उपराष्ट्रपति के बतौर संवैधानिक पद पर बैठे हामिद अंसारी के एक बयान ने एक संवेदनशील मुद्दे पर बहस छेड़ दी है। सामान्य तौर पर यह माना जाता है कि संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति की सीमाएं तय होती हैं। संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति के लिए देश के सभी नागरिक समान होते हैं। उसकी हर एक बात समाज को जोड़ने वाली होनी चाहिए, न कि समाज को विखंडित करने वाली।
ऐसे में हामिद अंसारी का यह कहना कि देश के मुसलमानों में बेचैनी का अहसास और असुरक्षा की भावना है, कितना तर्कसंगत माना जा सकता है। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद देश का माहौल बदल गया है। अंसारी ने मुस्लिमों का हमदर्द बनकर यह साबित कर दिया है कि वे संकीर्ण भावनाओं से उबर नहीं सके हैं, भले ही संवैधानिक पद पर लंबे समय तक बैठे रहे हों या फिर इसी देश ने उन्हें ताउम्र इज्जत से जीने का पूरा मौका दिया है।
यदि हामिद अंसारी को मुसलमानों की इतनी ही चिंता है, तो उन्हें उसी समय उपराष्ट्रपति के पद से इस्तीफा दे देना चाहिए था, जब नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने थे। आखिर हामिद अंसारी को गुजरात के मुसलमानों की पीड़ा भी तो याद आई होगी या नहीं। या फिर उस समय तक उनके सब्र का बांध टूट नहीं पाया था? मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद अचानक ऐसा क्या हुआ कि हामिद अंसारी का दिल टूटकर बिखर गया।
बहस का दौर शुरू होता है, तो न कोई जीतता है और न ही कोई हारता है। खासतौर से यहां बात सामुदायिक हितों पर बहस की हो रही है। ऐसी बहसों से विद्वेष की भावना बढ़ती है और समाज में दो समुदायों के बीच घृणा का दौर नए सिरे से शुरू हो जाता है। तो क्या संवैधानिक पद पर बैठे हुए अंसारी को यह अहसास नहीं है कि उनके बयान से समाज में क्या हलचल पैदा होगी और उसके कितने प्रतिकूल परिणाम होंगे?
बात जब मुस्लिम सुरक्षा की होती है तो भाजपा में पदोें पर आसीन मुसलमान चाहे नजमा हेपतुल्ला हों, मुख्तार अब्बास नकवी हों या फिर शाहनवाज हुसैन सहित सैकड़ों अन्य नेता हों, यही कहते नजर आते हैं कि यदि पूरी दुनिया में मुसलमान सबसे ज्यादा सुरक्षा के भाव में जीता है तो वह हिन्दुस्तान में। चाहे पड़ोसी देश पाकिस्तान पर नजर डाली जाए या फिर ईरान, इराक, अफगानिस्तान, सीरिया, लेबनान और सैकड़ों अन्य मुस्लिम बाहुल्य देशों पर, चारों तरफ हाहाकार मचा है। मुसलमान, मुसलमानों का ही खून बहा रहे हैं।
कहीं निर्दोष नागरिकों की बलि चढ़ाई जा रही है तो कहीं अल्लाह की इबादत करते मुसलमानों पर गोलियां बरसाई जा रही है। क्या हामिद अंसारी को मुस्लिम बाहुल्य उन देशों में मुसलमान महफूज नजर आ रहे हैं? या फिर हामिद अंसारी रिटायर होने से पहले एक बार फिर जमात में बैठने की खातिर इस तरह का बयान सुनियोजित तरीके से देने को मजबूर हैं?
कुछ भी हो संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती। यदि वे कहते हैं कि सरकार और मुसलमानों के बीच भरोसे में कमी आई है तो इसका सीधा सा मतलब है कि भाजपा और मुसलमानों के बीच भरोसा कम हुआ है। यह कितनी हास्यास्पद बात है। जिन मुसलमानों का भाजपा पर भरोसा था, वे गिने-चुने मुट्ठी भर मुसलमान पहले भी भजपा सरकारों पर भरोसा करते आए हैं और अब भी कर रहे हैं।
बहुसंख्यक मुसलमानों ने न कभी पहले भरोसा किया और न अब कर रहे हैं। यदि हामिद अंसारी तथ्यों के साथ यह आरोप लगाते कि केंद्र की भाजपा सरकारों ने मुसलमानों के साथ भेदभाव किया है, तब उनकी इज्जत मुसलमानों के साथ आम आदमी की नजर में भी बढ़ती, लेकिन तथ्यविहीन ऐसे बयान ने कहीं न कहीं हामिद के कद को कमतर ही किया है और संवैधानिक पद पर रहते हुए ऐसे बयान ने उनकी शख्सियत का मजाक ही बनाया है। ऐसे में अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने विदाई भाषण में उन्हें उनकी छटपटाहट याद दिला दी तो क्या गलत किया?
-गणेश शंकर भगवती
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