सरकार से बाहर होने के बाद लालू प्रसाद यादव ने जिस तरह से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खिलाफ आरोपों की झड़ी लगा दी है, उससे लालू की अवसरवादिता और बौखलाहट का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। लालू ने नीतिश कुमार के खिलाफ सन् 1991 के सीताराम हत्याकांड मुद्दे को हवा दी, जिसके बाद लालू खुद ही सवालों के घेरे में आ गए हैं।
उन्हें यह हत्याकांड तब याद आया जब नीतीश कुमार ने उन्हें सरकार से बाहर कर दिया। यदि नीतीश दोषी हैं तो लालू और भी बड़े दोषी बन जाएंगे, जिन्होंने एक संगीन मामले के आरोपी को राज्य का मुख्यमंत्री बनाया। जनता दल (यू) दूसरे नंबर की पार्टी थी। इसके बावजूद लालू ने नीतीश कुमार को राज्य की कमान सौंपते वक्त केवल एक ही निशाना मुख्य रखा कि किसी भी तरह भाजपा को सत्ता से दूर रखा जाए।
सत्ता के लोभ व विरोधी पार्टी को सबक सिखाने के लिए लालू ने नीतीश की अपराधिक पृष्ठ भूमि (लालू के अनुसार) भी कोई ध्यान नहीं रखा। आमतौर पर जब कोई नेता पार्टी बदले तो उसकी पैतृक पार्टी उसे भ्रष्ट कहने लगती है, लेकिन लालू ने तो इस मामले में छक्का ही मार दिया है। लालू प्रसाद के लिए बेहतर होगा कि अब वह फिजूल की बातें करने की बजाय अपना राजनैतिक आधार मजबूत बनाने के लिए जनता के बीच जाएं और जनसेवा करें।
जहां तक रणनीति का सवाल है, नीतीश कुमार अपनी पार्टी से भी बड़े नेता साबित हुए हैं। रणनीति में नीतीश ने लालू को बुरी तरह पटकनी दी है। नीतीश के इस्तीफे को कई महीने पहले तय होने का दावा करने वाले लालू कोई सुरक्षात्मक रणनीति बनाने में नाकाम रहे। अब वह हमलावर नीति अपना रहे हैं जो किसी भी तरह सफल होती नहीं दिख रही। नीतीश कुमार के पास पूर्ण बहुमत है।
राष्ट्रीय जनता दल के नेताओं को चाहिए कि वे विपक्ष की जिम्मेदारी पूरी तन्मयता से निभाएं। यह बात संतोषजनक है कि राज्य में राष्ट्रपति शासन लगने के हालात नहीं बने और दोबारा लोकतांत्रिक सरकार बन गई। सत्तापक्ष व विपक्ष दोनों अब राजनीति करने की बजाय, राज्य की बेहतरी के लिए मिलकर काम करें। सरकार को गिराने के पारंपरिक रुझान को छोड़कर मुद्दों की राजनीति ही बिहार के हित में है।
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