प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इजराइल की तीन दिवसीय यात्रा की। वे वहां भारत-इजराइल राजनयिक संबंधों की रजत जंयति वर्ष के मौके पर आयोजित कार्यक्रम में मौजूद रहे। प्रधानमंत्री की इस यात्रा का मकसद केवल इतना ही नहीं था कि दोनों देश अपनी राजनयिक संबंधों की 25वीं वर्षगांठ मना रहे हैं और प्रधानमंत्री को उसमें अपनी उपस्थ्तिि देनी है, बल्कि रजत जयंति वर्ष के इस अवसर को थोड़ी देर के लिए अलग रख दें, तब भी यह यात्रा कई मायनों में अलग रही।
पहली बात तो यह है कि सात दशकों के बाद भारत के किसी प्रधानमंत्री ने यहुदी देश इजराइल का रूख किया। दूसरा, यह यात्रा केवल इजराइल तक ही सीमित है, फिलीस्तीनी को इस यात्रा से अलग रखा गया है।
अब तक होता यह था कि इजराइल जाने वाले किसी भी भारतीय नेता या राजनयिक की यात्रा फिलीस्तीन की यात्रा के बाद ही संपन्न होती थी। इसकी वजह यह थी कि भारत में बड़ी संख्या में मुस्लमान निवास करते हैं इस लिए भारत ने अब तक फिलीस्तीन व इजराइल के बीच संतुलन साधकर चलने की नीति अपनाई हुई थी।
यह पहला अवसर होगा जबकि नरेंन्द्र मोदी केवल इजराइल जा रहे हैं, फिलिस्तीन नहीं। इसके अलावा तीसरी सबसे बड़ी बात यह है कि मोदी अमेरिका से लौटने के तुंरत बाद इजराइल गए है। यही वजह है कि इस यात्रा को भारत-इजराइल संबंधों में महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा हैं।
इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने प्रोटोकॉल के इतर एयरर्पोट पहुंच कर जिस गरमजोशी से नरेंन्द्रमोदी का स्वागत किया उससे यह बयां हो गया कि इजराइल के भीतर भी इस यात्रा को लेकर कितनी उत्सुकता थी।
जिस तरह से बेंजामिन और मोदी बार-बार एक दूसरे को गले लगा रहे थे उससे बिल्कुल साफ हो गया था कि भारत के बदले हुए दृष्टिकोण पर इजराइल ने भी सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है।
वर्ष 1992 में भारत-इजराइल के बीच राजनयिक संबंध उस समय शुरू हुए थे जब भारत में कांग्रेस की सरकार थी और पीवी नरसिम्हाराव देश के प्रधानमंत्री थे। लेकिन इन 25 वर्षों में दोनों देशों के बीच संबंध उस स्तर तक नहीं पहुंच पाए कि राष्ट्राध्यक्षों की आवाजाही का सिलसिला शुरू हो सके। यद्यपि भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सितंबर 1950 में ही इजराइल को मान्यता दे दी थी फिर भी दोनों देशों के बीच पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित होने में 70 वर्ष का समय लग गया। पहले भारत हमेशा फिलीस्तीन के पक्ष में खड़ा दिखाई देता था।
1947 में यूएनओं में जब इजराइल को अलग देश बनाने के लिए फिलीस्तीन के विभाजन का प्रस्ताव रखा गया था तो भारत ने न केवल प्रस्ताव का विरोध किया था अपितु उसके खिलाफ वोट किया था।
साल 1948 में जब इजराइल को यूएनआें का सदस्य बनाए जाने की बात आई तब भी भारत ने उस पर आपत्ति प्रकट की थी। अरब-इजराइल संघर्ष के दौरान भी भारत की विदेश नीति स्पष्ट रूप से अरब देशों का समर्थन करने की रही।
स्व़ इंदिरा गांधी के कार्यकाल में फिलीस्तीनी आंदोलन के अगुआ नेता यासिर अराफात ने श्रीमति गांधी को अपनी छोटी बहन बताकर दोनों देशों के संबंधों को नई ऊंचाईया प्रदान की थी। अभी मई माह में ही फिलीस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने भारत की यात्रा की थी यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच कुछ महत्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर भी हुए थे।
लेकिन राजीव गॉधी के सत्ता में आने के बाद भारत के नजरिये में बदलाव आया। राजीव गांधी ने वर्ष 1985 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के वार्षिक अधिवेशन के समय इजराइल के प्रधानमंत्री शायमन पेरेज से मिलकर संबंध बहाली की दिशा में कदम बढ़ाया।
