चीन ने माओ के नेतृत्व में 1949 में कम्युनिस्ट विचारधारा को आत्मसात किया, लेकिन मानवाधिकार और नागरिक स्वतंत्रता को ताक पर रखकर। साम्यवादी विचारधारा का उद्भव ही पूंजीवादी विचारधारा के विरुद्ध हुआ था, ताकि समाज के शोषित, मजदूरों इत्यादि को समाज में समान पायदान पर रखा जा सके और समानता के मूल्य को स्थापित किया जा सके। लेकिन अपने को साम्यवादी देश कहने वाले चीन ने राजनीतिक व्यवस्था में केंद्रीयकरण की पद्धति को अपनाया। उसने मानवीय गरिमा और मानवीय मूल्यों को स्थापित करने वाले स्वतंत्रता और समानता जैसे तत्वों को गौण कर दिया। वर्तमान में चीन की छवि अंतर्राष्ट्रीय जगत में एक तानाशाही देश के रुप में चित्रित है और नोबल विजेता ‘ली शोओबो’ के मामले में चीन का घृणित चेहरा विश्व के समक्ष उजागर हुआ है।
दरअसल नोबल पुरस्कार विजेता ली शोआबो की कैंसर से जूझते हुए 13 जुलाई 2017 को मृत्यु हो गई। ली शोआबो चीन में लोकतंत्र के पुरोधा थे। 2008 में चीन में लोकतांत्रिक व्यवस्था और मानवाधिकारों की मांग की याचिका देने के पश्चात् उन्हें गिरफ्तार किया गया और 2009 में मुकदमा चलाकर 11 वर्ष की सजा के तहत जेल में डाल दिया गया और उनकी पत्नी शिया को घर में नजरबंद कर उनके पति, रिश्तेदारों और संपूर्ण विश्व से संपर्क तोड़ दिया। सजा काटने के दौरान जेल में वे लीवर कैंसर से जूझते रहे और इलाज के अभाव में कैंसर आखिरी स्टेज में पहुंच गया। फलस्वरूप चीन ने उनको जुलाई 2017 में रिहा कर दिया और चीन उनके इलाज का ढोंग करता रहा कि वो सही ढंग से इलाज कर रहा है। लेकिन जब चीन ने जर्मनी और अमेरिकी डॉक्टरों की सलाह को नजरअंदाज करते हुए उनके इलाज हेतु उन्हें चीन से बाहर जाने की इजाजत नहीं दी, जबकि वे लिवर कैंसर के आखिरी स्टेज से जूझ रहे थे और यहां तक कि वेंटिलेटर की सुविधा भी मुहैया नहीं करवाई गई। इस तरह विश्व के समक्ष चीन का घृणित चेहरा उजागर हो गया है।
चीन मानवाधिकारों को किस प्रकार कुचलने का षड्यंत्र रचता है, उसको इस प्रकार समझा जा सकता है। शोओबो की मृत्यु के पश्चात् चीन ने एक तरफ अपने यहां इंटरनेट को बाधित कर रखा है, ताकि सूचना का आदान-प्रदान न हो सके और सरकारी नियंत्रण में एक अपराधी की भांति उनका अंतिम संस्कार शनिवार (15 जुलाई) को किया गया और एक फोटोग्राफ जारी कर यह बताने का प्रयास किया गया कि उनकी पत्नी सहित कुछ रिश्तेदार अन्येष्टि में सम्मिलित हुए है, लेकिन शोओबो परिवार के अधिवक्ता के अनुसार अन्येष्टि कहां हुई और कौन सम्मिलित हुआ, किसी को नहीं पता।
चीन द्वारा अपने कुकृत्यों पर परदा डालने हेतु नोबल शांति पुरस्कार चयन समिति की प्रमुख बेरिट एंडरसन को शोओबो की अन्तेयष्टि में सम्मिलित होने हेतु वीजा को कुतर्कों के आधार पर खारिज कर दिया। हालात यह हैं कि चीन उनकी पत्नी शिया को भी आजाद करने से डरता है। चीन को भय है कि उनका क्रूरतम चेहरा विश्व के समक्ष ली शिया के माध्यम से उजागर न हो जाए।
चीन से वैसे तो मानवाधिकार उल्लंघन की खबरें हमेशा ही सुर्खियों में रही हैं, लेकिन वर्तमान का घटनाक्रम इसकी पुष्टि करता है। जब चीन अपने महत्वाकांक्षी हितों की पूर्ति हेतु अपने नागरिकों के मानवाधिकारों पर कुठाराघात कर सकता है, तो अपने पड़ोसियों भारत और भूटान उसके लिए क्या मायने रखते हैं। चीन, भारत के साथ कई दिनों से भारत, भूटान और चीन त्रिकोणीय जंक्शन पर गतिरोध बनाए हुए है। अब हालत यह हैं कि युद्ध की धमकी देकर चीन ने थककर भारत के सैनिकों की भांति तिब्बत, सिक्किम सीमा पर तंबू गाड़ दिया है। अर्थात् दोनों ओर के सैनिकों ने सीमा के पास तंबू गाड़कर एक-दूसरे के समक्ष पहरा दे रहे हैं। चीन की शर्त यह है कि जब भारत वहां से सैनिक हटाएगा, तभी बातचीत होगी।
