सरकार किसानों का अरबों रुपए का ऋण माफ करने की तैयारी कर रही है किन्तु जो किसान वास्तव में ऋणगस्त हैं उन्हें इससे कोई राहत नहीं मिलेगी, क्योंकि उन्होंने साहूकारों से ऋण लिया है, जो सरकार द्वारा की गई कर्जमाफी के दायरे में नहीं आता है। वास्तव में भारत में किसान की किसी न किसी रूप में दुर्दशा हो रही है।
वे साहूकारों के जाल में फंसे हुए हैं। सदियों से ग्रामीण क्षेत्रों में ऋण बाजार पर साहूकारों का एकाधिकार है, जिसके चलते किसानों ने अपनी जमीन खो दी है। ऋण चुकाने के लिए किसानों को साहूकारों की मनमानी सहन करनी पड़ती है और जब इससे भी काम नहीं चलता है तो किसान आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाते हैं।
भारत के ग्रामीण क्षेत्र विशेषकर किसान ऋण के जाल में फंसा हुआ है। ऋण वसूल करने वालों की सार्वजनिक छवि वास्तव में 3 करोड़ किसानों की वास्तविक दुर्दशा को नहीं दशार्ता है। साहूकारों कई पीढ़ियों से यह काम कर रहे हैं, किन्तु भारत में आर्थिक प्राथमिकताओं में बदलाव, वैश्वीकरण और कृषि से उद्योग की ओर बढ़ने के साथ उनका धंधा खूब बढ़ा है।
महंगे बीजों और कीटनाशकों की उपलब्धता तथा अधिक फसल के लालच में किसानों का ऋण बढ़ा दिया है। गांव में साहूकार कृषि आदान विक्रेताओं की आड़ में अपना धंधा चलाते हैं। पिछले एक वर्ष में महाराष्ट्र में किसानों की साहूकारों पर निर्भरता में 40 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। उस दौरान साहूकारों ने 1,25,497 करोड़ रुपए का ऋण बांटा और 2015 की तुलना में इसमें 398.63 करोड़ रुपए की वृद्धि हुई।
अखिल भारतीय ऋण निवेश सर्वेक्षण, 2012 के अनुसार लगभग 48 प्रतिशत किसानों ने जमींदारों और साहूकारों जैसे अनौपचारिक क्षेत्र से ऋण लिया। वर्ष 1991 में ऐसे किसानों की संख्या 36 प्रतिशत थी, जो 2001 तक 43 प्रतिशत हो गई। जिन किसानों के पास 0.1 हेक्टेयर से कम जमीन है, उनमें से 85 प्रतिशत किसानों ने साहूकारों से ऋण लिया है।
ये छोटे किसान ऊंची ब्याज दर पर ऋण लेते हैं जबकि बड़े किसानों को रियायती दर पर ऋण मिलता है। किसानों के लिए सरकार की ब्याज रियायत योजना के अंतर्गत किसानों को 7 प्रतिशत की रियायती दर पर ऋण मिलता है और ये भी किसान ऋण का समय पर भुगतान कर देता है तो उसे 4 प्रतिशत की ब्याज दर पर ऋण मिलता है।
छोटे किसानों को औपचारिक क्षेत्र ऋण नहीं मिल पाता है इसलिए साहूकार इस अंतर की भरपाई करके संकट के समय में वह किसान की मदद करता है और अधिकतर छोटे किसानों का काम उनके बिना नहीं चल सकता है। टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोशल साइंसेज के निदेशक एस; परशुरामन के अनुसार आज साहूकार ग्रामीण अर्थव्यवस्था के इतने अभिन्न अंग बन गए हैं कि बैंक छोटे किसानों के लिए गौण या निरर्थक बन गए हैं।
यह अपेक्षा की गई थी कि समाजवादी भारत में ऋण लेने वालों के लिए बैंक लोकप्रिय बनेंगे और वस्तुत: 1970 के दशक में सामाजिक बैंकिंग को बढ़ावा मिला, किन्तु लोकप्रिय नीतियों के कारण ऋण चुकता नहीं किया गया।
