देश के सबसे बड़े दो राजनीतिक दलों ने राष्ट्रपति के चुनाव हेतु दलित उम्मीदवारों की दावेदारी को दांव लगाकर राजनीति के दलित विमर्श को जन्म दे दिया है। एक लम्बे अरसे से यह कयास लगाया जा रहा था कि आखिरकार भाजपा बड़े नेताओं की महत्वकांक्षा और राष्ट्रपति पद पर सुयोग्य व्यक्ति को आसीन करने के बीच संतुलन किस प्रकार स्थापित करेगी। भाजपा ने रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाकर एक तीर से कई निशाने साध दिए।
जहां एक ओर रामनाथ कोविंद दलित समाज से ताल्लुक रखते हैं, वहीं दूसरी ओर वह मूलत: उत्तर-प्रदेश से भी हैं। इन द्विपक्षीय खासियतों के चलते विपक्ष के सामने व्यक्ति विरोध का कोई अवसर भी नहीं बचा और भाजपा ने कोविंद के सहारे 2019 के लिए यूपी की दलित राजनीति को साधने का भी प्रयास कर लिया। हालांकि इसमें कोई दोराय नहीं कि राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी को लेकर बीते कुछ दिनों से जो भी कयास चल रहे थे, उन सभी पर विराम लगाते हुए एक बार फिर मोदी के निर्णयों ने सभी को चौंका दिया।
रामनाथ कोविंद का नाम जैसे ही फलक पर आया सियासत का बाजार भी गरम हो गया। विपक्षियों की सरगर्मी भी तेज हुई, साथ ही आगे की रणनीति को लेकर अटकलें भी लगाई जाने लगीं।
दलित के बदले दलित उतारने की कवायद भी जोर पकड़ने लगी और इसी का परिणाम यह हुआ कि पूर्व स्पीकर मीरा कुमार का नाम यूपीए की तरफ से राष्ट्रपति पद की उम्मेदवारी के लिए घोषित कर दिया गया। लेकिन यह कह सकते हैं कि दलित दांव पहले खेलने में भाजपा समर्थ रही है। भाजपा के इस निर्णय के साथ बिहार के मुख्यमंत्री सहित उद्धव ठाकरे भी अब साथ खड़े दिख रहे हैं। टीआरएस भी समर्थन का संकेत कर चुकी है, जबकि ओडिशा के सीएम नवीन पटनायक साथ होने का एलान पहले ही कर चुके हैं।
अब चुनाव की राह में रोड़े अधिक नहीं है, पर शिकायत तो कईयों की बहुत है। बहुजन समाज पार्टी मुखिया मायावती दलित चेहरे की स्थिति को देखते हुए मना तो नहीं कर पाई हैं, पर असमंजस से जरूर गुजर रही होंगी। वामपंथ की शिकायत यह है कि उम्मीदवारी के मामले में निर्णय एकतरफा है, लेकिन एक बात यह है कि अब मीरा कुमार की उम्मेदवारी के चलते कई विपक्षी दलों को रामनाथ कोविंद का विरोध करने का अवसर मिल गया है। क्योंकि वह मीरा कुमार का साथ देकर और कोविंद का विरोध करके दलित विरोधी होने के दाग से बच निकलेंगे।
देखा जाए तो राष्ट्रपति के चुनाव को लेकर आंकड़े एनडीए की ओर झुके हुए दिखाई देते हैं, पर एनडीए का मानना है कि सर्वसम्मति से बात बने, तो अच्छा रहेगा। मोदी ने राष्ट्रपति पद के लिए जिस चेहरे को उतारा है, उसे लेकर कई अपने सियासी गुणा-भाग में लगे होंगे। आगे की राजनीति कठिन न हो, इसका भी ख्याल उनके मन में आ रहा होगा।
लगभग सभी दलों के सियासी गुणा-भाग में दलितों का काफी महत्व देखा जा सकता है। खास यह भी है कि रामनाथ कोविंद यदि राष्ट्रपति चुने जाते हैं, तो वह यूपी के पहले राष्ट्रपति होंगे। जाहिर है आधा दर्जन प्रधानमंत्री देने वाले उत्तर प्रदेश के लिए भी यह गौरव से भरा संदर्भ होगा।
