संतुलन दुनिया के तमाम तत्वों, व्यक्तियों, स्थलों और परिस्थितियों के लिए नितान्त जरूरी है तभी सभी अपने अस्तित्व और गुणवत्ता को बरकरार रख सकते हैं। इसी प्रकार इंसान के मन-मस्तिष्क और शरीर में संतुलन जरूरी है। पुरुषार्थ चतुष्टय के चार पायों धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हैं और इनमें भी आनुपातिक संतुलन बने रहना जरूरी है। सृष्टि के पंच तत्वों की बात हो या फिर किसी भी ग्रह-नक्षत्र, तारों और आकाशगंगाओं की, सभी अपनी-अपनी धुरी पर निरन्तर चलायमान रहें, अपने कर्म करते रहें, इसके लिए यह जरूरी है कि इनकी शक्तियों और प्रवाह में आवश्यक संतुलन हर क्षण बना रहे।
इंसान के लिए जितना बैठकर काम करना जरूरी है उतना चलना भी जरूरी है। जो लोग बैठे ही बैठे रहते हैं, अपनी कुर्सियों और व्हीलचेयर्स में धँसे ही रहते हैं उन लोगों को भी चलना-फिरना, हिलना-डुलना जरूरी है और जो लोग चलते-फिरते और शारीरिक परिश्रम के काम करते हैं उन लोगों के लिए विश्राम जरूरी है।
सृष्टि का हर तत्व जड़ और जीवन्त के चक्र से होकर गुजरता रहता है। जो आज स्थिर है वह कल चलायमान दिखेगा, जो आज चलायमान है वह कल जड़ भी हो सकता है। केवल इंसानों की ही बात करें तो हर व्यक्ति के लिए यह जरूरी है कि वह अपने दिल-दिमाग को भी चलाए और शरीर को भी। इनके संचालन की आनुपातिक निरन्तरता होने पर ही व्यक्ति स्वस्थ और मस्त रह सकता है।
एक जगह बैठे-बैठे केवल दिमाग ही चलता रहे, दिल की लहरें उठती रहें और शरीर स्थिर पड़ा रहे, जरा भी हिलने-डुलने की आदत खत्म हो जाए, उस स्थिति में दिमागी काम तो हो सकते हैं लेकिन शरीर अपनी जीवन्तता को एक समय तक बनाए रखने की हरचन्द कोशिश करता है, लेकिन कालान्तर में एक स्थिति ऐसी आती है कि शरीर मन की भावनाओं और मस्तिष्क के आदेशों का अक्षरश: पालन करना छोड़ देता है और उन्मुक्त हो उठता है।
यह वह अवस्था होती है जब हमें लगता है कि हमारा शरीर अपने आप को बोझ मानने लगा है और अब इसका कोई उपयोग अपनी संकल्प शक्ति से कर पाना मुश्किल है।
उसी तरह शारीरिक श्रम करने वाले लोग चाहे दिन-रात कितना ही श्रम कर लें, लेकिन आत्मसंतुष्टि उन्हें तभी प्राप्त हो पाती है जब वे विश्राम या मानसिक आनंद पाने के मूड़ में होते हैं और मानसिक थकान उतारने के जतन में लगे हुए हों।
मानसिक और शारीरिक संतुलन हर अवस्था में जरूरी होता है। एक सामान्य इंसान के लिए मानसिक और शारीरिक श्रम का औसत अनुपात बना रहता है लेकिन आधिक्य की स्थिति में यह संतुलन गड़बड़ा जाता है। जो लोग जितना अधिक मानसिक परिश्रम करते हैं उन्हें रिलेक्स होने के लिए उतने ही अधिक अनुपात में शारीरिक आनंद और सुकून की आवश्यकता पड़ती है और यही कारण है कि प्रकृति के करीब जाकर इन्हें आनंद और सुकून की प्राप्ति होती है।
यदि यह शैथिल्य, रिलेक्सेशन और आनंद प्राप्त न हो पाए तो ये लोग चिड़चिड़े, क्रोधी और अन्त में उन्मादी अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं जो इनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व के लिए हमेशा आत्मघाती सिद्ध होता है। इसलिए जीवन में हमेशा मानसिक और शारीरिक संतुलन के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।
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