रामनाथ कोविन्द देश के 14वें नए राष्ट्रपति चुन लिए गए हैं। वह एक दलित के बेटे हैं, जो सर्वोच्च संवैधानिक पद पर पहुंचने की दूसरी घटना है, जिससे भारत के लोकतंत्र को नयी ताकत मिलेगी। दुनिया के साथ-साथ भारत भी तेजी से बदल रहा है।
सर्वव्यापी उथल-पुथल में नयी राजनीतिक दृष्टि, नया राजनीतिक परिवेश आकार ले रहा है। इस दौर में श्री कोविन्द के राष्ट्रपति बनने से न केवल इस सर्वोच्च संवैधानिक पद की गरिमा को नया कीर्तिमान प्राप्त होगा, बल्कि राष्ट्रीय अस्तित्व एवं अस्मिता भी मजबूत होगी।
क्योंकि उनकी छवि एक सुलझे हुए कानूनविद, लोकतांत्रिक परंपराओं के जानकार और मृदुभाषी राजनेता की रही है। उम्मीद है कि देश के संवैधानिक प्रमुख के रूप में उनकी मौजूदगी हर भारतवासी को उसके शांत और सुरक्षित जीवन के लिए आश्वस्त करेगी।
कोविंद की शानदार एवं ऐतिहासिक जीत का श्रेय प्रधानमंत्री मोदी एवं भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की रणनीति को जाता है कि भाजपा ने इस चुनाव को बड़ी गंभीरता से लड़ा और इस क्रम में न सिर्फ कई विपक्षी दलों को अपने पक्ष में किया, बल्कि कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस जैसी धुर बीजेपी विरोधी पार्टियों से रामनाथ कोविंद के पक्ष में कुछ क्रॉस वोटिंग कराने में भी सफलता प्राप्त की।
दूसरी ओर बीजेपी के नेतृत्व ने रणनीतिक सूझ-बूझ का परिचय देते हुए जातिगत रूप से पिछड़े पृष्ठभूमि से आए व्यक्ति को प्रधानमंत्री और दलित पृष्ठभूमि से आए व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाकर वर्षों से कायम दलित-पिछड़ा उभार का अर्थ बदल दिया है।
इसे वह सामाजिक समरसता का नाम देती आई है, लेकिन अभी तो समाज में समरसता दिखने के बजाय लगभग रोज ही देशभर में कहीं न कहीं से दलितों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा की खबरें आ रही हैं। एक दलित राजनेता के राष्ट्रपति बनने के बाद दलित एवं पिछड़े वर्ग के साथ न्याय होना चाहिए।
यह कहना गलत है कि भारत में राष्ट्रपति केवल एक प्रतीकात्मक महत्व वाला पद है। दलित पृष्ठभूमि से आए राष्ट्रपति के आर नारायण ने 2002 में गुजरात की सांप्रदायिक हिंसा पर सख्त रुख अपनाकर वहां की तत्कालीन राज्य सरकार को कुछ मामलों में अपना रुख बदलने को मजबूर किया था,
जबकि पिछड़ा पृष्ठभूमि से आए राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने प्रचंड बहुमत के नशे में चूर राजीव गांधी सरकार को कई मुद्दों पर पसीने छुड़ा दिए थे। पूरा विश्वास है कि राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के बाद रामनाथ कोविंद भी वैसी ही दृढ़ता प्रदर्शित करेंगे और अपने कार्यकाल को देश के लिए यादगार बना देंगे,
जो आतंक से मुक्त हो, घोटालों से मुक्त हो, महंगाई से मुक्त हो, साम्प्रदायिकता मुक्त हो, जिसमें दलित, आदिवासी एवं पिछड़े वर्ग को जीने की एक समतामूलक एवं निष्पक्ष जीवनशैली मिले।
इसमें कोई दो राय नहीं कि कोविन्द एक साधारण राजनीतिज्ञ रहे हैं, मगर भारत का यह इतिहास रहा है कि साधारण लोगों ने ही ‘असाधारण’ कार्य किये हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि श्री कोविन्द ऐसे समय में वर्तमान राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी का स्थान ग्रहण कर रहे हैं,
जिन्हें मौजूदा दौर का स्टेट्समैन (राजनेता) माना जाता है और भारत को महान बनाने में जिनके खाते में अनेक उपलब्धियां भरी पड़ी हैं। इस दृष्टि से कोविंद को एक समृद्ध एवं शक्तिशाली विरासत को आगे बढ़ाना है।