हालांकि जिस तर्ज पर एनडीए ने राष्ट्रपति का उम्मीदवार घोषित किया, उसे राजनीति का मास्टर स्ट्रोक ही कहा जायेगा, क्योंकि रामनाथ कोविंद जिस उत्तर प्रदेश से सम्बन्धित हैं, वहां 2014 के लोकसभा चुनाव में 80 के मुकाबले 73 सीटें और फरवरी 2017 के विधानसभा चुनाव में 403 के मुकाबले 325 स्थान एनडीए के खाते में है।
जाहिर है 2019 के लोकसभा चुनाव में इसे वह दोहराना चाहेगी। ऐसा नहीं है कि मात्र दलित चेहरे के चलते ही रामनाथ कोविंद की उम्मीदवारी तय हुई है। उनकी कार्यप्रणाली को परखा जाए, तो काबिलियत भी कम नहीं है।
रामनाथ कोविंद हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट के बेहद कामयाब वकील रहे हैं। सामाजिक जीवन में सक्रियता के लिए जाने जाते हैं। 1994 में राज्यसभा के लिए भी चुने जा जुके हैं और लगातार दो बार उच्च सदन के सदस्य रहे हैं। गौरतलब है कि अटल बिहारी वाजपेयी और आडवाणी के युग में कोविंद भाजपा का सर्वाधिक बड़ा चेहरा माने जाते थे।
एक सामाजिक कार्यकर्ता और साफ छवि के राजनेता कोविंद संयुक्त राष्ट्र में भारत का प्रतिनिधित्व भी कर चुके हैं। यह वाक्या अक्तूबर 2002 का है, जब उन्होंने यहां सम्बोधन दिया था। 8 अगस्त, 2015 से राष्ट्रपति के उम्मीदवार घोषित किये जाने के दो दिन बाद तक वे बिहार के राज्यपाल रहे।
एक अन्य प्रश्न राष्ट्रपति उम्मीदवारी को लेकर यह भी उठ रहा है कि आडवाणी समेत कई कद्दावर नेताओं को क्यों दरकिनार किया गया? कहा जा रहा है कि एक बार फिर प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह ने अपनी बिसात पर सभी को चक्कर में डाल दिया है, पर वे दोनों अब किस चक्रव्यूह को भेदना चाहते हैं, इसको भी समझना जरूरी है।
भाजपा कोविंद के बहाने अपनी सियासी पकड़ और मजबूत करने की फिराक में है। दलित चेहरा चुनने का रास्ता अख्तियार करके जाति की राजनीति और उसकी नब्ज को मजबूती से पकड़ने की कवायद फिलहाल देखी जा सकती है। हालांकि भाजपा इस आरोप को जरूर खारिज कर देगी और वह इस बात की वाहवाही लेना चाहेगी कि उसने एक दलित को राष्ट्रपति बनाने का काज किया है, न कि जातिगत राजनीति की है।
सच तो यह है कि एनडीए में यहां तक कि केवल भाजपा में ही कोविंद के मुकाबले राष्ट्रपति के लिए दर्जनों उम्मीदवारों की लम्बी फेहरिस्त है, पर वे 2019 के लोकसभा में तुरूप का इक्का सिद्ध नहीं हो सकते थे। ऐसे में उनका दरकिनार होना स्वाभाविक था।
अब चाहे रामनाथ कोविंद हों या मीरा कुमार यह बात सच है कि भारत में अर्से से सामाजिक रूप से शोषित रहा दलित समाज अब राजनीति और समाज में अपना स्थान बनाने लगा है। योग्यता के चलते अब सिर्फ जाति के नाम पर विरोध की परम्परा टूटने लगी है। उम्मीद है कि आने वाला समय भारतीय राजनीति को अधिक समावेशी बनाएगा, जिसमें समाज के प्रत्येक वर्ग की हिस्सेदारी होगी और एक नए प्रकार की राजनीतिक जमीन बनना प्रारंभ होगी।
– पार्थ उपाध्याय
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