पत्थरबाजों के मानवाधिकार

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यह भारत जैसे ही देश में संभव है कि आतंकवादियों को संरक्षण देने वाले किसी व्यक्ति को मुआवजा देने की सिफारिश कोई आयोग करे। जम्मू-कश्मीर मानवाधिकार आयोग ने एक अजीबो-गरीब फैसला दिया है। आयोग ने राज्य सरकार से सेना द्वारा मानव ढाल बनाए गए पत्थरबाज फारूख अहमद डार को मुआवजा के तौर पर 10 लाख रुपए देने की अनुशंसा की है। सेना ने बीते नौ अप्रैल को इस कश्मीरी युवक को पत्थरबाजी के जुर्म में जीप के आगे बांधा था। कश्मीर के बीड़वाह में 9 अप्रैल को चुनाव के दौरान जब हालात बेकाबू हो गए तो मेजर नितिन गोगोई ने मजबूरीवश ऐसा किया।

कश्मीरी युवक डार को जीप से बांधा और मानव ढाल के तौर पर इस्तेमाल किया। इस बुद्धिमत्ता से पत्थरबाजों और सुरक्षाबलों के बीच जो झड़प हो रही थी, वह एकाएक थम गई। आयोग ने मुआवजे की सिफारिश करके पत्थरबाजों को प्रोत्साहित करते हुए भविष्य में इन्हें उकसाए रखने की भूमिका रचने का काम किया है। जब गैरकानूनी एवं राष्ट्रद्रोही काम करने पर भी मुआवजा मिलने लग जाएगा, तो भला कश्मीरी युवक पत्थरबाजी करने से क्यों बाज आएंगे ? हैरानी है कि मुआवजे की पृष्ठभूमि में अंतर्निहित यह सवाल आयोग के अध्यक्ष को समझ नहीं आया?

कुछ इसी तर्ज का काम जम्मू-कश्मीर राज्य सरकार ने बुरहान बानी की मौत का मुआवजा देकर किया है। बुरहान के भाई खालिद बानी को 3 लाख का मुआवजा दिया गया। यह मुआवजा महबूबा मुफ्ती की उस सरकार ने दिया, जो भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से वजूद में है। विचारधारा में विरोधाभास के बावजूद इस बेमेल गठबंधन की है, यह चौंकाने वाली कार्यवाही और भाजपा की चुप्पी हैरानी में डालने वाली है। सत्ता में बने रहने का यह लालच कश्मीर को कहां ले जाकर छोड़ेगा, फिलहाल कहना मुश्किल है।

खैर, आयोग और सरकार दोनों ही आतंकियों को मुआवजा देकर उन्हें राष्ट्रद्रोह के लिए अनवरत उकसाए रखने का काम कर रहे हैं। कमोवेश यही काम राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अबदुल्ला ने फारूख अहमद डार के पक्ष में उसे जीप से बांधने की फोटो और वीडियो को ट्वीट करके कर दिया था। इसके बाद मुद्दा गरमा गया। 15 अप्रैल को जम्मू-कश्मीर पुलिस ने 53 राष्ट्रीय राइफल्स के मेजर के खिलाफ एफआईआर दर्ज की। इसके बाद इस विवाद में बुकर पुस्कार विजेता अरुंधति रॉय और अभिनेता परेश रावल भी कूद पड़े थे। अरुंधति के कश्मीरियों के समर्थन पर परेश ने कहा था कि कश्मीर में पत्थबाजों की बजाय अरुंधति को बांधा जाना चाहिए था। यही मामला तब और गरमागया था, जब सेना ने मेजर गोगोई को पुरस्कार देकर सम्नानित कर दिया था। इसके बाद सेना प्रमुख विपिन रावत ने नेताओं और राजनीतिक विश्लेषकों की आलोचना को दरकिनार करते हुए सफाई दी कि ‘भारतीय सेना आमतौर से मानव कवच का प्रयोग नहीं करती है, लेकिन अधिकारियों को परिस्थितियों के अनुसार कुछ तात्कालिक कठोर कदम उठाने पड़ते हैं।‘

अलगाववादियों द्वारा पत्थरबाजों को उकसाए रखने का काम धन देकर लगातार हो रहा है। हुर्रियत के नेताओं के बयानों पर गौर करें तो पता चलता है कि पत्थरबाजों को उकसाने का काम सुनियोजित ढंग से हो रहा है। कुछ समय पहले टीवी समाचार चैनल आज तक ने एक स्टिंग आॅपरेशन के जरिए यह हैरतअंगेज खुलासा किया था कि हुर्रियत के नेताओं के तार पाकिस्तान से जुड़े हैं और वे वहां से धन तथा दूसरे संसाधन लेकर पत्थरबाजों को सेना के विरुद्घ उकसाकर घाटी का माहौल बिगाड़ रहे हैं।

