पर्व-त्योहारों का हिन्दू दैनंदिनी में समय-समय पर दस्तक देना भारतीय समाज की प्रमुख विशेषता रही है। इन पर्व-त्योहारों में निहित संदेशों से इसकी महत्ता स्पष्ट होती है। पर्व-त्योहार, न सिर्फ व्यक्ति के जीवन में व्याप्त नीरसता को खत्म करते हैं, बल्कि परिवारजनों को एक साथ जोड़कर सदस्यों के बीच निहित प्रेम को प्रगाढ़ करने में भी महती भूमिका निभाते हैं। यही वजह है कि शैक्षिक, आर्थिक व अन्य कारणों से देश व परदेश के विभिन्न हिस्सों में अपने पैतृक स्थान से प्रवास किया व्यक्ति पर्व-त्योहार पर घर लौटने को व्याकुल नजर आता है।
बहरहाल, बदलते समय के साथ पर्व-त्योहारों को मनाने के तरीकों में भी बड़ा बदलाव आया है। बतौर उदाहरण, दिवाली को देखा जा सकता है। इसमें निहित शुचिता, स्वच्छता व मितव्ययिता की बातें दिन-ब-दिन गायब होती जा रही हैं। आज यह बस पटाखों की आतिशबाजी, प्रदूषण और फिजूलखर्ची तक ही सीमित रह गई है। यह पर्व स्वच्छता का प्रतीक भी है, इसलिए दिवाली से पूर्व हम अपने घर व आसपास की साफ-सफाई तो करते हैं, लेकिन दूसरे ही दिन पटाखों के फटे अंश हमारी मेहनत का सत्यानाश कर देते हैं। कानफाड़ू पटाखों से एक तरफ पूरा वायुमंडल धुंध से ढक जाता है, तो दूसरी तरफ उसकी गूंज और होने वाले प्रदूषण से बच्चे बीमार व बुजुर्गों को सांस लेने में तकलीफ होने लगती हैं। हर साल दिवाली पर केवल पटाखे जलाकर हम करोड़ों रुपये की संपत्ति अनावश्यक रूप से स्वाहा कर देते हैं।
इसके साथ ही, पटाखा उद्योगों अथवा दुकानों में अनहोनी की वजह से लगने वाली आग से जान-माल के नुकसान होने की घटनाएं भी आम हो जाती हैं। पटाखों के बेतहाशा प्रयोग से, लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण पर भी बड़े पैमाने पर असर पड़ता है। अब जबकि, देश के अधिकांश शहर प्रदूषण की भारी चपेट में है, तब दिवाली पर पटाखों के अति प्रयोग को रोकना समाज व प्रशासन के लिए बड़ी चुनौती बन जाती है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिल्ली में 31 अक्तूबर तक पटाखों की बिक्री पर प्रतिबंध का फैसला स्वागत योग्य है। यही फैसला देश भर में लागू किया जाना चाहिए।
बहरहाल, कुछ वर्ष पहले मनायी जाने वाली और अब की दिवाली में एक बड़ा फर्क नजर आया है। आज दिवाली बस नाममात्र की रह गई है। व्यक्तिगत व पेशेवर जीवन में व्याप्त तनाव व दबाव तथा समयाभाव इसकी वजहें हो सकती हैं। दूसरी तरफ, चंद वर्ष पहले तक दिवाली पर मिट्टी के दीये खरीदकर घर रोशन करने का लोगों में जबरदस्त क्रेज था। बकायदा इसकी तैयारियां कई दिनों पहले से होने लगती थीं। आवश्यकतानुसार लोग दीया वगैरह की एडवांस बुकिंग तक कर लेते थे।
उपभोक्ताओं के इस प्रयास से अनेक कुम्हार परिवारों की रोजी-रोटी का बंदोबस्त हो जाता था। लेकिन, आज इतनी जहमत कौन उठाना चाहता है? कथित रुप से यह जमाना शॉर्टकट का जो है। इसलिए, लोग दीये और मोमबत्ती की जगह बिजली के उपकरणों के इस्तेमाल को प्राथमिकता दे रहे हैं। क्या यह भारत जैसे गौरवशाली व परंपरावादी देश के हित में है? दीया निर्माण के व्यवसाय में लगे हजारों लोगों के पेट पर यह सीधा हमला ही तो है।
एक दौर था, जब दिवाली आते ही स्थानीय हाट और बाजार मिट्टी के दीये और संबंधित अन्य आवश्यक सामग्रियों से पट जाते थे। दिवाली के दिन मिट्टी के दीये में मिट्टी तेल या घी से भींगे कपड़े के कतरन से जलने वाली लौ सम्पूर्ण पृथ्वी को शुद्ध कर देती थी। इससे न सिर्फ गौरवशाली संस्कृति का आभास होता था, बल्कि बरसात के बाद पनपने वाले कीड़े-मकोड़ों का खात्मा भी हो जाता था। लेकिन, समय बीतने के साथ इसमें भी बड़ा परिवर्तन आया है।
