आजादी की लड़ाई में त्याग और बलिदान की भावना से शिरकत करने वाले ऐसे कितने ही वीर-जवान हुए हैं, जिन्हें देश ने भूलने में जरा-सा समय नहीं लगाया। जंग-ए-आजादी के कुछ शहीदों को हम भले ही याद करते रहे हों, लेकिन ऐसे कितने ही सेनानी हैं, जिन्हें न तो याद करते है और न ही सम्मान। भले ही उन्होंने किसी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के कारण स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा ना लिया हो, लेकिन एक देश के रूप में हमारी जिम्मेदारी से हमें बरी तो नहीं किया जा सकता। हाशिये का जीवन जीते हुए वे हमसे विदा हो गए। लेकिन आजादी के रूप में जो सौगात उन्होंने अपना सब कुछ न्यौछावर करके हमें दी, उसका कुछ तो देय बनता ही है। जिन सेनानियों के योगदान को हमने भुलाया है, उनमें महान क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त का नाम भी है।
बटुकेश्वर का जन्म 18 नवंबर 1910 में गांव ओएरी, जिला बर्दमान (बंगाल) में हुआ था। उनकी स्नातक स्तरीय शिक्षा पी.पी.एन. कॉलेज कानपुर में हुई। 1924 में कानपुर में उनकी भगत सिंह से भेंट हुई। इसके बाद उन्होंने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के लिए कानपुर में कार्य करना शुरू कर दिया। उन्होंने बम बनाना भी सीखा। 8 अप्रैल, 1929 को केन्द्रीय असेंबली नई दिल्ली में पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिसप्यूट बिल पेश होने के दौरान भगत सिंह और बटुकेश्वर ने बम फेंक कर ब्रिटिश तानाशाही का विरोध किया। बम का उद्देश्य किसी की जान लेना नहीं, बल्कि गूंगी-बहरी सरकार तक देश की जनता की आवाज पहुंचाना था।
भगत सिंह के साथ वहां पर बटुकेश्वर ने नारा लगाया था-इंकलाब जिंदाबाद साम्राज्यवाद का नाश हो, दुनिया के मजदूरों एक हो। उन्होंने वहां से भागने की बजाय गिरफ्तार होना बेहतर समझा, ताकि अदालत में अपने बयान के माध्यम से अपनी आवाज को बुलंद किया जा सके। असेंबली बम कांड के बाद अदालत से बटुकेश्वर को काला पानी की सजा मिली। इस सजा के लिए उन्हें अंडमान द्वीप समूह (बंगाल की खाड़ी) भेज दिया गया। जेल में ही उन्होंने 1933 और 1937 में भूख हड़ताल की। 1937 में उन्हें पटना जेल में लाया गया और 1938 में उन्हें रिहा कर दिया गया।
लेकिन 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन को देखते हुए दोबारा गिरफ्तार कर लिया गया। फिर 1945 में उन्हें रिहा किया गया। आजादी के बाद नवम्बर 1947 में अंजली दत्त से शादी करने के बाद वे पटना में रहने लगे। नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित अनिल वर्मा की किताब -बटुकेश्वर दत्त, भगत सिंह के सहयोगी से खुलासा हुआ है कि देश की स्वतंत्रता के लिए अपने जीवन के 15 वर्ष जेल में बिताने वाले क्रांतिकारी का जीवन स्वतंत्रता के बाद भी पीड़Þाओं और संघर्षों से भरा रहा। उन्हें वह सम्मान नहीं मिल पाया, जिसके वे हकदार थे।
उन्हें आजाद भारत में रोजगार नहीं मिला, जिसके लिए वह पटना की सड़कों की खाक छानते रहे। बाद में उन्होंने बिस्कुट और डबलरोटी का एक छोटा-सा कारखाना खोला। भारी नुकसान के कारण कारखाने को भी बंद करना पड़ा। कुछ समय तक टूरिस्ट एजेंट एवं बस परिवहन का काम भी किया, परंतु एक के बाद एक कामों में असफलता ही उनके हाथ लगी। एक बार पटना में बसों के लिए परमिट मिल रहे थे तो इसके लिए बटुकेश्वर दत्त ने भी आवेदन किया। परमिट के लिए जब पटना के कमिश्नर के सामने पेशी हुई तो कमिश्नर ने उनसे स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र लाने को कहा।
हालांकि बाद में राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को जब यह बात पता चली तो कमिश्नर ने बटुकेश्वर जी से माफी मांगी। बटुकेश्वर का बस इतना ही सम्मान हुआ कि उन्हें एक बार कुछ समय के लिए विधान परिषद का सदस्य मनोनीत किया गया। 20 जुलाई, 1965 में दिल्ली के अस्पताल में उनका देहांत हो गया था। उनकी इच्छा के अनुसार मौत के बाद उनका अंतिम संस्कार फिरोजपुर में उसी जगह किया जाए जहां पर शहीद-ए-आजम भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव की समाधि बनी है।
लेखक अरुण कुमार कैहरबा