जयह दुर्भाग्यपूर्ण है कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, जिन्हें अपनी ऊर्जा राज्य की जनता के कल्याण व विकास कार्यों पर खर्च करनी चाहिए, वह अनावश्यक वितंडा खड़ा कर देश को गुमराह और राज्य को पीछे धकेलने की कोशिश कर रही हैं।
जिस तरह उन्होंने राज्य के उत्तरी चौबीस परगना में फेसबुक से फैले तनाव के लिए जिम्मेदार गुनाहगारों पर कार्रवाई करने से बचने की कोशिश करते हुए राज्यपाल केसरी नाथ त्रिपाठी को निशाने पर लिया है,
वह न सिर्फ उनके अलोकतांत्रिक व असंवैधानिक आचरण को रेखांकित करता है, बल्कि यह भी निरुपित होता है कि राज्य में कानून-व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी है। बेशक उन्हें हक है कि वह अपने सियासी प्रतिद्वंद्वियों की आलोचना करें और एक्सपोज करें, लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह संवैधानिक पद पर आसीन राज्यपाल की गरिमा को ही ध्वस्त करे दें।
गौरतलब है कि राज्य के चौबीस परगना में दो समुदायों के बीच सांप्रदायिक दंगा भड़कने के बाद राज्यपाल केसरी नाथ त्रिपाठी ने राज्य की कानून-व्यवस्था को लेकर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से बातचीत की।
यह कहीं से भी अनुचित और असंवैधानिक नहीं है। ऐसे में राज्य सरकार का कर्तव्य है कि वह राज्यपाल के सुझावों को गंभीरता से ले। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि राज्य की मुख्यमंत्री ने राज्यपाल से हुई बातचीत को न सिर्फ सार्वजनिक किया, बल्कि उन पर घृणित सियासत करने का आरोप भी लगाया। इस तरह का असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक आचरण सिर्फ यहीं रेखांकित करता है कि राज्य में एक निर्वाचित लोकतांत्रिक सरकार नहीं, बल्कि तानाशाह सरकार है जो संविधान, राज्यपाल और केंद्र सरकार का मानमर्दन करना चाहती है।
ध्यान दें तो ममता बनर्जी द्वारा जिस तरह राज्यपाल की आड़ लेते हुए केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की गयी, उसके कई राजनीतिक मायने हैं। एक, नोटबंदी के खिलाफ अभियान की हवा निकलने के बाद ममता बनर्जी बौखला चुकी है।
दूसरा, देशभर में संदेश जा चुका है कि वह कालेधन के कुबेरों के साथ हैं। तीसरा, तुष्टिकरण के कारण अब राज्य की कानून-व्यवस्था संभालना उनके लिए कठिन हो गया है।
चौथा, राज्य में भारतीय जनता पार्टी का तेजी से उभार हो रहा है, जिससे वे भयभीत हैं। पांचवां, उन पर से जनता का भरोसा उठ चुका है। छठा, उनकी सरकार समरसता के बजाए अल्पसंख्यक तृष्टीकरण पर आमादा हैं और उनके कार्यकर्ता वामपंथी कार्यकताओं की तरह अराजकतापूर्ण व्यवहार कर रहे हैं। उचित होगा कि ममता बनर्जी यह विचार करें कि उनसे कहां चूक हो रही है? क्या कारण है कि राज्य में सांप्रदायिक दंगे थमने का नाम नहीं ले रहे?
ध्यान दें तो पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह सांप्रदायिक दंगे हुए हैं, वह कुल-मिलाकर राज्य सरकार की नाकामी का ही परिणाम हैं। याद होगा गत वर्ष माल्दा में मुस्लिम समुदाय के लाखों लोगों ने सड़क पर उतरकर अराजकता फैलायी, पुलिस पर हमला बोला, थाने में आग लगायी, अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय के लोगों की दुकानें लूटी और घर में घुसकर उन्हें अपमानित किया, लेकिन सरकार हाथ पर हाथ धरकर बैठी रही।
राज्य सरकार की नाकामी की वजह से कैनिंग में 200 हिंदू घरों को क्षति पहुंचायी गया। उस्थि में हिंदुओं के घर व दुकानों को लूटा गया। धूलागढ़ में डेढ़ सौ लोगों की जान ली गयी।
राज्य सरकार की नाकामी की वजह से ही प्रख्यात लेखिका महाश्वेता देवी को कहना पड़ा था कि जब राजतंत्र नहीं रहा, मुसोलिनी नहीं रहा तो सरकार की क्या हैसियत है। कहना गलत नहीं होगा कि राज्य की सरकार प्रशासन और अराजकतावादियों के सहयोग से विरीत विचारधारा के लोगों को मिटाने पर आमादा है।
बेहतर होगा कि ममता सरकार अपनी खीझ राज्यपाल और केंद्रीय सत्ता पर उतारने के बजाए सकारात्मक रुख दिखाते हुए राज्य के विकास पर ऊर्जा खपाए। लोकतंत्र में विरोध सिर्फ विरोध के लिए नहीं होना चाहिए। इससे राष्ट्र की अखंडता प्रभावित होती है और लोकतंत्र की गरिमा को क्षति पहुंचती है।
-अरविंद जयतिलक
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