कभी ‘डाटा लीक’, कभी डेट लीक’, कभी आधार की सूचनाएं लीक और कभी देशभर में विभिन्न परीक्षाओं के प्रश्न पत्र लीक, आखिर देश में इन दिनों यह सब क्या घटित हो रहा है? लोगों के आधार कार्ड से उनकी सूचनाएं लीक होने तथा ‘डाटा’ लीक होने के सिलसिले में हाल के दिनों में देश में काफी घमासान मच चुका है और कुछ समय से एस.एस.सी., राजस्थान पुलिस तथा कई अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रश्न पत्र लीक होने और अब सीबीएसई की बोर्ड की 10वीं व 12वीं कक्षा के प्रश्नपत्र लीक होकर सहजता से व्हाट्सअप पर उपलब्ध होने के बाद सरकार की कार्यप्रणाली को लेकर जो गंभीर सवाल उठने लगे हैं, उन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता।
ताजा प्रकरण 27 मार्च को चुनाव आयोग द्वारा कर्नाटक विधानसभा चुनाव की तारीखें घोषित करने से ठीक पहले भाजपा के आई.टी. प्रकोष्ठ प्रमुख अमित मालवीय द्वारा चुनाव की तारीख संबंधी ट्वीट करने से जुड़ा है। दरअसल चुनाव आयोग चुनाव की तिथि की घोषणा से कुछ ही समय पहले अमित मालवीय ने ट्वीट कर कर्नाटक विधानसभा चुनाव की तारीख 12 मई बताई थी और चुनाव आयोग की प्रेस कांफ्रैंस में यह सच साबित हुई और इसे लेकर कांग्रेस सहित कई विपक्षी दलों ने केन्द्र सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।
इस मामले को लेकर जहां केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा पर ‘सुपर इलैक्शन कमीशन’ की तरह कार्य करने के आरोप लगने लगे हैं, वहीं आए दिन सामने आ रहे तरह-तरह के ‘लीक’ मामलों को लेकर अब केन्द्र पर संवैधानिक संस्थाओं का डाटा चुराने के आरोप भी लगाए जाने लगे हैं, जो बेहद गंभीर स्थिति है। चुनाव की तारीख जैसी महत्वपूर्ण गोपनीय सूचना लीक करने के मामले को लेकर यदि विपक्षी दल चुनाव आयोग पर निशाना साधते हुए यह सवाल उठा रहे हैं कि क्या आयोग अब भाजपाध्यक्ष अमित शाह तथा पार्टी के आईटी हेड के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करवाएगा तो इसमें गलत क्या है? चूंकि चुनाव की तारीख चुनाव आयोग से ही लीक हुई है, इसलिए पहले से ही विवादों में घिरे चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली इस प्रकरण के बाद एक बार फिर सवालों के घेरे में आ गई है।
दरअसल जिस प्रकार अदालत में किसी भी मामले में फैसला सुनाने का हक सिर्फ और सिर्फ न्यायाधीश को होता है, ठीक उसी प्रकार चुनाव आयोग के भी अपने कुछ अधिकार हैं और चुनाव की तारीखें घोषित करने का कार्य सिर्फ चुनाव आयोग का ही है, किसी भी राजनीतिक दल या किसी न्यूज चैनल को अथवा किसी भी अन्य शख्स को यह अधिकार नहीं है कि वो चुनाव आयोग की घोषणा से पहले ही इस प्रकार चुनाव की तारीखें सार्वजनिक कर आयोग के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप करने का दुस्साहस करे।
ऐसे मामलों में आयोग को अपनी साख प्रभावित होने से बचाने के लिए कठोर कदम उठाने चाहिएं। चूंकि चुनाव आयोग एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था है, जिसके पास देश में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया सम्पन्न कराने के लिए न्यायिक अधिकार भी होते हैं और संविधान की व्याख्या के तहत न तो केन्द्र सरकार और न ही कोई भी राजनीतिक दल उसके कार्य में हस्तक्षेप कर सकता है, अत: यदि देश में आयोग की किसी भी प्रकार की कार्यप्रणाली को लेकर कोई गलत संकेत जाता है तो यह लोकतंत्र के हित में कदापि नहीं है।
