ओजोन छिद्रों से छनता जहर

Poison, Filters, Ozone Holes

प्रसमय के साथ मनुष्य ने यदि विज्ञान के क्षेत्र में अनेक उल्लेखनीय कारनामे किए हैं व ऊंचे आयामों को छुआ है तो दूसरी और वह प्राकृतिक विधाओं का सबसे बड़ा दुश्मन भी बन गया है। आज हमें गाड़ियों मशीनें, एल.पी.जी. और न जाने कितने ही ऐसे उपकरण चाहिए जिनमें कभी न कभी जीवाश्म ईधन या उससे बने अन्य पदार्थों का उपयोग होता है। विभिन्न प्रकार से इन पदार्र्थों के जलने से कार्बन डाईआक्साइड गैस का स्राव होता है। उद्योगों से निकलता काला राक्षसी धुआं भी कार्बन से भरा होता है। इस प्रकार स्त्रावित कार्बन से पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ता जा रहा है। इससे पहाड़ों पर अधिक बर्फ पिघलने से समुद्री और महासागरों में पानी की मात्रा बढ़ने लगी है। इस कारण तटीय धरती का काफी हिस्सा पानी में समा जाने की आशंका है। ‘ग्रीन हाउस’ प्रभाव नाम से जाने गये इस दुष्प्रणाम से मनुष्य व जीव जंतुओं और पेड़ों के जीवन पर स्पष्ट असर पड़ना निश्चित है।

उद्योगों में प्रयुक्त होने वाले क्लोरोफ्लोरो कार्बन, हैलोजन तथा मिथाइल ब्रोमाइड जेसे रसायनों से निकले क्लोसेन व ब्रोमीन जैसे गैैसीय रसायनिक प्रदूषकों के कारण पृथ्वी के ऊपर ओजोन परत पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता जा रहा है। यह परत पृथ्वी पर जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। ओजोन परत धरती के ऊपर एक छत्री के समान है, जो सूर्य की हानिकारक किरणों को यहां आने से रोकती है। परंतु अब अनेक स्रावित प्रदूषकों से इस परत में छेद होते जा रहे हैं, जिनमें पृथ्वी पर आने वाली हानिकारक किरणों को रोकना नामुमकिन है।इस विषय पर हो रहे अध्ययन के दौरान करीब दस वर्ष पूर्व अंटार्कटिका के ऊपर वैज्ञानिकों ने एक बड़े ओजोन की खोज की थी। अंटार्कटिक स्थित हेली शोध केंद्र में इस छिद्र को देखा गया था।

वातावरण के ऊपरी हिस्से में जहां ओजोन गैस होती है वहां अंटार्कटिका महाद्वीप में सर्दियों में तापमान 80 डिग्री सेल्सियस से भी कम हो जाता है। इस कारण इन सतहों पर बर्फीले बादलों का निर्माण होने से रासयानिक प्रक्रियाएं होने लगती हैें। जैसे-जैसे अंधेरी सर्दियां कम होती जाती हैं और सूर्य की रोशनी वापस आने लगती है, उससे होने वाली अन्य रसायनिक प्रक्रियाओं के कारण ओजोन नष्ट हो जाती है। एक अध्ययन के अनुसार सन् 1960 के मुकाबले यहां ओजोन की मात्रा अब 40 प्रतिशत कम हो चुकी है। इस शोध के अनुसार ओजोन का क्षय गर्मियों में भी उसी दर से होता है, जिससे अंटार्कटिका तथा आसपास के समुद्रों के क्षेत्रों में सूर्य की पराबैंगनी रोशनी बढ़ती जा रही है।

आशा की जा रही है कि इस क्षेत्र में चलने वाली तेज गति की वायु के कारण भविष्य में इस ओजोन छिद्र का आकार संभवत: नहीं बढ़ेगा और शायद कुछ एक दशकों में पूर्णत: समाप्त हो सकता है। ऐसा मानने का एक मुख्य कारण है मौन्ट्रियल सरकार द्वारा विषैली गैसों के स्राव के प्रति कड़े कानूनों का लागू किया जाना है। इस चिंताजनक विषय के लिये जहां एक ओर सरकार द्वारा तत्पर उपायों को कारगर करना है, वहीं दूसरी ओर जन सामान्य को भी यह अहसास दिलाना अति आवश्यक है कि गलत तरीके से इस्तेमाल किये जाने पर जीवाश्म र्इंधन प्रकार के संसाधन हमारे लिये ही हानिकारक सिद्ध हो सकते हैं।

अंजनि सक्सेना