एक चौथाई मतदाता मतदान से दूर…आखिर क्यों ?

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चुनाव आयोग की इसे बड़ी सफलता माना जाएगा कि हिमाचल में शांतिपूर्ण मतदान संपन्न हो गए। ईवीएम से मतदान के दौरान वीवीपैट यानी कि वोटर वैरिफाइड पेपर आॅडिट ट्रायल मशीन के प्रयोग से अब चुनाव नतीजे आने के बाद हारने वाली पार्टियां ज्यादा शोरगुल भी नहीं कर पाएंगी। चुनाव आयोग द्वारा आरंभिक आंकड़ों के आधार पर हिमाचल में पिछले 45 साल के मतदान आंकड़ों को देखते हुए इस बार सर्वाधिक मतदान बताया जा रहा है। 2012 की तुलना में इस बार दो फीसदी अधिक मतदान हुआ है पर अभी भी मतदान प्रक्रिया से एक चौथाई मतदाताओं का दूर रहना निश्चित रुप से चिंता का विषय है। यह केवल हिमाचल ही नहीं अपितु पूरे देश में मतदान के प्रति शत-प्रतिशत नहीं तो 90-95 के आंकड़े को छूआना चुनाव आयोग के सामने आज भी चुनौती से कम नहीं है।

यह भी सही है कि 2003 के चुनावों में भी हिमाचल में मतदान का आंकड़ा 74 प्रतिशन को पार कर गया था। इसके बाद के दो चुनावों में मतदान प्रतिशत में कमी रही। 2012 की ही बात करे तो इसके बाद लोकसभा चुनावों में भी हिमाचल में मतदान का प्रतिशत कम रहा। आखिर मतदाता मतदान केन्द्रों तक पहुंच क्यों नहीं पाते, यह चिंतन-मनन का विषय है। हांलाकि विश्लेषण तो यह बताता है कि पॉश कॉलोनियों के नागरिक जो अपने आप को बुुद्घिजीवी व सभ्रांत कहते हैं मतदान प्रतिशत भी उन्हीं के कारण कम होता है। जहां तक चुनाव आयोग का प्रश्न है यह साफ हो चुका है कि विश्व के देशों में हमारे देश में अधिक शांतिपूर्ण व निष्पक्षता से चुनाव होने लगे हैं। हांलाकि हारने वाले दल ही प्रक्रिया को लेकर आरोप प्रत्यारोप लगाते रहते हैं।

इससे पहले उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा सहित पांच राज्यों में हुए चुनावों के बाद विपक्षी दलों ने हार का ठीकरा ईवीएम मशीन पर ड़ालने का प्रयास करते हुए चुनाव आयोग को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास किया था पर जिस तरह से चुनाव आयोग ने इसे खुली चुनौती के रुप में लेते हुए ईवीएम से छेड़छाड़ सिद्घ करने की जिस तरह से चुनौती दी उससे सभी दल बगले झांकने लगे। सही भी है हारने वाला दल ईवीएम को दोष देने लगता है जिसे उचित नहीं माना जा सकता।

भले ही हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का दावा करें पर लाख प्रयासों के बावजूद लोकतंत्र के प्रति आमआदमी की निष्ठा अभी तक परिलक्षित नही हो रही है। अभी हिमाचल और इससे पहले पांच राज्यों के मतदान के आंकड़े आईना दिखाने के लिए काफी है। यह सब तो तब है जब पिछले दिनों ही सर्वोच्च न्यायालय की एक महत्वपूर्ण टिप्पणी आई कि जो मतदान नहीं करते उन्हें सरकार के खिलाफ कुछ कहने या मांगने का भी हक नहीं हैं। आखिर क्या कारण है कि शत-प्रतिशत मतदाता मतदान केन्द्र तक नहीं पहुंच पाते? सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी और चुनाव आयोग के मतदान के प्रति लगातार चलाए जाने वाले कैम्पेन के बावजूद मतदान का प्रतिशत ज्यादा उत्साहित नहीं माना जा सकता। यह भी सही है कि चुनाव के दौरान सुरक्षा बलों की माकूम व्यवस्था व बाहरी पर्यवेक्षकों के कारण अब धन-बल व बाहु बल में काफी हद तक कमी आई है।

