विश्व के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश हिन्दुस्तान के चार स्तंभों में से एक मीडिया को माना गया है। जनता और सरकार के बीच की कड़ी के रूप में कार्य करने वाली मीडिया अब अपने पथ से विमुख होती जा रही है। आम जनता के लिए बेहद ही भरोसे का यह स्तंभ आज चापलूसी एवं अराजकता को बढ़ाने में अपनी अहम् भूमिका निभा रहा है।
आजादी से पूर्व पत्रकारों ने अंग्रेजों के खिलाफ जिस तरह से एक पत्रकारिता का दायित्व निभाया, उस तरह से आज दायित्व निभाने वाले पत्रकार उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। मैंने कहीं पढ़ा था कि अंग्रेजी हुकूमत के समय एक अखबार के मालिक ने विज्ञापन छापा कि उसे अखबार के लिए संवाददाताओं की आवश्यकता है, जिसमें मेहनताने के रूप में लिखा था कि दो सूखी रोटी, दाल एवं अंग्रेजी हुकूमत के डंडे मिलेंगे।
एक पत्रकार होने के नाते यह जानकार बड़ी प्रसन्नता हुई कि उस दौरान आवेदन करने वाले देशभक्त पत्रकारों की उस समाचार पत्र के सामने कतारें लग गई थी। जंग-ए-आजादी में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे परमवीर चंद्रशेखर आजाद, लाला लाजपतराय, शहीदे आजम भगतसिंह एवं दुर्गा भाभी सहित अनेकों देशभक्तों ने उस समय अपनी कलम से भी आजादी की लड़ाई लड़ी थी।
आजादी के बाद स्वतंत्र एवं निर्भीक पत्रकारिता का चलन बदस्तूर जारी रहा। समाचार पत्रों ने देश के आम नागरिक को सरकार से जोड़े रखा। 90 के दशक तक पत्रकारों ने सरकार एवं प्रशासन को चेताकर रखा कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की तीसरी आंख उनके हर कार्यों पर पैनी नजर रखे हुए है। फलस्वरूप पत्रकारिता का चमकता सितारा उज्ज्वल होता रहा।
लेकिन इसके बाद जैसे ही इलैक्ट्रोनिक मीडिया (निजी) ने मार्किट में कदम रखा, मानो पत्रकारिता एवं आम जनमानस की उम्मीद को ग्रहण-सा लगता चला गया। टीआरपी की प्रतिस्पर्द्धा में इलेक्ट्रोनिक मीडिया यह भूलता चला गया कि वह दबे-कुचले एवं अन्याय से पीड़ित किसी की उम्मीद भरी निगाह भी है।
अभी हाल ही में हरियाणा के फरीदाबाद जिले के एक मुस्लिम लड़के जुनैद की गैर-इरादतन की गई हत्या को मीडिया ने इस कद्र उछाला कि देश-विदेश में मुख्य रूप से देखे जाने वाले समाचार चैनलों की यह खबर हैडिंग बन गई।
बिना किसी जांच पड़ताल या तथ्यों के मीडिया पलभर में किसी को भी शहीद या आतंकवादी की उपमा दे देती है। जुनैद की हत्या ट्रेन की एक सीट विवाद थी या गाय से संबंधित कोई टिप्पणी या फिर हिन्दू-मुस्लिम वाली कोई बात दोनों पक्षों में हुई यह जांच टीम अपना निर्णय देगी। जुनैद हत्या मामले की उच्च स्तरीय जांच चल रही है, लेकिन जांच पूरी होने से पहले ही मीडिया ने उसके कातिल नरेश के नाम पर अपनी शैली के तहत क्रिमिनल का ठप्पा लगा दिया।
दो वर्ष पूर्व दिल्ली में आम आदमी पार्टी की रैली के दौरान पेड़ से लटककर आत्महत्या करने वाले राजस्थान निवासी गजेंद्र का शव उसके पैतृक गांव पहुंचा भी नहीं था कि इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने लाईव टेलीकास्ट के लिए अपनी ओवी वैन तैनात कर दी।
मीडिया के लिए इससे ज्यादा गिरने का स्तर क्या होगा कि देश के पहले-दूसरे पायदान पर खड़ा एक बड़े चैनल का एंकर गजेंद्र की नाबालिग बेटी से लाईव वार्ता के दौरान पूछ रहा था कि आपके पिताजी ने आत्महत्या की है, आपको कैसा महसूस हो रहा है। इसके अलावा मीडिया प्रेमी हर व्यक्ति को उस प्रश्न से आघात हुआ होगा, जिसमें एक महिला एंकर ने मृतक गजेंद्र की बेटी से पूछा कि आपके अपने पिता से कैसे रिश्ते थे? शेम… शेम… शेम…।
इस प्रकार के प्रश्नों को पूछकर हम पत्रकारिता जगत में कौन-सा मुकाम हासिल कर रहे हैं, साथ ही समाज में मीडिया की जिम्मेदारी के प्रति हम क्या संदेश देना चाहते हैं? यदि मीडिया चापलूसी की कड़ी से हटकर और हर किसी खबर को सनसनीखेज न बनाकर सत्यापित के आधार पर लोगों के सामने सही खबर को सही रूप में और सही समय पर प्रस्तुत करे, तो नि:संदेह देश का आवाम इनको पलक-पावड़ो पर बिठाकर रखेगा।
क्योंकि देश का एक बड़ा तबका आज भी मीडिया द्वारा परोसी गई खबरों पर पूर्व की भांति भरोसा बरकरार रखे हुए है, लेकिन यहां यह भी कटु सत्य है कि जिस प्रकार से मीडिया जगत चल रहा है, यदि यही गति रही तो वह दिन दूर नहीं, जब मीडिया भी भ्रष्ट नेताओं की भांति जनमानस की आंखों में चुभने लगेगा।
-जगजीत शर्मा
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