देश के जितने भी राष्ट्रपति रहे हैं, वे उच्चकोटि के राजनीतिज्ञ रहे। पूरा देश उनकी बौद्धिकता और राजनीतिक दूरदृष्टि का कायल रहा है। इस पद पर चुने जाने के बाद कई राजनीतिक हस्तियों ने विशुद्ध और तटस्थ भाव से अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन किया और देश के लिये महत्वपूर्ण फैसले किये।
गैर राजनीतिज्ञ डॉ. अब्दुल कलाम ने भी यह पद संभाला और उन्हें राजनीतिज्ञों के साथ काम करने में कोई दिक्कत नहीं हुई और वे भी सफल राष्ट्रपति के रूप में स्थापित हुए। मिसाइलमैन के साथ-साथ अहिंसक समाज रचना के रूप में उन्हें राष्ट्र में काफी सम्मान प्राप्त हुआ है।
इसलिये किसी भी व्यक्ति का राजनीतिज्ञ या गैर-राजनीतिज्ञ होना उतना अर्थ नहीं रखता जितना सर्वोच्च पद की मयार्दाओं का पालन करना और दूरदृष्टि से काम लेना।
इसके अलावा कोविन्द ऐसे समय में राष्ट्रपति बने हैं, जब एक ओर भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पूरी ऊर्जा, सूझबूझ एवं दूरदर्शिता से नया भारत निर्मित करने के लिये संकल्पित हैं, वहीं दूसरी ओर कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक भारतवासियों में असुरक्षा की भावना भी घर करती जा रही है।
राजनैतिक विमर्श को मजहबी दायरे में कैद करके देखने को समयोचित समझा जाने लगा है। नया भाषा विवाद जन्म ले रहा है, जिससे उत्तर और दक्षिण भारत के बीच विरोध बढ़ रहा है। दिग्भ्रमित विपक्ष स्वयं ही अन्तर्विरोधों से जूझ रहा है और पूरे राजनैतिक माहौल को विवादास्पद एवं समस्याग्रस्त बनाने पर आमादा दिखाई पड़ता है।
जिस तरह राज्यसभा में समाजवादी पार्टी के सदस्य नरेश अग्रवाल ने गौरक्षा के नाम पर की जा रही हत्याओं के मुद्दे पर चल रही बहस में हिन्दू देवी-देवताओं को शराब के विभिन्न नामों से जोड़कर प्रस्तुत किया, उससे जहां संसद के उच्च सदन की गरिमा धुंधली हुई है,
वहीं साम्प्रदायिक विद्वेष की आग को जानबूझकर हवा दी जा रही है। इस दृष्टि ने कोविंद की भूमिका न केवल महत्वपूर्ण है, बल्कि निर्णायक भी है। हमारा राष्ट्र एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, धर्म-निरपेक्ष, समाजवादी गणराज्य है। यह लोकतंत्र की परिभाषा है। सही मायनों में हमारा लोकतंत्र कितनी ही कंटीली झाड़ियों में फंसा पड़ा है। लोकतंत्र के सबसे बड़े मंच संसद और विधायिकाएं हैं।
आज जनता की बुनियादी समस्याओं का हल एवं उसकी खुशहाली का रास्ता संसदीय गलियारों से होकर नहीं जाता, तो यह लोकतंत्र की सबसे बड़ी विफलता है। प्रतिदिन आभास होता है कि अगर इन कांटों के बीच कोई पगडण्डी नहीं निकली तो लोकतंत्र का चलना दूभर हो जाएगा।
भारत विविधता एवं सांझा संस्कृति का देश है, जिसमें गरीबों को उनका हक कानूनी तौर पर मिलता है, किसी शासक की मेहरबानी से नहीं। यह हक न तो जाति देखकर दिया जाता है न धर्म देख कर, जो भी सरकार बनती है वह सवा सौ करोड़ भारतीयों की बनती है और इसका धर्म सिर्फ संविधान होता है।
इसी की रक्षा के लिए भारत का राष्ट्रपति होता है, क्योंकि उसके फरमान से ही लोगों की चुनी हुई सबसे बड़ी संस्था ‘संसद’ उठती और बैठती है। अत: श्री कोविन्द के ऊपर यह भार डालकर देश आश्वस्त होना चाहता है कि संविधान का शासन अरुणाचल प्रदेश से लेकर प. बंगाल तक में निर्बाध रूप से चलेगा और देश की सीमाएं पूरी तरह सुरक्षित रहेंगी, क्योंकि राष्ट्रपति ही सेनाओं के सुप्रीम कमांडर होते हैं।
मोदी एवं कोविंद जैसे कद्दावर छवि के नेता आते हैं और अच्छाई-बुराई के बीच भेदरेखा खींच लोगों को मार्ग दिखाते हैं तथा विश्वास दिलाते हैं कि वे बहुत कुछ बदल रहे हैं तो लोग उन्हें सिर माथे पर लगा लेते हैं। सचमुच उन्हें तिलक करने का मन करता है।
-ललित गर्ग
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