इन नेताओं की चरमपंथी बातों से कश्मीरी युवक गुमराह होते हैं और आतंकियों की मदद धार्मिक उन्माद में आकर करने लग जाते हैं। इस राष्ट्रविरोधी खुलासे के बावजूद इन नेताओं को सरकारी सुविधाएं और सुरक्षा के साधन उपलब्ध कराए जा रहे हैं। इनके वह बैंक खाते भी अब तक सीज नहीं किए गए हैं, जिनमें हवाला के जरिए पाकिस्तान से धन आता है। एनआईए ने आज तक के खुलासे के बाद अलगाववादियों पर शिकंजा कसा जरूर है, लेकिन यह कार्यवाही पर्याप्त नहीं कही जा सकती है? यही वजह है कि कश्मीर में अघोषित युद्घ का वातावरण बना हुआ है, जिसका दर्दनाक परिणाम निहत्थे व निर्दोष अमरनाथ यात्रा पर गए श्रद्घालुओं पर हुए हमले के रूप में देखने में आया है।

अलगाववादियों पर ढिलाई का ही परिणाम है कि कश्मीर में अराजकता निरंतर फैल रही है। नतीजतन जम्मू-कश्मीर के पूंछ सेक्टर में भारत की जमीन में आकर पाकिस्तानी सेना और आतंकी कायराना हमले करने में लगे हुए हैं। रोजाना जवान शहीद हो रहे हैं। यहां तक कि शहीदों के शवों को भी अंग-भंग किया जा रहा है। श्रीनगर के नौहट्टा इलाके में जामिया मस्जिद के पास हुई घटना में एक बेकाबू भीड़ ने डीएसपी मोहम्मद अयूब पंडित को ड्यूटी पर तैनात रहते हुए मार डाला था। पंडित पर पत्थरों और लाठियों से बेरहमी से हमला बोलकर उनकी हत्या कर दी गई थी।

ऐसे में सवाल उठता है कि जो मानवाधिकारों के वाकई में असली उल्लंघनकर्ता हैं, उन्हें मुआवजा और संरक्षण किसलिए? भारतीय दंड संहिता के मुताबिक तो ये देशद्रोह के आरोप में सजा के हकदार है। आतंकवाद और अलगाववाद जब नागरिकों के शांति से जीने के अधिकार में दखल देते है, तब राज्य को उनसे निपटने के लिए कड़े कदम उठाने की जरूरत पड़ती है, ऐसे में यदि सुरक्षाबलों से ज्यादती भी हो जाए तो उसे नजरअंदाज करना पड़ता है। लेकिन भारत में मानवाधिकार संगठन सुरक्षाबलों की बजाय आतंकियों की पैरवी करते दिखाई दे रहे हैं। डार को मुआवजे की सिफारिश और बुरहान बानी के परिजनों को राज्य सरकार द्वारा मुआवजा दिया जाना इसी श्रृंखला की विस्मित कर देने वाली कड़ियां हैं। जबकि कश्मीर में आतंकवाद मानवाधिकारों और लोकतंत्र पर खतरे के रूप में उभरा है।

पंजाब में भी इसी तरह का आतंकवाद उभरा था। लेकिन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव और पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की दृढ़ इच्छा शक्ति ने उसे नेस्तनाबूद कर दिया था। कश्मीर का भी दुष्चक्र तोड़ा जा सकता है, यदि वहां की सरकार मजबूत इरादे वाली होती। मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती दुधारी तलवार पर सवार हैं। एक तरफ तो उनकी सरकार भाजपा से गठबंधन के चलते केंद्र सरकार को साधती दिखती है, तो दूसरी तरफ हुर्रियत की हरकतों को नजरअंदाज करती है। इसी कारण वह हुर्रियत नेताओं के पाकिस्तान से जुड़े सबूत मिल जाने के बावजूद कोई कठोर कार्यवाही नहीं कर पा रही हैं। नतीजतन राज्य के हालात नियंत्रण से बाहर होते जा रहे हैं। महबूबा न तो राज्य की जनता का भरोसा जीतने में सफल रही हैं और न ही कानून व्यवस्था को इतना मजबूत कर पाई हैं कि अलगाववादी व आतंकी खौफ खाने लग जाएं।

साफ है, महबूबा में असरकारी पहल करने की इच्छाशक्ति नदारद है। भाजपा के लिए भी साझा सरकार का यह सौदा कालांतर में महंगा पड़ सकता है। गोया, केंद्र सरकार व भारतीय जनता पार्टी को आत्मावलोकन करते हुए जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक और सुरक्षा संबंधी हालातों का पुनर्मूल्यांकन करने की जरूरत है। क्योंकि केंद्र और राज्य दोनों जगहों पर भाजपा के सत्ता में होने के बावजूद आतंक, अलगाव व हिंसा का कुचक्र कश्मीर में जारी है। सैनिक और श्रद्घालुओं पर जिस तरह से कहर जारी है, उसे देश अब बर्दाश्त करने के मूड में नहीं है। लिहाजा पूर्ण बहुमत वाली भाजपा से इस मोर्च पर निर्णायक कार्यवाही की जल्द अपेक्षा है। वक्त की यही मांग है।


प्रमोद भार्गव

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