कुछ समझ में आ जाएगा। जब अब्बास ने अपनी पहली कहानी लिखी, तो उस वक्त उनकी उम्र महज उन्नीस साल थी। उन्नीस साल कोई ज्यादा उम्र नहीं होती लेकिन जो कोई भी इस छोटी सी कहानी को एक बार पढ़ लेगा, वह अब्बास के जेहन और उनके कहन का दीवाना हुए बिना नहीं रहेगा। इस एक अकेली कहानी से अब्बास रातों-रात देश-दुनिया में मशहूर हो गए। बाद में दुनिया की कई जबानों में इस कहानी के अनुवाद हुए।
अंग्रेजी, रूसी, जर्मन, स्वीडिश, अरबी, चीनी वगैरह-वगैरह। जर्मन जबान में दुनिया की बेहतरीन कहानियों का जब एक संकलन निकला, तो उसमें ‘अबाबील’ को शामिल किया गया। अंग्रेजी में जब इसी तरह का एक संकलन डॉक्टर मुल्कराज आनंद और इकबाल सिंह ने किया, तो वे भी इस कहानी को रखे बिना नहीं रह पाये। राष्ट्रीय स्तर पर ही नही, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी यह कहानी खूब सराही गई। अदब में इसे आला दर्जे की रचना का खिताब हासिल है।
ख्वाजा अहमद अब्बास ने अपनी आखिरी सांस माया नगरी मुंबई में ली। साल 1987 में जून के ही महीने की पहली तारीख को, बहत्तर साल की उम्र में वे इस दुनिया से दूर चले गए। उन्होंने अपने आखिरी दिनों तक अखबारों के लिए लिखा। मौत से पहले लिखे अब्बास के वसीयतनामे को उनकी आखिरी इच्छा के मुताबिक फिल्म कॉलम के तौर पर प्रकाशित किया गया।
वसीयत में उन्होंने जो लिखा, वह भी कम दिलचस्प नहीं है,‘‘मेरा जनाजा यारों के कंधों पर जुहू बीच स्थित गांधी के स्मारक तक ले जाएं, लेजिम बैंड के साथ। अगर कोई खिराज-ए-अकीदत पेश करना चाहे और तकरीर करे तो उनमें सरदार जाफरी जैसा धर्मनिरपेक्ष मुसलमान हो, पारसी करंजिया हों या कोई रौशनख्याल पादरी हो वगैरह, यानी हर मजहब के प्रतिनिधि हों।’’ ख्वाजा अहमद अब्बास की साम्यवादी विचारधारा में गहरी आस्था थी।
उनके तईं समाजवाद केवल किताबों और अध्ययन तक ही सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने तमाम दुख-परेशानियां और खतरे झेलते हुए इसे अपनी जिंदगी में भी ढालने की कोशिश की। वह दूसरों के लिए जीने में यकीन करते थे। समाजवाद उनके जीने का सहारा था और आखिरी समय तक उन्होंने इस विचार से अपनी आस नहीं छोड़ी। इस दुनिया से जुदा हुए अब्बास को 21 साल हो गए, लेकिन मरने के इतने साल बाद, आज भी वे लोगों के जेहन में जिंदा हैं और आगे भी रहेंगे। कोई उन्हें भुला नहीं पाएगा।