नब्बे के दशक में अपनाई गई वैश्वीकरण की नीति के पश्चात भारतीय बाजारों में चाइनीज उत्पादों की भरमार हो गई है। बेशक, ये उत्पाद अपेक्षाकृत सस्ते, आकर्षक व टिकाऊ हैं, लेकिन भारतीय बाजारों में इसकी अनियंत्रित दखल से हमारे समाज के कुम्हार जातियों के लोगों की परंपरागत रोजगार पर खतरा मंडरा रहा है। पारंपरिक रुप से यह वर्ग सदियों से मिट्टी के बर्तन, खिलौने और नाना प्रकार की कलाकृतियां तथा उपयोगी वस्तुओं को बनाकर अपनी आजीविका का निर्वहन करते आया है।
बेकार पड़ी मृदा को अपनी कला से जीवंत रुप प्रदान करने वाले मूर्तिकारों और कुम्हारों का यह वर्ग उपेक्षित है। यह उपेक्षा, न सिर्फ सरकारी स्तर पर है, अपितु तथाकथित आधुनिकता को किसी भी कीमत पर अपनाने वाले नागरिकों द्वारा भी है। हमारे छोटे-से प्रयास से हजारों लोगों के रोजी-रोटी का इंतजाम करने में मदद मिल सकती है। जरुरत एक पहल करने भर की है। दिवाली पर हमारी यथासंभव कोशिश मिट्टी के दीये ही खरीदने की होनी चाहिए। दूसरी तरफ हम देखते हैं कि आज भी देश की एक बड़ी आबादी, अशिक्षित, कुपोषित व फटे पुराने कपड़े पर गुमनाम जिंदगी जीने को मजबूर है। ऐसी स्थिति में, पर्व-त्योहारों को हर्षोल्लास से मनाने का कोई औचित्य नहीं रह जाता। वास्तविकता यह है कि आज पर्व-त्योहार केवल अमीरों के लिए ही रह गए हैं। आर्थिक विपन्नता व महंगाई की वजह से गरीब लोगों का इन त्योहारों के प्रति रुझान कम हुआ है।
वहीं, आज देश में आर्थिक विषमता की खाई इतनी गहरी हो गयी है कि अमीर दिन-ब-दिन अमीर और गरीब, उसी अनुपात में गरीबी के दलदल में फंसते जा रहे है। फोर्ब्स पत्रिका द्वारा जारी इंडिया रिच लिस्ट-2017 के मुताबिक आर्थिक सुस्ती के बाद भी शीर्ष 100 अमीर लोगों की संपत्ति में 26 प्रतिशत इजाफा हुआ है। वहीं वैश्विक भुखमरी सूचकांक की 2017 की रिपोर्ट में भारत का सौवें पायदान पर होना यह जाहिर करता है कि यहां गरीबों की स्थिति ठीक नहीं है।
दरअसल, देश में गहराती आर्थिक विषमता की खाई को नहीं भरा जाएगा, तब तक पर्व-त्योहारों का आनंद देश के सभी लोग नहीं उठा पाएंगे। कितनी विडंबना है कि ‘धनतेरस’ पर जब देश में आर्थिक रुप से संपन्न लोग महंगी वस्तुएं खरीदने में व्यस्त रहते हैं, तब हमारे समाज का एक तबका दो जून की रोटी के लिए भटकता नजर आता है। दिवाली पर जब संपन्न परिवारों के बच्चे नए कपड़े पहन कर आतिशबाजी करते हैं, तब निम्न आय वर्ग के बच्चे फटे-पुराने कपड़ों में किसी कारणवश ना जलने वाले पटाखों को चुनकर उसे दोबारा जलाने की जुगत में रहते हैं। पैसे की कमी, गरीबों की खुशी के मार्ग में बाधक है। लोगों को उचित शिक्षा व रोजगार के अवसर मिले, तो समाज में व्याप्त आर्थिक भेदभाव को बहुत हद तक कम किया जा सकता है।
दीपावली दीपों का पर्व है। हर्षोल्लास का पर्व है। अंधकार पर प्रकाश के विजय का प्रतीक यह पर्व खास संदेश देता है। जब, व्यक्ति के जीवन में निराशा का घना अंधकार छा जाता है, तब आशाओं का एक दीपक अंधकार को चीरता हुआ प्रकट होता है। जब रातें, अपनी काली परछाई से संपूर्ण पृथ्वी को ढंक लेती है, तब तड़के उसे भगाने के लिए सूरज का प्रकाश चला आता है।
जलने वाली मोमबत्ती या दीये का प्रकाश, उस उम्मीद का प्रतिनिधित्व करता है, जो सारी रात बिना रुके दरिद्र के प्रतीक अंधकार को आस-पास भटकने नहीं देतीं। उसी तरह, हमें भी जीवन में हमेशा आशावादी होना चाहिए। मुश्किलों और दुश्वारियों पर रोने की बजाय उनका हल ढूंढने की कोशिश करनी चाहिए। दीपावली के दिन हम जरुरतमंदों की सहायता, बेसहारों का सहारा तथा गिरे हुए को उठाने का पुणित कार्य कर सकते हैं। आइए पटाका रहित, स्वच्छ और पर्यावरण-अनुकूल दिवाली मनाने का संकल्प लें। हमारे इसी प्रयास से, इस पर्व की सार्थकता बनी रहेगी।
-सुधीर कुमार