देश की आधा दर्जन सरकारों द्वारा किसानों के कर्ज माफी के दावे व अपनी-अपनी पीठ थपथपाने का रूझान हैरानी भरा है। दरअसल यह बात सरकारों की न तो कोई उपलब्धि है और न ही किसी मामले के हल की समझ है। मामला सुलझाना तो दूर की बात है। दरअसल कर्ज माफी के ऐलान वोटों से जुड़ गए हैं। पंजाब की कांग्रेस सरकार ने चुनाव इस वायदे को लेकर लड़ा थी कि किसानों का कर्ज माफ करेंगे।
सरकार बनने पर कांग्रेस ने अपना किया वायदा निभाने की तरफ कदम उठाया और 2 लाख रुपए तक का कर्ज माफ करने का ऐलान कर दिया। इस तरह पंजाब देश का सबसे अधिक कर्ज माफी करने वाला राज्य बन गया। पंजाब सरकार के इस ऐलान पर अमली जामा पहनाना अभी बाकी है।
लेकिन सच्चाई यही है कि चाहे पंजाब सरकार इस वायद को पूरा क्यों न कर दे, लेकिन यह कोई कृषि संकट का हल नहीं है। यह तो चुनावों में वोट हासिल करने का वायदा ही पूरा करना है। दरअसल कृषि संकट के हल के लिए कृषि नीतियों में बदलाव जरूरी है, जिस संबंधी सरकारें न तो गंभीर हैं और न ही चिंताजनक।
किसानों से हमदर्दी रखने वाला देश का हर अर्थशास्त्री कर्ज माफी के हक में नहीं है। अर्थशास्त्री कृषि नीतियों में सुधार की सलाह देते हैं, ताकि किसान की आमदन बढ़े और वह अपना कर्ज वापिस कर सके। देश के प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक सरदारा सिंह जौहल का दावा है कि कर्ज तो किसान को लेना ही पड़ता है।
उनकी दलील है कि इस संंबंधी नीति बनाने की जरूरत है कि किसान को कर्ज कितना व कैसे दिया जाए, ताकि वह समय रहते कर्ज वापिस कर सके। जौहल ने सरकारों पर करारी चोट करते कहा कि सरकारें कृषि विशेषज्ञों की सुनती ही नहीं है और न ही उन्हें कृषि विशेषज्ञों की जरूरत है। बिना किसी संदेह जौहल की बातें सिर्फ दमदार ही नहीं, हकीकत हैं।
राजनीतिक पार्टियां अपनी नीतियां वोट बैंक को मुख्य रखकर बनाती हैं। कृषि संबंधी फैसला वह राजनेता लेते हैं, जिन्हें न तो कृषि संकट की इतनी समझ होती है और न ही इसके हल की चिंता होती है। यह तो वही बात हुई ‘दर्द घुटनों में, दवा पेट दर्द की’। राजनेता हर मामले के विशेषज्ञ बनने की बजाए, कृषि संकट का हल कृषि विशेषज्ञों से पूछने व कृषि नीतियां उनकी सलाह से बनाएं। कृषि के संकट को अर्थ शास्त्र की दृष्टि से व कृषि के हालातों की समझ से ही हल किया जा सकता है।