बाल श्रमिक समस्या भारत की नहीं विश्वभर की समस्या है। एक अनुमान के अनुसार विश्व में संभवत: 20 करोड़ बाल श्रमिक है। नेशनल सेंपल सर्वे के अनुसार भारत में 2 करोड़ बाल श्रमिक हैं जिसमें से 83 प्रतिशत कृषि क्षेत्र में हैं। 40 लाख श्रमिक जोखिम भरे उद्योगों में नियोजित हैं। वैसे तो भारत के संविधान में अनुच्छेद 24 यह प्रतिबंध करता है कि किसी भी बालक को जिसकी उम्र 14 वर्ष से कम है, उसे कारखाने, खदान अथवा जोखिम भरे उद्योगों में नियोेजित नहीं किया जा सकता। संविधान के उपरोक्त संरक्षण के उपरांत भी बाल श्रमिकों के नियोजन पर कोई नियंत्रण नहीं किया जा सका। इसलिए वर्ष 1986 में बाल श्रम (प्रतिशेध विनियमन) अधिनियम पारित किया गया।
भारत में बाल श्रम से कानूनों में बालक की परिभाषा अलग-अलग दी गई है जिसमें उम्र में भी भिन्नता है हालांकि अधिकतम 14 वर्ष कई कानूनों में किया जा चुका है फिर भी परिभाषा में एकरूपता नहीं है। बाल अधिनियम 1960 में बालक की परिभाषा यह है कि जिसने 16 वर्ष की आयु पूर्ण न की हो, इसी तरह बालिका है तो 18 वर्ष की आयु पूर्ण न की हो। बाल श्रम (प्रतिशेध एवं विनियमन) अधिनियम 1996 में धारा 3 में उन उद्योगों का हवाला दिया है जिसमें बाल श्रमिकों का नियोजन प्रतिबंधित है। जैसे रेलवे, कारपेट बीविंग, भवन निर्माण, आतिशबाजी, विस्फोटक, बीड़ी निर्माण, प्रिटिंग प्रेस, बिजली उद्योग, कपड़ा छपाई आदि। ऐसे उद्योगों में यदि बाल श्रमिक का नियोजन पाया जाता है तो अधिनियम की धारा 14-अ के अनुसार नियोक्ता, मालिक को 3 माह से एक वर्ष तक का कारावास एवं अधिकतम 20- हजार रुपए के दंड से दंडित किया जा सकता है। परंतु आज तक ऐसा कोई उदाहरण देखने को नहीं मिला है कि किसी नियोक्ता को सजा मिली हो।
यदि भारत के संदर्भ में बाल श्रमिकों के नियोजन की स्थिति को देखा जाए तो यह देखा जा सकता है कि बाल श्रमिक व नियोजन उसके परिवार की सामाजिक, आर्थिक स्थिति तथा गरीबी के कारण बढ़ता चला जा रहा है। आधुनिकीकरण उपभोक्ता संस्कृति, शहरीकरण की दौड़ में बाल श्रमिक एक ऐसा सस्ता औजार है, जिसके उपयोग से नियोक्ता, ठेकेदार, प्रतिष्ठान सस्ते श्रम पर अधिकतम लाभ प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं एवं बाल श्रमिकों का धड़ाधड़ नि:संकोच नियोजन कर रहे हैं। जिस पर प्रशासन का भी नियंत्रण नहीं है।
इसका प्रमाण श्रमायुक्त कार्यालयों के सामने न्यायालयों के सामने एवं प्रशासन के सामने ही हजारों बाल श्रमिक होटलों में, टेम्पो, मिनी बसों में, दुकानों में, गैरिज में तथा घरों में रात-दिन काम करते देखे जा सकते हैं। ऐसी स्थिति में बाल श्रमिकों का नियोजन समाप्त किया जाना संभव नहीं है। इसका उदाहरण इस तरह भी लिया जा सकता है कि योजना आयोग द्वारा ठेका, श्रम प्रथा को समाप्त करने की सिफारिश की थी जो कि उस समय संसद की मंशा के अनुरूप थी। परन्तु ठेका श्रम प्रथा को समाप्त नहीं किया गया एवं ठेका श्रम उत्पादन एवं विनियमन अधिनियम 1970 पारित किया गया जिसका उद्देश्य तो ठेका, श्रम प्रथा को समाप्त करना था परंतु यह दूषित व्यवस्था धड़ल्ले से चल रही है।
कोई भी माता-पिता, परिवार यह नहीं चाहता कि उसका बच्चा बालपन में ही मेहनत-मजदूरी करे, प्रत्येक मां-बाप के सपने एक जैसे होते हैं। परंतु गरीबी बेरोजगारी, अशिक्षा एवं महंगाई की मार ही मजबूर करती है कि एक बालक शिक्षा की बजाय परिवार की भरण पोषण के लिए पूरक आय का साधन बनता है। सरकार को बाल श्रम के संबंध में गंभीरता से सतर्कतापूर्वक विचार करना चाहिए। क्योंकि उग्रवादी एवं आतंकवादी संगठनों द्वारा 13-14 वर्ष तक के बच्चों को नौकरी व धन का लालच देकर गुमराह किया जा रहा है एवं आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त कराया जा रहा है।
लेखक जी.के. छिब्बर