ईवीएम और चुनाव आयोग के निरंतर सुधारात्मक प्रयासों का ही परिणाम है कि चुनाव आयोग की निष्पक्षता और चुनावों में दुरुपयोग के आरोप तो अब नहीं के बराबर ही लगते हैं। छुटपुट घटनाओें को छोड़ भी दिया जाए तो अब चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर प्रश्न नहीं उठाया जा सकता। हांलाकि पांच राज्यों के चुनाव परिणाम के बाद सारा ठीकरा ईवीएम में हेराफेरी पर ढ़ोल कर सारी दुनिया में चुनाव आयोग को कठघरे में खड़े करने के प्रयास किए गए। पर चुनाव आयोग की दृढ़ता और खुली चुनौती ने सारे दावे फेल कर दिए। हम बड़े गर्व से दावे कर रहे है कि इस बार सर्वाधिक प्रतिशत लोगों ने लोकतंत्र के इस यज्ञ में आहुति दी है। मतदान के पुराने सारे रिकार्ड तोड़ दिए है। ज्यादा मतदान से इस दल को फायदा होगा या दूसरे दल को।

मतदान प्रतिशत से किसको कितना लाभ मिलेगा या हानि होगी इसका विश्लेषण भी होने लगा है। यह विश्लेषण भी होने लगा हैं कि किस जाति-धर्म व किस आयु वर्ग के लोगों ने कितना मतदान किया है। यह भी विश्लेषण करते नहीं चूक रहे कि महिलाओं का अमुक दल के प्रति झुकाव अधिक है या पुरुषों का अमुक दल के साथ अधिक झुकाव है। टेलीविजन चैनलों पर हम यह विश्लेषण करते भी नहीं थक रहे कि किस दल को कितना मत मिलने जा रहा है। कौन जीत रहा है और कौनसा दल हार रहा है। किसको कितना मत प्रतिशत मिल रहा है। यह भी कि किस दल के प्रति मतदान का प्रतिशत कितना स्विंग कर रहा है।

चुनाव आयोग के मतदान करने के लिए सघन प्रचार अभियान और सरकारी व गैर-सरकारी संस्थानों और मीडिया द्वारा मतदान के लिए प्रेरित करने के बावजूद मतदान का यह प्रतिशत आया है तो क्या कहा जाए। आखिर मतदाता मताधिकार का प्रयोग करते हुए क्यों झिझकते हैं? क्या परेशानी है मतदान करने में? अब तो चुनाव आयोग ने मतदान को आसान बना दिया है। मतदाता के निकटतम स्थान पर मतदान केन्द्र बनाए जा रहे हैं। एक मतदान केन्द्र पर सीमित संख्या में ही मतदाता हैं जिससे मतदाताओं को अनावश्यक लंबी कतारों में खड़ा नहीं होना पड़े। मतदाता पर्चियों का वितरण किया जा रहा है ताकि केवल निर्वाचन विभाग द्वारा उपलब्ध कराई गई परची के आधार पर ही मतदान कर सके।

यदि अपनी पसंद का उम्मीद्वार नहीं है तो अब नोटा का विकल्प भी दे दिया गया है। इतना सब कुछ होने के बावजूद भी यदि मतदाता घर से निकल कर मतदान केन्द्र तक नहीं आता है तो इसे क्या कहा जाए? क्या यह नहीं माना जाना चाहिए कि मतदाताओं में उत्साह नहींं है। मतदाता मतदान के अधिकार का उपयोग करने के लिए उत्साहित नहीं है। लोकतंत्र में मताधिकार ही सबसे बड़ा अधिकार है। ऐसे में लगभग एक चौथाई मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं करते हैं तो यह निराशाजनक है। मतदान के आंकड़ों का यह संकेत भी उभर कर आ रहा है कि साक्षरता दर बढ़ने के बावजूद मतदान प्रतिशत नहीं बढ़ रहा है। अब तो युवा मतदाताओं की संख्या में इजाफा हुआ है।

यह भी माना जा रहा है कि युवा मतदाता चुनावों में आगे बढ़कर हिस्सा ले रहे हैं, ऐसे में कम मतदान होना मतदान के प्रति उदासिनता ही दर्शाता है। सरकार चुनने के लिए हमें पांच साल तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। समग्र प्रयास गुजरात चुनावों में मतदान के प्रतिशत को 90 फीसदी के पार पहुंचाने के प्रयास किए जाने चाहिए। चुनाव आयोग की इस बात की तारीफ की जानी चाहिए कि निष्पक्ष पर सहजता से मतदान के कारगर प्रयास किए जाने लगे हैं। अभियान चलाकर लोगों को मतदान के प्रति जागरुक किया जाता है। चुनाव व्यवस्था में सुधारों का सिलसिला जारी रखते हुए धन बल व बाहु बल को कम करने का प्रयास किए गए हैं। यह दूसरी बात है कि अभी इस दिशा में और काम किया जाना है।

-डॉ़ राजेन्द्र प्रसाद शर्मा