बड़े चूककर्ताओं के नाम सार्वजनिक हों

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भारत में बैंकों में धोखाधड़ी और घोटालों की बाढ़ आयी हुई है और भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़ों से इस बात का खुलासा हुआ है कि वर्ष 2012 से 2017 के बीच पांच वर्षों में बैंकों को कर्ज घोटालों में 61260 करोड़ रूपए खोने पडे। भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार ऐसे धोखाधड़ी के मामलों की संख्या 8670 है जबकि इलेक्ट्रोनिक और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने संसद को बताया कि ऐसे मामलों की संख्या 25600 है। यह बताता है कि लोन लेना आसान है और उसे न लौटाना और भी आसान है।

बैंकों की गैर-निष्पादनकरी आस्तियां 6 लाख करोड़ रूपए की है और यदि इसमें बट्टे खाते में डाली गयी राशि को भी शामिल करें तो यह 12 लाख करोड़ तक पहुंचती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाल के बयान के अनुसार अधिकतर बडेÞ ऋणों का भुगतान नहीं किया गया है और बेचारे जमाकर्ताओं की बचत निशाने पर है। ऐसा लगता है कि जनता का पैसा लूटने के लिए है। पंजाब नेशनल बैंक का 11400 करोड़ रूपए का घोटाला और रोटोमैक कंपनी के मालिक विक्रम कोठारी द्वारा 2695 करोड़ रूपए न लौटाए जाने का व्यापक प्रभाव पडेगा। लगता है कई बैंकों ने अपने घोटाले छिपा रखे हैं। ये धोखाधड़ी और घोटाले केवल बडेÞ सरकारी और निजी बैंकों तक सीमित नहीं हैं। ग्रामीण और सहकारी बैंकों में भी ऐसे धोखाधड़ी देखने को मिलती है।

वर्ष 2014 में नाबार्ड ने कहा था कि वर्ष 2012-13 में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को धोखाधड़ी के कारण 727़54 करोड़ रूपए और 2011-12 में 611़77 करोड़ रूपए खोने पडे। नाबार्ड ने स्वीकार किया था कि बैंक धोखाधड़Þी के ऐसे बडे मामलों की सूचना नहीं दे रहे हैं और यह राशि और भी बड़ी हो सकती है। सहकारी बैंकों में भी धोखाधड़ी हो रही है किंतु उसके आंकडे उपलब्ध नहीं हैं।

कुल मिलाकर पूरा बैंकिंग क्षेत्र संकट के दौर से गुजर रहा है और सरकारी बैंक विशेष रूप से संकट की स्थिति में हैं। ये बैंक वास्तव में सरकार द्वारा पुर्न पूंजीकरण के आधार पर चल रहे हैं और इसके लिए 2000-01 और 2014-15 के बीच 81200 करोड़ रूपए का बजटीय प्रावधान किया गया। 2017 में सरकार ने सरकारी बैंकों के पुर्नपूंजीकरण के लिए 2़11 लाख करोड़ रूपए उपलब्ध कराने की घोषणा की थी। इस राशि में से 18139 करोड़ रूपए बजटीय प्रावधान से और 1़35 लाख करोड़ रूपए बिक्री से जुटाए जाएंगे। शेष राशि बैंक सरकार की हिस्सेदारी बेचकर जुटाएंगे। इसका मतलब है कि भविष्य में सरकार को कम लाभांश मिलेगा।

सरकराी बैंकों का दोष यह है कि ये अवसंरचना परियोजनाओं के लिए भारी ऋण देते हैं और ये परियोजनाएं आगे नहीं बढ़ पाती हैं। इसका उपाय यह है कि कर्ज के कारण घाटे के लिए धन उपलब्ध कराया जाए, प्रबंधन की जिम्मेदारी तय की जाए और बैंकों का प्रशासन सुधारा जाए। जैसा कि सभी जानते हैं कि रीयल एस्टेट परियाजाओं के लिए दिए गए कर्ज को अन्य प्रयोजनों के लिए खर्च किया गया। बैंकों द्वारा एक बार कर्ज देने के बाद उस पर उनका कोई नियंत्रण नहीं रहता है।

इसीलिए जेपी जैसी कंपनी द्वारा 95 हजार करोड़ रूपए न लौटाए जाने के बावजूद उसे गैर-निष्पादनकारी आस्तियों में नहीं दर्शाया गया। बैंकों के लिए राहत पैकेज तब दिया जाता है जब बैंक विफल हो जाते हैं। विनियामक अर्थों में इसका तातपर्य यह है कि बैंकों का जोखिम और पूंजी का अनुपात उनकी परिसंपत्ति के मूल्य से कम हो जाता है। वतमान में यह मानदंड 8 प्रतिशत का है और बेसल मानकों में भी यही दर निर्धारित की गयी है। भारतीय रिजर्व बैंक इसे 9 प्रतिशत पर रखना चाहता है। यह 14 प्रतिशत पर रखा गया था क्योंकि यदि कुछ ऋण अशोध्य ऋण भी बन जाएं तो बैंक पूंजी आवश्यकता के स्तर से नीचे न गिर पाए और वे ऋण देने की स्थिति में बने रहें।