चीन जिस प्रकार का दुर्व्यवहार चीनी नागरिकों से करता है, इस प्रकार के कृत्यों से तो वही के नागरिकों के सब्र का बांध टूट जाएगा और चीन का विखंडन निश्चित ही होगा। चीन ने साम्राज्यवादी नीति के तहत दूसरे राष्ट्रों पर कुदृष्टि डालकर अतीत मेंं जबरन कब्जा किया। उनका भी स्वतंत्र होने का रास्ता साफ हो जाएगा। इतिहास गवाह है कि कोई भी राष्ट्र तानाशाही के दम पर लंबे समय तक अपने पूर्ववत स्वरूप में कभी कायम नहीं रहा। उदाहरण के रुप में आधुनिक युग में जर्मनी और इटली को देखा जा सकता है। तो हमें यह भी देखने को मिला कि तानाशाही अंग्रेज भी, भारतीयों के जबरदस्त विरोध के पश्चात अपनी सत्ता को भारत में बचाने में नाकामयाब रहे, तो साम्यवादी देश सोवियत संघ भी नब्बे के दशक में स्वयं को विखंडित होने से नहीं रोक पाया और उससे टूटकर कई देश बने जैसे यूक्रेन, बेलारूस, लिथुआनिया, आर्मेनिया, एस्टोनिया, लातविया, कजाकिस्तान आदि।
वैसे तो चीन ने साम्यवादी शासन व्यवस्था को अपनाकर यह दुनिया के समक्ष जताने का प्रयास किया कि साम्यवाद के जनक मार्क्स के सिद्धांतों को पूरी तरह आत्मसात कर लिया है। लेकिन वास्तव में चीन ने तो साम्यवादियों का चोला पहनकर साम्यवादी विचारधारा के साथ भी छल किया और चीन केन्द्रित विचारधारा का निर्माण कर केवल चीन के हितों की राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पूर्ति करने का प्रयास किया है। उसके लिए अपने नागरिकों और पड़ोसी देशों के हित गौण हैं।
चीन यह भूल जाता है कि किसी भी राष्ट्र का निर्माण जैसे कि प्राचीन राजनीति विज्ञान के विद्वान “प्लेटो कहते हैं कि वहां रहने वाले नागरिकों से होता है, न कि वृक्ष और चट्टानों से।” ऐसे में चीन इतना नासमझ कैसे है कि अपने नागरिकों को मूलभूत आवश्यकताओं से भी वंचित कर रहा है। जहां राज्य स्तर पर नासमझी वाले निर्णय लिए जाते है, वहां तो किसी भी राज्य को भारी कीमत चुकानी पड़ती है और जहां तक भारत को गीदड़भभकी देने का चीन प्रयास करता है, तो उसे याद रखना चाहिए कि भारत सवा अरब जनसंख्या वाला विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। इसके राष्ट्राध्यक्ष यदि किसी विषय को संपूर्ण विश्व के समक्ष रखते हैं, तो वह पूरे मुल्क की एक सुर में आवाज होती है। ऐसे में एक तानाशाही और अधिनायकवादी देश, विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश से मुकाबला नहीं कर सकता है।
चीन से वैसे तो मानवाधिकार उल्लंघन की खबरें हमेशा ही सुर्खियों में रही हैं, लेकिन वर्तमान का घटनाक्रम इसकी पुष्टि करता है। जब चीन अपनी महत्वाकांक्षी हितों की पूर्ति हेतु अपने नागरिकों के मानवाधिकारों पर कुठाराघात कर सकता है, तो अपने पड़ोसियों भारत और भूटान उसके लिए क्या मायने रखते हैं। चीन, भारत के साथ कई दिनों से भारत, भूटान और चीन त्रिकोणीय जंक्शन पर गतिरोध बनाए हुए है।
अनीता वर्मा
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