गुजरात विधानसभा चुनाव और उपचुनाव में भाजपा को कड़ी टक्कर देने के बाद भाजपा विरोधी दलों का आत्मविश्वास सातवें आसमान पर है। अभी हाल ही में देश के सबसे बड़े राज्यं उत्तर प्रदेश की गोरखपुर और फूलपुर संसदीय सीटों पर सपा को मिली जीत के बाद विपक्ष को अपना भविष्य उज्जवल दिखाई दे रहा है। अगर ये कहा जाए कि यूपी उपचुनाव ने आगामी लोकसभा चुनावों के लिए एक नई भूमिका तैयार कर दी है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। बसपा और सपा का गठबंधन इशारा कर रहा है कि भाजपा के लिए यूपी में डगर बहुत कठिन होगी।
इन दिनों देश के अन्य कई भागों में भी भाजपा को भारी नाराजगी का सामना करना पड़ रहा है। नाराज मतदाताओं का मानना है कि जिस मोदी लहर से यह पार्टी सत्ता में आई थी, वे दावे केवल भाषणबाजी तक सीमित होकर रह गये। तमाम महकमों में भ्रष्टाचार ज्यों का त्यों है, तरीके बदल गये हैं। कश्मीर में आतंकवाद बढ़ा है। सीमा पर जवान पहले से ज्यादा शहीद हो रहे हैं। नक्सलवाद खत्म नहीं हुआ। देखा जाए तो ंराज्यसभा चुनाव इतने महत्त्वपूर्ण कभी साबित नहीं हुए, जितने इस बार हुए। देश की आजादी के बाद पहली बार भाजपा राज्यसभा में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर पुख्ता हुई है और कांग्रेस की संख्या 50 सांसदों से भी कम हो गई है। राज्यसभा चुनाव से पहले भाजपा के 58 सांसद थे, जो अब बढ़कर 70 हो गयी है।
भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए के सांसदों की संख्या भी 89 तक (पहले 77 थी) पहुंच गयी है। कांग्रेस का वर्चस्व संसद के उच्च सदन में समाप्त हो गया है। उसके सांसद 54 से घटकर 46 पर आ गये हैं। यूपीए सांसद भी 60 से कम होकर 52 तक लुढ़क आए हैं। अलबत्ता अन्य सांसदों की ताकत अब भी 102 हो गयी है। जो विभिन्न विधायी और बहस तलब मुद्दों पर निर्णायक साबित होगी। राज्यसभा में 245 सांसद होते हैं, जिनमें से 233 चुनकर आते हैं और 12 को राष्ट्रपति मनोनीत करते हैं।
लिहाजा बहुमत का आंकड़ा 123 है। भाजपा-एनडीए अब भी बहुमत से बहुत दूर हैं, लेकिन फासले सिमट रहे हैं। अब राज्यसभा में जो समीकरण बन रहे हैं, उनके मद्देनजर 2019 तक भाजपा-एनडीए बहुमत के और भी करीब पहुंचेंगे। जिस तरह भूमि अधिग्रहण अध्यादेश (बाद में बिल) और तीन तलाक विधेयक पर मोदी सरकार को संसद के उच्च सदन में मुंह की खानी पड़ी थी, कमोबेश अब ऐसे मौके कम ही होंगे, लेकिन अन्य सांसद भी वैचारिक तौर पर भाजपा-मोदी-विरोधी हैं, लिहाजा राज्यसभा में भी बहुमत का आंकड़ा छूने के मद्देनजर सत्तारूढ़ पक्ष को अन्य दलों के साथ बेहतर तालमेल बनाना होगा।
सबसे महत्त्वपूर्ण उप्र के राज्यसभा चुनाव रहे, जिसमें अखिलेश यादव की सपा मायावती की बसपा के उम्मीदवार भीमराव अंबेडकर को जिता नहीं सकी। एक बार फिर साबित हो गया कि सपा के वोट बसपा की ओर शिफ्ट नहीं होते हैं। यह जातीय, संस्कारी, परंपरागत पूर्वाग्रह हैं। जबकि बसपा ने अपने वोट बैंक के जरिए सपा को गोरखपुर और फूलपुर सरीखी महत्त्वपूर्ण लोकसभा सीटें जितवा कर साबित किया था कि बसपा के वोट सपा की ओर शिफ्ट हो सकते हैं। हालांकि उप्र की ही कैराना लोकसभा सीट पर उपचुनाव के लिए दोनों दल करार घोषित कर चुके हैं। राज्यसभा चुनाव हारने के बाद बसपा अध्यक्ष मायावती ने दावा किया है कि समझौता जारी रहेगा। उन्होंने सपा-बसपा गठबंधन के बजाय दोस्ती शब्द का इस्तेमाल किया है। दावा यह भी किया है कि अब दोनों दल नई रणनीति के जरिए भाजपा को हराएंगे।
चुनाव विशेषज्ञों के आकलन सामने आए हैं कि यदि उप्र में ही सपा-बसपा में गठबंधन हो जाए, तो भाजपा-एनडीए की कमोबेश 50 लोकसभा सीटें कम हो सकती हैं। 2014 में भाजपा-एनडीए ने उप्र की 80 में से 73 लोकसभा सीटें जीती थीं। इन आकलनों के मुताबिक, सपा-बसपा गठबंधन भाजपा-एनडीए को तगड़ा झटका देने में समर्थ है। अब सवाल यह है कि राज्यसभा चुनाव के बाद क्या यह गठबंधन होगा? यदि देश के सबसे बड़े राज्य में यह चुनावी गठबंधन नहीं होगा, तो राष्ट्र स्तर पर विपक्ष का महागठबंधन कैसे आकार लेगा?
सपा-बसपा की तो नई-नई दोस्ती है, दोनों की मजबूरी है, देखते हैं कि यह समझौता गठबंधन में तबदील होता है या नहीं अथवा यारी कब तक, कहां तक खिंचती है? पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी मोदी विरोधी मुहिम को फिलवक्त लीड कर रही हैं। पिछले दिनों ममता ने दिल्ली में डेरा डालकर मोदी विरोध के लिए खेमेबंदी की। इस सारी मशक्कत में एक अहम प्रश्न यह है कि अभी चुनाव को लगभग एक साल का समय है। इससे पूर्व भी तीसरा मोर्चा बनाने की कोशिशें देश में हुई हैं, जो परवान नहीं चढ़ पायी है। ऐसे में 2019 से पूर्व क्या विपक्ष एकजुट होकर भाजपा को चुनौती देगा या फिर पूर्व की भांति एकजुटता की सारी कोशिशें धाराशायी हो जाएंगी। वहीं विपक्ष को लीड कौन करेगा इस पर भी मामला फंसना और तकरार होना लाजिमी है।