हाल ही में दिल्ली की केजरीवाल सरकार के 20 विधायकों के मामले में हाईकोर्ट द्वारा जिस प्रकार आयोग की कार्यशैली पर प्रश्नचिन्ह लगाया गया था तथा अब आयोग से चुनाव की तारीख लीक होने का मामला सामने आया है, इससे पहले भी आयोग की साख प्रभावित करते कुछ और प्रकरण सामने आए हैं और इसी वजह से आशंका जताई जाने लगी है कि आयोग केन्द्र के दबाव में काम कर रहा है। हालांकि केन्द्र सरकार पर पिछले काफी समय से इस प्रकार के आरोप लगते रहे हैं कि वह संवैधानिक संस्थाओं के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप कर उनका बड़े पैमाने पर दुरूपयोग कर रही है।
नोटबंदी प्रकरण के दौरान जिस प्रकार भारतीय रिजर्व बैंक की स्वायत्तता का चीरहरण होते सभी ने देखा, उसी प्रकार सीबीआई, आईटी और ईडी जैसी संस्थाओं का विपक्षी दलों व विरोधियों का मुंह बंद कराने के लिए व्यापक स्तर पर दुरूपयोग करने के आरोप भी लगते रहे हैं लेकिन जहां तक चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था की बात है तो आयोग देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की महत्वपूर्ण धुरी है, अत: आयोग की कार्यप्रणाली में यदि किसी भी प्रकार का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दबाव झलकता है तो उससे आयोग की प्रतिष्ठा पर जो आघात लगेगा, उसका खामियाजा समूची लोकतांत्रिक व्यवस्था को भुगतना पड़ेगा।
वर्ष 1990 से पहले चुनाव आयोग केन्द्र सरकार की एक महत्वपूर्ण संस्था के रूप में ही कार्य करने के लिए विख्यात था, उसके अधिकांश फैसलों में उस पर केन्द्र का दबाव प्रत्यक्ष झलकता था किन्तु 1990 में मुख्य चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषन ने अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए चुनाव आयोग को निष्पक्ष छवि प्रदान की और देश की जनता को अहसास कराया कि आयोग केन्द्र के हाथों की कठपुतली नहीं बल्कि एक स्वायत्त संवैधानिक संस्था है।
हालांकि मुख्य चुनाव आयुक्त पर अंकुश लगाने के लिए उस समय सरकार द्वारा चुनाव आयोग में दो और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का प्रावधान कर दिया गया ताकि उनके माध्यम से सरकार आयोग पर नियंत्रण बनाए रख सके किन्तु उसके बाद भी चुनाव आयोग ने अपनी निष्पक्षता पर आंच नहीं आने दी और यही कारण है कि हमारे देश के चुनाव आयोग की स्वतंत्र एवं निष्पक्ष कार्यप्रणाली का बारीकी से अध्ययन करते हुए दुनिया के कई देशों ने उसी के अनुरूप अपने लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए कदम उठाए हैं
लेकिन कुछ समय से आयोग की कार्यप्रणाली पर जिस प्रकार बार-बार सवालिया निशान लग रहे हैं और उसके विभिन्न फैसलों में उस पर अप्रत्यक्ष दबाव झलक रहा है, उसके मद्देनजर आयोग को इस ओर खास ध्यान देते हुए देश के मतदाताओं को यह संदेश देने के लिए पर्याप्त कदम उठाने ही होंगे कि उसके निर्देशन, मार्गदर्शन और नियंत्रण में देश में आने वाले समय में भी चुनाव प्रक्रिया निष्पक्ष तरीके से सम्पन्न होती रहेगी और लांकतांत्रिक प्रणाली पर कोई आंच नहीं आने दी जाएगी।
लोकतंत्र में सरकारें तो आती-जाती रहेंगी लेकिन अगर आयोग की कार्यप्रणाली किसी भी कारणवश कटघरे में खड़ी नजर आती है तो वह लोकतंत्र में लोगों का भरोसा बनाए रखने के लिहाज से ठीक नहीं है। अत: यह जिम्मेदारी आयोग की ही है कि उसकी कार्यप्रणाली में आम नागरिकों का भरोसा बरकरार रहे।
-योगेश कुमार गोयल