इससे बैंक चिंतित रहे और आज संस्थागत ऋण लालफीताशाही की चपेट में है और बैंक वाले मानते हैं कि यदि इन किसानों को ऋण देंगे तो उनका पैसा डूब जाएगा और इसीलिए साहूकार फल-फूल रहे हैं।
साथ ही कृषि संकट ने इन साहूकारों को बढ़ावा दिया है। छोटे-मोटे दुकानदार, सरकारी कर्मचारी या पुलिसकर्मी अथवा गांव का अध्यापक जिसके पास भी थोड़ा बहुत भी अतिरिक्त पैसा होता है वह मोटा मुनाफा कमाने के लिए उसे उधार दे देता है। वे ऊंची ब्याजदर पर इस पैसे को उधार देते हैं। वे आसानी से ऋण दे देते हैं।
उसके लिए कोई गारंटी नहीं लेते हैं जिसके चलते छोटे किसानों को ऋण लेने की आदत बन गई है। ये साहूकार ऋण लेने वाले की पृष्ठभूमि की जांच नहीं करते हैं जिससे उन्हें पिछली ऋण चूक का ब्यौरा नहीं देना पड़ता है। साहूकार तुरन्त ऋण दे देते हैं और किसानों को मोटी रकम नहीं चाहिए होती है इसलिए उन्हें सबसे आसान साधन साहूकार ही लगते हैं और जबतक किसान ऋण लौटाने में चूक नहीं करता तबतक यह किसानों के लिए ऋण सबसे आसान स्रोत है।
जो किसान साहूकारों के ऋण जाल में फंस जाते हैं, उन्हें ऊंची ब्याज दरों का भुगतान करना पड़ता है और वे निरंतर इस आशा में ऋण लेते जाते हैं कि कभी न कभी अच्छी फसल होगी और उन्हें इस ऋण से मुक्ति मिलेगी। भारतीय रिजर्व बैंक ने 1950 के दशक के आरम्भ में अखिल भारतीय ग्रामीण ऋण सर्वेक्षण प्रकाशित कराया था जिसमें साहूकारों की भूमिका और कार्यों की जांच की गई।
उस समय वे ऋण उपलब्ध कराने का एक बड़ा स्रोत थे। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत में कृषि ऋण के संबंध में दोहरी समस्या है। पर्याप्त मात्रा में ऋण नहीं मिल पाता है और ऋण का भुगतान नहीं किया जाता है। रिपोर्ट में कृषि ऋण की समस्या के समाधान में साहूकारों को अधिक महत्व नहीं दिया गया था।
उसके बाद सभी गांव में सहकारी समितियों का गठन किया गया और इस योजना में भी साहूकारों को कोई स्थान नहीं दिया गया। इसका उद्देश्य साहूकारों के विकल्प के रूप में एक सकारात्मक संस्थागत प्रणाली स्थापित करना था। ताकि किसान साहूकारों के ऋण के जाल से बच सके।
साहूकारों के स्थान पर संस्थागत ऋण प्रणाली स्थापित करने के बारे में अनेक समितियों के गठन और उनकी रिपोर्टों के बावजूद साहूकार आज भी ग्रामीण भारत में वित्तीय प्रणाली की आधारशिला बना हुआ है और हमें इस कटु सच्चाई से दो-चार होना पड़ेगा। नोबल पुरस्कार विजेता गुन्नार म्रिडल ने अपनी पुस्तक एशियन ड्रामा में पांच दशक पूर्व जिस स्थिति का चित्रण किया है वह आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है।
हालांकि सरकारी और निजी क्षेत्र द्वारा किसानों को औपचारिक वित्तीय प्रणाली में लाने का अथक प्रयास किया गया है। गुन्नार म्रिडल ने लिखा था- जब साहूकार को लगता है कि वह ऋणी की चूक से लाभान्वित हो सकता है, तो वह पूरी ग्रामीण अर्थव्यवस्था का दुश्मन बन जाता है। ऊंची ब्याज दर वसूल कर या किसानों को अधिक ऋण का लालच देकर साहूकार उस प्रक्रिया में तेजी लाता है जिससे किसान का अंत होता है।
-मोइन काजी
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