उस समय दोनों देशों के बीच कुछ औपचारिक करार हुए और संबंधों को सामान्य करने की प्रक्रिया ने रफ्तार पकड़ी। अब प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा के बाद इजराइल को लेकर भारत का नजरिया यकायक बदला है। यह उसी बदले हुए नजरिये का ही परिणाम है कि हमारे प्रधानमंत्री इजराइल जा रहे हंै, परन्तु फिलीस्तीन नहीं।
भारत की रक्षा जरूरतों के लिहाज से भी इजराइल हमारे लिए महत्वपूर्ण है। वर्तमान में जबकी चीन काफी आक्रामक हो चला है तो ऐसे में भारत को उसकी सामरिक जरूरतों के लिहाज से एक सच्चे दोस्त की तलाश है।
भारत की यह तलाश इजराइल पर आकर समाप्त होती है। दोनों देशों के बीच रिश्ते का एक बड़ा कारण यह है कि इजराइल हमारा अहम रक्षा सप्लायर है। रूस के बाद इजराइल दूसरा ऐसा देश है जहां से भारत अपनी रक्षा जरूरतों के लिए हथियार और तकनीक आयात करता है। आज भी इजराइल भारत को मिसाइल और ड्रोन विमान सहित अन्य सैन्य उपकरण प्रदान करने वाला महत्वपूर्ण देश है।
पिछले पांच साल में इजराइल ने हर साल औसतन एक अरब डॉलर के हथियार भारत को बेचे हैं। हथियारों की खरीद दोनों देशों के बीच आपसी संबंधों का सबसे महत्वपूर्ण पहलू रहा है। मोदी की यात्रा से पहले अप्रेल माह में भारत ने इजराइल की एयरो स्पेस इंड्रस्टीज के साथ डेढ़ अरब डॉलर के सौदे का करार किया है। भारत के चार युद्धपोतों पर बराक मिसाइल स्थापित करने का भी 630 करोड़ डॉलर का समझौता हुआ है।
संकट के समय भारत के अनुरोध पर इजराइल की त्वरित प्रतिक्रिया ने उसे भारत के लिए भरौसेमंद हथियार आपूर्ति करने वाले देश के तौर पर स्थापित किया हैंं। भारत के सामने जब भी कोई सामरिक संकट उपस्थित हुआ है तो उस वक्त इजराइल ने आगे बढ़कर हमारी मदद की है। 1962 के भारत-चीन युद्व के दौरान भी इजराइल भारत के साथ खडा था। वर्ष 1999 के करगिल संकट के समय भी भारत के अनुरोध पर इजराइल ने हथियार व दूसरी सैन्य तकनीक भारत को उपलब्ध करवाकर भारत का सहयोग किया था।
आज भी इजराइल भारत को मिसाइल, एंटी मिसाइल सिस्टम, टोही विमान आदी की तकनीक दे रहा है। इसके अलावा इजराइल भारतीय नौ सेना को एंटी बैलिस्टिक मिसाइल भी देने को तैयार है। भारत को करीब 8,356 स्पाइक एंटी टैंक गाइडेड मिसाइल देने के लिए भी इजराइल तैयार हो गया है, जो दुश्मन के टैंक को उसकी ही जमीन पर तबाह करने में सक्षम हैे।
इसके अलावा इजराइल ने भारत को 10 हेरॉन टीपी यूएवी मानवरहित हवाई वाहन देने की हामी भरी है जिसकी मदद से भारतीय सेना की निगरानी करने और टोह लेने की क्षमता काफी बढ़ जाएगी।
मोदी की यात्रा से पहले भारत ने इजराइल के साथ 2 अरब डॉलर का एक बड़ा रक्षा सौदा किया है। जिसके तहत वह भारत को मिसाइल रक्षा प्रणाली की आपूर्ति करेगा। सतह से हवा में मार करने वाली ये आधुनिक मिसाइल 70 किलोमीटर तक की दूरी में एयरक्राफ्ट, मिसाइल और ड्रोन को ध्वस्त करने में सक्षम है।
इजराइल की उन्नत कृषि तकनीक का भी भारत फायदा लेना चाहेगा। खुद इजराइल के कृषि विशेषज्ञों ने फसलों की पैदावर को बढ़ाने और सिंचाई के लिए जल संरक्षण संबंधित अपने तकनीकी अनुभव को भारतीय किसानों के साथ साझा करने का प्रस्ताव भी भारत को दिया हैं
यद्धपि इजराइल एक ऐसा देश है जिससे भारत लंबे समय से कटा रहा है
लेकिन अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्रा के बाद दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय रिश्तों को एक नया आयाम मिलेगा इसमें सन्देह नहीं है। उम्मीद की जा रही है कि इस यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच सैन्य और साइबर सुरक्षा पर समझौते हो सकते है। दोनों देश आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई, सुरक्षा, कृषि , पानी और ऊर्जा सेक्टर में साथ मिलकर काम कर रहेंं हैं।
हालांकी भारत की ओर से यह कहा जा रहा है कि रक्षा व्यापार इस दौरे के लिए पहलु नहीं है, लेकिन यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच कई रक्षा समझौतों पर हस्ताक्षर किए जाने की उम्मीदें है।
-एन.के. सोमानी
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