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने 12 सरकारी बैंकों सहित 15 सबसे बड़े बैंकों के दबाव झेलने की परीक्षा की। भारतीय रिजर्व बैंक के परीक्षण में भी बैंकों की गैर-निष्पादनकारी आस्तियों में वृद्घि पायी गयी। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष हो या भारतीय रिजर्व बैंक उन्होंने बैंकिंग संकट को कम कर आंका। वे चूककर्ताओं के नाम नहीं बताते हैं। पंजाब नेशनल बैंक घोटाले में कहा जा रहा है कि नीरव मोदी ने बैंक की मुंबई की एक शाखा को चुना जो स्विफ्ट नामक आॅनलाइन प्रणाली से नहीं जुड़ा हुयी थी और यदि यह शाखा भी आॅनलाइन प्रणाली से जुड़ी होती तो घोटाला आसानी से सामने आ जाता। इस मामले में कार्य प्रणाली बहुत सरल थी। ऋण छोटी-छोटी राशियों में अनेक बार लिया गया।

कई बार छोटी-छोटी राशियों का भुगतान भी किया गया किंतृ अधिकतर राशि का बही में समायोजन किया गया। इस तरह से बड़ा आंकड़ा सामने नहीं आया और जब तक गहन छानबीन न की जाए तब तक यह पकड़ा भी नहीं जाता। भारतीय रिवर्ज बैंक और अन्य विनियामकों की कार्यवाही दर्शाती है कि बंंैकों में बेचारे जमाकर्ताओं की राशि की सुरक्षा की किसी को चिंता नहीं है। इस बात का कोई आकलन नहीं किया गया है कि ऋण धोखाधड़ी और अन्य घोटालों में बैंकों ने कितनी राशि खोई है। एकमात्र सुरक्षा यह है कि अधिकतर बैंक सरकारी बैंक हैं और सरकार उनको बचाए रखने के लिए पैसा दिए जा रही है।

जमाकर्ताओं और सरकार को इस बात पर पुनर्विचार करना होगा कि क्या लोगों को बैंकिंग के माध्यम से लेनदेन करने के लिए बाध्य किया जा सकता है। यह बहुत जोखिम भरा है। आॅनलाइन बैंकिंग प्रणाली शुरू होने के बाद अनेक लोगों को आॅनलाइन धोखेबाजों द्वारा चपत लगायी जा चुकी है। क्या आधार को बैंक खातों से जोड़ने से सहायता मिलेगी? सरकार को चाहिए कि वह बैंकों से कहे कि फिलहाल इसे रोक दे क्योंकि सुरक्षित आनलाइन बैंकिंग के बारे में अभी अनेक आशंकाएं हैं। आधार को बैंक खातों से जोड़ने वाले भी ऋण धोखाधड़ी कर बच सकते हैं। इसलिए इस प्रणाली को 99 प्रतिशत ईमानदार जमाकर्ताओं पर क्यों थोपा जाए? प्रक्रिया को जटिल बनाने से जमाकर्ताओं को मदद नही मिलती है जो वास्तव में बैंकों के मालिक हैं।

व्यापार में सरलता लाने के नाम पर लगता है बैंक कर्ज देने में लापरवाही बरत रहे हैं। उनका वसूली और निगरानी तंत्र कमजोर है। पिछले कुछ वर्षों में ऋण को सस्ता बनाए जाने के कारण ऋण की मांग बढ़ी है और इसके साथ ही धोखाधड़ी के मामले भी बढ़े हैं। किसी भी व्यक्ति को तब तक दूसरा ऋण नहीं दिया जाना चाहिए जब तक वह पहले ऋण के 90 प्रतिशत का भुगतान न कर दे। जमाकर्ताओं के लिए दुविधा की स्थिति है। वे कम ब्याज प्राप्ति और धोखाधड़ी के कारण बढ़ते जोखिम, बढ़ते बैंक प्रभारों और पैसे का मूल्य कम होने के कारण नुकसान उठा रहे हैं और इसका अप्रत्यक्ष प्रभाव पूरी अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। यदि यह प्रणाली कमजोर हुई तो अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग में गिरावट आएगी।

हमारे देश में शिक्षा और कृषि ऋण की जटिल प्रक्रियाएं पूरी करके दिए जाते हैं फिर बिना किसी रेहन के अरबों रूपयों का ऋण कैसे दिया गया? बैंकों से कहा जाना चाहिए कि वे ऊंची राशि का ऋण लेने वाले लोगों का नाम अपनी वेबसाइट पर डालें। यदि एक ऋण लेने वाले किसान का नाम सार्वजनिक किया जा सकता है तो फिर मोटी राशि का कर्ज लेने वालों के नाम क्यों नहीं? लोगों का बैंकों में विश्वास बना रहना चाहिए।

शिवाजी सरकार