देश की सियासत में तीसरे मोर्चे की संभावना हमेशा ही कमजोर रही है। खासकर केन्द्र में जब आठ-दस पार्टियां थी, तो कुछ सप्ताह बाद ही प्रधानमंत्री बदल दिए गए। बिहार की वर्तमान परिस्थितियां भी इस बात का प्रमाण हैं कि वहां पर भी महागठबंधन में अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए दरारें आने लगी हैं। बेशक राष्ट्रपति चुनाव हो अथवा लालू प्रसाद व उनके परिवारिक सदस्यों पर लगे आरोपों का मामला, दोनों पक्ष टकराव छोड़ने को तैयार नहीं। मुख्यमंत्री नितीश कुमार का झुकाव जहां एनडीए की तरफ है, वहीं राष्ट्रीय जनता दल कांग्रेस के साथ अपने संबंध जारी रखना चाहता है।
नितीश कुमार ने राष्ट्रपति चुनाव के लिए एनडीए उमीदवार का समर्थन किया है। उनके बयान कांग्रेस के प्रति सख्त हैं। नितीश कुमार ने एक साफ छवि व कानून पसंद नेता वाली पहचान बनाई है। उन्होंने लालू प्रसाद के पुत्र व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगने पर इस्तीफा मांगने की हिम्मत दिखाकर अपने असूल कायम रखे हैं। राष्ट्रीय जनता दल के विधायकों की संख्या अधिक होने के बावजूद तेजस्वी को पद त्यागने अथवा बेदाग साबित होने के लिए कुछ दिनों की मोहलत दी। इन परिस्थितियों के चलते महागठबंधन चलने की संभावनाएं कम हैं। दरअसल जब तक सियासी पार्टियां जनहितों से अधिक सत्ता का मोह रखेंगी, तब तक कोई महागठबंधन सफल नहीं हो सकता। कोई भी गठबंधन सिद्धांतों व न्यूनतम कार्यक्रमों से ही मजबूत होता है।
बिहार में सत्ताधारी गठबंधन के बीच बड़ी कमजोरी ही सिद्धांतों की रही है। लालू प्रसाद जहां शहाबूदीन जैसे अपराधी नेताओं का जेल में भी संरक्षण करते हैं, वहीं नितीश कुमार ने ऐसे अपराधियों पर कानूनी शिकंजा कसने के पूरी कोशिश की है। बेशक बहुमत हासिल करने के लिए जनता दल के साथ हाथ मिलाया था, किन्तु नितीश कुमार ने भागीदारी के बावजूद राष्ट्रीय जनता दल की जन विरोधी सियासत को सरकार पर असर नहीं होने दिया। यह बात काफी तसल्लीबख्श है कि गठबंधन के बावजूद नितीश कुमार ने बिहार को नई दिशा प्रदान की है। अब राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू प्रसाद की समझदारी पर ही निर्भर करेगा कि वह अपनी पार्टी को सत्ता में बरकरार रखने के लिए सिद्धांतों वाली राजनीति को तरजीह देते हैं अथवा नहीं। वैसे भाजपा द्वारा जनता दल (यू) में दिखाई जा रही दिलचस्पी मुख्यमंत्री नितीश कुमार की सरकार को बेखौफ करती है।
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