हमारे देश में जल को मुफ्त की चीज समझ के बर्बाद किया जाता है। जिसके कारण पानी के स्रोत निरंतर खाली हो रहे हैं और देश जल की कंगाली की ओर बढ़ रहा है। जल को स्वच्छ रखने का सामाजिक संस्कार हमारे समाज से गायब होता जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के लगभग 180 करोड़ लोग दूषित पानी पीने को मजबूर हैं और इस दूषित पानी के कारण दुनिया भर में हर साल लगभग 8 लाख 42 हजार लोगों की मौत होती है। वहीं, जल आपूर्ति करने वाली नदियों में प्रदूषण भी चिंताजनक स्तर पर है। जब नदियां सूखने लगती हैं तो इनसे जुड़े जलापूर्ति वाले क्षेत्रों को संकटमय स्थितियों का सामना करना पड़ता है। कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु के जलाशय इस हद तक सूख चुके हैं कि आने वाले दिनों में इन राज्यों में पीने के पानी की कमी हो सकती है।
सेंट्रल वाटर कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार देश के इकयानवे बड़े जलाशयों में क्षमता के मुकाबले सिर्फ 41 फीसदी पानी मौजूद है। इसी रिपोर्ट के अनुसार तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के इकतीस जलाशयों में सिर्फ 20 फीसदी पानी बचा है। अंतरराष्ट्रीय संस्था वाटर ऐड के अनुसार ग्रामीण भारत में करीब 6 करोड़ 50 लाख लोगों तक स्वच्छ पानी की पहुंच नहीं है। वर्ष 2050 तक दुनिया के अलग-अलग क्षेत्रों में निवास करने वाली चालीस फीसद आबादी ऐसी होगी, जहां पानी की उपलब्धता बहुत कम होगी।
इसकी सबसे बड़ी वजह जनसंख्या है। वर्तमान में दुनिया की जनसंख्या 750 करोड़ है और वर्ष 2030 तक यह 830 करोड़ तक पहुंच जाएगी। ऐसी स्थिति में पीने के पानी की मांग भी बहुत ज्यादा बढ़ जाएगी। अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों के मुताबिक 2022 तक भारत की जनसंख्या दुनियां में सबसे ज्यादा हो जाएगी। भारत के किसान चीन के मुकाबले दुगने भूमिगत जल का इस्तेमाल करते हैं। इस कारण जनसंख्या बढने से आने वाले समय में देश के कृषि क्षेत्र में पानी की मांग में भी इजाफा होगा। इस समय पूरे देश में भीषण गर्मी पड़ रही है और इस गर्मी में पानी की किल्लत लोगों की सबसे बड़ी परेशानियों में से एक है।
देश की राजधानी से लेकर दूरदराज गांव तक बुरा हाल है। यह भारत के महाशक्ति बनने के सपने पर पानी फेरने वाली स्थितियां हैं। अगर परिस्थितियां यही रहीं तो आने वाले समय में महाशक्ति बनने के सपने देखने वाला भारत बूंद-बूंद पानी के लिए तरस जाएगा। पानी के क्षेत्र में कार्य करने वाली बड़ी कंसल्टिंग फर्म ई ए वाटर के अध्ययन के अनुसार 2025 तक देश पानी की भयानक कमी वाला देश बन जाएगा। इसी अध्ययन के अनुसार देश का सतही जल तेजी से कम हो रहा है।
वहीं, दुनिया के जल संकटग्रस्त 20 बड़े शहरों में भी 5 भारतीय शहर शामिल हैं। लोकसभा में सरकार ने माना है कि देश के लगभग तीन लाख गांवों में पीने के पानी की सप्लाई नहीं है और 66 हजार गांव ऐसे हैं। जहां उपलब्ध पानी बहुत दूषित है। पानी का यह संकट सिर्फ भारत के लिए ही नहीं है। पूरी दुनियां आने वाले इस संकट से परेशान है। दुनियां के हर छह में से एक व्यक्ति को इस संकट का सामना करना पड़ रहा है।
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में जल संकट को दस बड़े खतरों में जगह दी है। दुनियां की छियासी फीसद से अधिक बीमारियों की वजह भी दूषित जल ही है। देश में जल स्तर हर वर्ष दो से छह मीटर तक नीचे जा रहा है। जिसकी बड़ी वजह कंट्रक्शन कंपनियां हैं। सूखा और पानी की कमी की वजह से महाराष्ट्र के मराठवाड़ा और विधर्व पलायन की बड़ी वजह बन गए हैं।
महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त इलाकों से पिछले चार वर्षों में पच्चीस लाख से ज्यादा लोग पलायन कर चुके हैं। मराठवाड़ा इलाके को पानी उपलब्ध कराने वाले ग्यारह छोटे बांध भी पूरी तरह से सूख चुके हैं। संयुक्त राष्ट्र की 2015 की रिपोर्ट के अनुसार अगर दुनियां के देशों ने पानी बचाने पर कार्य नहीं किया तो अगले पन्द्रह वर्षों में दुनिया को चालीस फीसद पानी की कमी का सामना करना पड़ सकता है।
पीने के पानी के अभाव में डायरिया जैसे रोगों से रोज लगभग 2300 लोगों की मौत होती है। पिछले 50 वर्षों में दुनियां की आबादी में तीन गुना वृद्धि हुई है, जबकि पानी की खपत 800 गुना तक बढ़ चुकी है। इसी कारण पानी का संकट आज दुनियां का सबसे बड़ा संकट बन गया है। फिलहाल देश में औसतन एक नागरिक को 150 लीटर पानी उपलब्ध है। आने वाले समय में पानी की यह उपलब्धता 70 से 75 ली तक रह सकती है। यह एक खतरे की स्थिति है। ऐसे में सवाल यह है कि जल संकट को हराने के लिए सरकार और तंत्र के पास कितनी इच्छाशक्ति है? यह वह समस्याएं हैं जिनके बारे में कोई बात करना नहीं चाहता लेकिन, देश की असली समस्या यही है।
सरकार को जल संकट की समस्या के समाधान के लिए दूरदर्शी और दीर्घकालिक उपाय करने होंगे। कोई भी सरकार जल संकट का अपने स्तर पर तब तक समाधान नहीं कर सकती, जब तक कि समाज की उस में भागीदारी ना हो। खेती में जल संकट की समस्या के समाधान के लिए सरकार को कम पानी से पैदा होने वाली फसलों के उत्पादन को बढ़ावा देकर, उन्हें उचित दाम में खरीदना चाहिए। ताकि किसान कम पानी वाली फसलें उगाने को प्रोत्साहित हों। कई फसलों को साथ उगाने से भी पानी की खपत घटती है। इन बातों का ध्यान करके कृषि विकास के तरीकों में मौलिक बदलाव की जरूरत है। विज्ञान और पर्यावरण के ज्ञान से मानव ने जो प्रगति की है। उसे प्रकृति संरक्षण में लगाना जरूरी है। तमिलनाडु ने वर्षा के पानी का संरक्षण पर जो मिसाल कायम की है। उसे सारे देश में विकसित करने की जरूरत है।
विडंबना यह है कि सरकार के पास जल संरक्षण की कोई समेकित नीति नहीं है। अगर कोई योजना कहीं सफल हो जाती है तो सरकार उसी के पीछे पड़ जाती है। मसलन पिछले वर्षों तालाब निर्माण का फैशन चल पड़ा लेकिन, भारत में केवल तालाब निर्माण से समस्या हल नहीं हो सकती है। इसके साथ ही साथ हमें जंगल बचाने, नहर बनाने, बांध बनाने जैसे उपाय भी करने होंगे। बेहतर होगा अगर विभिन्न जल संरक्षण योजनाओं का पैसा परंपरागत स्रोतों को फिर से जिंदा करने में खर्च किया जाए।
जल संरक्षण में वृक्ष भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसलिए वृक्षारोपण को बढ़ावा देना होगा। कई राज्यों में प्राकृतिक जल स्रोतों की देखरेख के लिए अलग से विभाग है। जलाशयों में बढ़ते प्रदूषण को रोकने के लिए योजनाएं बनाते हैं, मगर यह योजनाएं कागजों पर ही रह जाती हैं। उपरोक्त सभी विषयों को जलवायु परिवर्तन जितनी ही गंभीरता से लेना चाहिए, क्योंकि पानी प्रत्येक व्यक्ति के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और इसकी कमी मानवीय स्वास्थ्य एवं वैश्विक राजनीति दोनों को ही प्रभावित करेगी। अत: पानी को एक समस्या के रूप में मान्यता मिलनी चाहिए तथा इसके निराकरण को वैश्विक एवं राष्ट्रीय एजेंडे में सर्वोच्च स्थान मिलना चाहिए।