संसार का स्वरूप भले ही जनमानस की आंखों से उतरकर उसके अन्त:करण तक अपनी उपस्थिति का भान कराने में समर्थ हो, मगर इस स्वरूप का विश्लेषणात्मक एवं व्यापक विवेचन विचारों के माध्यम से ही संभव है। विचार सदैव स्मरण के आधार पर स्थायी बने रहे, ऐसा कदाचित संभव नहीं है। विचारों को स्थायित्व प्रदान करने के लिए पहले भाषा का विकास किया गया तदुपरान्त उसकी विशिष्ट अभिव्यक्ति के लिए लिपि का विकास किया गया। लिपि के माध्यम से विचारों को संकलित व संग्रहित किया गया, जिसका सर्वाधिक सशक्त माध्यम पुस्तकें बनीं। इतिहास साक्षी है कि पुस्तकें समाज के स्वरूप को समय-समय पर व्यक्त करती रही हैं। सामाजिक व्यवस्थाएं एवं व्यवस्थाओं में निरन्तर हो रहे बदलावों का प्रामाणिक दस्तावेज पुस्तकें ही सिद्ध होती रही हैं। समाज की गतिशीलता में पुस्तकें ही दिशानायक की सी भूमिका का निर्वाह करती रही हैं, साथ ही जीवन से जुड़े प्रत्येक क्षेत्र में अपनी विशिष्टता का अहसास भी पुस्तकें ही कराती रही हैं।
पुस्तकों की महत्ता का यदि विश्लेषणात्मक ढंग से अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट होता है कि चाहे प्रौद्योगिकी का क्षेत्र हो अथवा चिकित्सा का, साहित्य का भावपक्ष हो अथवा कला पक्ष, प्रत्येक क्षेत्र में पुस्तकों ने अपनी महत्ता सिद्ध की है तथा सृष्टि के समूचे ज्ञान की अपने पृष्ठों में समेटकर जनमानस के सम्मुख प्रस्तुत किया है। नित्य सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में हो रहे बदलावों के निष्कर्ष पुस्तकों के माध्यम से समाज को दिशा देने का माध्यम सिद्ध हुए हैं। इतिहास एवं परम्पराओं में सुधारात्मक परिवर्तन संभव हुए हैं। समय जिस द्रुतगति से पंख लगाकर उड़ रहा है, उसका मापन भले ही वैज्ञानिक यंत्रों के माध्यम से संभव हुआ हो, मगर मापन का प्रामाणिक आधार पुस्तकें ही बनी हैं। ज्ञान के स्थायी कोष के रूप में विचारों का भंडारण, विश्लेषण, परिभाषीकरण सभी कुछ पुस्तकों के माध्यम से ही संभव हुआ है। सर्वविदित है कि विश्व में जितने भी परिवर्तन हुए हैं, सभी की प्रेरणास्रोत पुस्तकें ही बनी हैं।
आज कम्प्यूटर युग में भले ही विचारों के संग्रहण में कम्प्यूटर की भूमिका प्रभावी होती जा रही हो, मगर अति विशिष्ट तकनीक के आधार पर भी आधुनिक संयंत्रों में ज्ञान के स्थायी कोष की संभावना संदिग्ध प्रतीत होती है। तकनीकी खराबी के कारण कम्प्यूटर की स्थिति भी कई बार दयनीय प्रतीत होती है, जिससे विचारों के स्थायी संकलन के प्रति कई बार सन्तोषजनक परिणाम नहीं निकलते, इसके विपरीत नई तकनीकों के आधार पर किए जा रहे मुद्रण से पुस्तकों की गुणवत्ता अपनी उत्कृष्टता प्रमाणित करती जा रही है। नि:संदेह पुस्तकें तुलना की परिधि से इतर हैं, इनमें समाहित स्थायी ज्ञान लम्बे समय तक विश्व में संग्रहित एवं संरक्षित रखा जा सकता है, जिनकी उपलब्धता भी सहज होती है। विश्व स्तरीय साहित्य जनमानस को पुस्तकों के रूप में ही उपलब्ध है, जिसके आधार पर मानव मात्र अपनी विशिष्ट प्रतिभा के बल पर विश्व में अपनी सिरमौर स्थिति बना चुका है तथा विश्व मानव की संज्ञा पा चुका है। जितने भी प्रयोग ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में हो रहे हैं, सभी का आधार पुस्तकें बनी हैं। सहज अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम भी पुस्तकें ही हैं।
समाज की दिशावाहक पुस्तकों की महिमा का यदि विस्तारपूर्वक विवेचन किया जाए तो अनेक पुस्तकों की रचना की जा सकती है तथापि पुस्तक की महत्ता स्वयं सत्यापित है। जितनी बार पुस्तकों का अध्ययन किया जाता है, उतनी बार ही पुस्तकों में व्यक्त विचारों के नवप्रयोग प्रकाश में आते हैं। जनमानस को दिशा प्रदान करने के साथ- साथ पुस्तकें अपने पाठकों के दृष्टिकोण को तर्कसंगत बनाती हैं। पाठकों को चिन्तन का विस्तृत आकार प्रदान करती हैं। जिससे यही निष्कर्ष निकलता है कि विचारजन्य भौतिक सृष्टि में यदि कहीं गतिशीलता के लक्षण प्रमाणित होते हैं, तो गतिशीलता के प्रत्येक सोपान की अभिव्यक्ति पुस्तकों के माध्यम से ही संभव है।
-डॉ. सुधाकर आशावादी