चाहे तमिलनाडु हो, आन्ध्रप्रदेश हो, महाराष्ट्र हो या फिर मध्यप्रदेश पूरे देश की पेट की भूख मिटाने वाला हमारे देश का किसान आज आजादी के 70 साल बाद भी खुद भूख से लाचार है। देश का यही अन्नदाता अपनी ही सरकार से अपनी मांगें मनवाने के लिए पांच दिनों से शांतिपूर्ण आन्दोलन कर रहा था, तो छटे दिन अचानक क्यों वो उन उपद्रवियों से भी खतरनाक हो गया, जिन पर पैलेटगन के उपयोग से भी मानवाधिकारों के हनन की बातें उठती हैं, लेकिन किसानों पर काबू पाने के लिए गोलियों का सहारा ले लिया गया।
इससे भी शर्मनाक यह कि सरकार न तो किसानों की तकलीफ समझ पाई, न उनका आक्रोश और न ही परिस्थितियों को। शायद इसीलिए अपने अफसरों को बचाने में जुट गई। गृहमंत्री कहते रहे कि गोली पुलिस ने नहीं चलाई, आन्दोलन में असामाजिक तत्वों का बोलबाला था और एक जांच कमेटी का गठन कर दिया गया, यह जानने के लिए कि गोली ‘किसने’ चलाई, जबकि महत्वपूर्ण एवं जांच का विषय यह था कि गोली ‘क्यों’ चलाई गई।
एक समय था, जब देश आर्थिक रूप से इतना कमजोर था कि पूरी आबादी दो वक्त का भोजन भी ठीक से नहीं कर पाती थी। ये वो दिन थे, जब युद्ध के हालात में देश के प्रधानमंत्री को देश की जनता से एक वक्त उपवास करने की अपील करनी पड़ी थी। पूरे देश के साथ लाल बहादुर शास्त्री स्वयं एक समय का भोजन करके देश के स्वाभिमान की रक्षा के लिए लड़ रहे थे। ये ही वो दौर था, जब देश के किसानों ने सरकार के सहयोग से वो मेहनत की कि देश की मिट्टी सोना उगलने लगी थी।
वर्तमान की बात करें, तो वो मध्यप्रदेश जो कभी “बीमारू राज्य” हुआ करता था, इन्हीं किसानों की कमर-तोड़ मेहनत के दम पर लगातार 5 बार कृषि कर्मण अवार्ड जीत चुका है। विचारणीय है कि अब उसी राज्य में किसानों के साथ ऐसा व्यवहार क्यों हुआ? किसान आंदोलन में असामाजिक तत्व कैसे और क्यों आ गए? वजह कोई भी हो, अन्तत: यह केवल सरकार एवं प्रशासनिक तंत्र की लापरवाही के सिवाय और कुछ नहीं है। सवाल तो बहुत हैं कि हमारी अर्थव्यवस्था का काफी हिस्सा कृषी पर आधारित होने के बावजूद क्यों किसानों को कर्ज माफी की मांग उठानी पड़ रही है?
यहाँ गौर करने लायक बात यह है कि किसानों की ताजा मुश्किल मौसम की मार या फिर कम पैदावार नहीं है। इनकी तकलीफ यह है कि सरकार की नीतियों के कारण बेहतर मानसून एवं पैदावार के बावजूद फसल के सीजन में प्याज, आलू, टमाटर और अन्य सब्जियों के दाम एक से दो रुपए तक गिर गए, तो कमाई तो छोड़िये, यह सोचिए कि क्या वे ऐसे में अपनी लागत भी निकाल पाएंगे? हमारे देश के नेता आखिर कब तक अन्नदाता को केवल मतदाता समझ कर अपने स्वार्थ की रोटियां सेकते रहेंगे?
सत्ता पाने के लिए सभी राजनैतिक पार्टियां किसानों को कर्ज माफी का लालच दिखा देती हैं, जबकि वे खुद इस बात को जानती हैं कि यह कोई स्थाई हल नहीं है। इससे न तो किसान सक्षम बनेगा और न ही देश की अर्थव्यवस्था। नेताओं की सोच केवल चुनाव जीतने और सत्ता हासिल करने तक सीमित रहती है और किसान कर्ज माफी के तत्कालीन लालच में आ जाता है।
अब किसान जागा है, तो पूरा जागे। इस बात को समझे कि भले ही अपनी फसल वो एक या दो रुपए में बेचने को विवश है, लेकिन इस देश का आम आदमी उसके दाम एक-दो रूपए नहीं, कहीं ज्यादा चुकाता है, तो यह सस्ता अनाज किसकी झोलियां भर रहा है? किसान इस बात को समझे कि उसकी जरूरत कर्ज माफी की भीख नहीं, अपनी मेहनत का पूरा हक है। इसलिए वह सरकार की नीतियां अपने हक में मांगे, बैंकों के लोन नहीं। दूसरी तरफ, सरकार को भी चाहिए कि पूरे देश को जीवन देने वाला स्वयं अपना जीवन लेने के लिए भविष्य में कभी भी विवश न हो।
-डॉ. नीलम महेंद्र
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