विचार और साहित्य एक-दूसरे के पूरक होते हैं। विचार आत्मा है और साहित्य शरीर।विचार अपंग होता है तो साहित्य अंधा। विचार बीज है तो साहित्य हवा, पानी, खाद, दवा। यदि साहित्य और विचार को एक-दूसरे का सहारा न मिले तो अलग-अलग रहकर दोनों अपना महत्व खो देते हैं। दोनों के गुण भी बिल्कुल अलग-अलग होते हैं और प्रभाव भी।
विचार मक्खन रूपी तत्व होता है तो साहित्य मठा। विचार मस्तिष्क को प्रभावित करता है तो साहित्य हृदय को। विचार तर्क प्रधान होता है तो साहित्य कला प्रधान। विचारों का प्रभाव बहुत देर से शुरू होता है और देर तक रहता है तो साहित्य का प्रभाव तत्काल होता है और अल्पकालिक होता है। साहित्य विचारों की कब्र होता है। साहित्य विचारों को कब्र में पहुंचाकर लंबे समय तक के लिए सुरक्षित रखता है दूसरी ओर साहित्य विचारों को देश काल परिस्थिति के आधार पर होने वाले नये-नये संशोधनों से भी दूर कर देता है। विचार व्यक्ति के ज्ञान का विस्तार करता है तो साहित्य भावना का। दोनों का प्रभाव समाज पर अलग-अलग होता है।
विचारक चाहे जितना गंभीर निष्कर्ष निकाल ले किंतु जब तक उसे साहित्य का सहारा नहीं मिलता तब तक वह आगे नहीं बढ़ पाता। या तो वह वहीं पड़ा-पड़ा सड़ जाता है या साहित्य से संयोग की प्रतीक्षा करता रहता है। इसी तरह साहित्य को जब तक विचार न मिले तब तक वह निष्प्राण निष्प्रभावी प्रदर्शन मात्र करता रहता है। साहित्यकार और विचारक भी अलग ही होते हैं। न कोई विचारक साहित्य से शून्य होता है न कोई साहित्यकार विचार से। किंतु साहित्यकार और विचारक में कोई एक गुण प्रधान होता है और दूसरा आंशिक। प्रधान गुण ही उसे विचारक या साहित्यकार होने की पहचान दिलाता है। विचारक को अधिकतम सम्मान तथा न्यूनतम सुविधाएं मिलती हैं जबकि साहित्यकार को सामान्य सम्मान तथा सामान्य सुविधाएं।
विचारक आमतौर पर व्यावसायिक मार्ग में नहीं जा पाता जबकि साहित्यकार आमतौर पर व्यावसायिक दिशा में बढ़ता है। राम मनोहर लोहिया, मधुलिमये, दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहरी वाजपेयी आदि को भी हम आंशिक रूप से इस लाइन में जोड़ सकते हैं। यद्यपि इनमें मौलिक विचार के साथ-साथ कुछ साहित्यिक क्षमता भी थी। अन्य भी अनेक लोग विचारक के रूप में रहे किंतु उन्हें साहित्यकारों कलाकारों का सहारा नहीं मिलने से वे अप्रकाशित ही रहे। धीरे-धीरे स्थिति यह आई कि मौलिक चिंतन का अभाव हुआ और साहित्यकारों कलाकारों की बाढ़ आनी शुरू हुई।
साहित्यकार कलाकार कथाकार नाटककार ही स्वयं को विचारक घोषित करने लगे और समाज भी उन्हें विचारक मानने की भूल करने लगा। इन सबमें मौलिक चिंतन करने और निष्कर्ष निकालने की तो क्षमता थी नहीं और कला के माध्यम से विचार समाज तक पहुंचाना इनकी मजबूरी थी। अत: वास्तविक विचार और विचारकों के अभाव में इन सबने राजनेताओं के ही विचारों और निष्कर्षों को अपनी कला के माध्यम से समाज तक पहुंचाना शुरू कर दिया। विचार तो पूरी तरह स्वतंत्र होता है। न तो विचार कभी प्रतिबद्ध हो सकता है न होता है। प्रतिबद्धता की बीमारी वामपंथ से शुरू हुई।
साहित्य मीडिया, कला, राजनीति, समाज सेवा आदि की प्रतिबद्धता व्यावसायिक होने के साथ-साथ विकृत भी हुई किंतु विचारक और विचार इस बीमारी से अछूते रहे। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सरकारों से तो खतरा हमेशा ही रहा है किंतु अब तो संगठित गुण्डों से भी उसे खतरा बढ़ता जा रहा है। मैंने पश्चिम के देशों में तो सुना था कि किसी ने लीक से हटकर कुछ कह दिया तो उसे फांसी दे दी गई अथवा आज भी इस्लामिक देशों में तो यह व्यवस्था है जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है किंतु भारत में तो ऐसी स्थिति पिछले कुछ वर्षों से ही दिख रही है।
-लेखक बजरंग