उत्तर प्रदेश के आगरा में भाजपा नेता की हत्या के बाद भीड़ ने ही दो हमलावरों में से एक को पीट-पीटकर मार डाला। दिल्ली में खुलेआम दो लड़कों को पेशाब करने से रोकने पर गतदिनों एक ई-रिक्शा चालक की पीट-पीट कर हत्या कर दी गई। कुछ दिनों पहले आनंद विहार इलाके में कवि देवीप्रसाद मिश्र को सड़क पर खुलेआम पेशाब कर रहे डीटीसी बस के चालक और परिचालक ने टोकने पर बुरी तरह मारा-पीटा था।
इधर किसान आन्दोलन हो या गौरक्षा का मसला-हिंसा एवं अशांति की ऐसी घटनाएं देशभर में लगातार हो रही हैं। महावीर, बुद्ध, गांधी के अहिंसक देश में हिंसा का बढ़ना न केवल चिन्ता का विषय है बल्कि गंभीर सोचनीय स्थिति को दर्शाता है। सभ्य समाज में किसी की भी हत्या किया जाना असहनीय है लेकिन जिस तरह से भीड़तंत्र के द्वारा कानून को हाथ में लेकर किसी को भी पीट-पीटकर मार डालना अमानवीयता एवं क्रूरता की चरम पराकाष्ठा है।
दिल्ली के जीटीबी नगर मेट्रो स्टेशन के पास कार से उतर कर खुले में पेशाब कर रहे दो युवकों को ई-रिक्शा चालक रवींद्र कुमार ने टोका तो वह अपने नागरिक होने की जिम्मेदारी को ही पूरा कर रहा था। उस समय तो वे दोनों युवक वहां से चले गए और रात करीब आठ बजे अपने बीस-पच्चीस साथियों को लेकर आए।
उन लोगों ने रवींद्र कुमार को इतना पीटा कि अस्पताल पहुंचते-पहुंचते उसकी मौत हो गई। इस घटना से स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इतने मर्माहत हुए कि विदेश दौरे पर होने के बावजूद उन्होंने इसकी तीखी निंदा की और अधिकारियों को दोषियों का पता लगाने और उनके खिलाफ तत्काल कार्रवाई करने के निर्देश दिए। सरकार ने मृतक के परिवार को भले ही नौकरी दी हो, मुआवजा देकर अपना कर्त्तव्य पूरा किया हो,
लेकिन प्रश्न यह है कि व्यक्ति हिंसक एवं क्रूर क्यों हो रहा है? सवाल यह भी है कि हमारे समाज में हिंसा की बढ़ रही घटनाओं को लेकर सजगता की इतनी कमी क्यों है? एक सभ्य एवं विकसित समाज में अनावश्यक हिंसा का बढ़ना विडम्बनापूर्ण है। ऐसे क्या कारण है जो हिंसा एवं अशांति की जमीं तैयार कर रहे हैं। देश में भीड़तंत्र हिंसक क्यों हो रहा है?
मनुष्य-मनुष्य के बीच संघर्ष, द्वेष एवं नफरत क्यों छिड़ गयी है? कोई किसी को क्यों नहीं सह पा रहा है? प्रतिक्षण मौत क्यों मंडराती दिखाई देती है? ये ऐसे सवाल हंै जो नये बनते भारत के भाल पर काले धब्बे हैं। ये सवाल जिन्दगी की सारी दिशाओं से उठ रहे हैं और पूछ रहे हैं कि आखिर इंसान गढ़ने में कहां चूक हो रही है? यह किसी भारी चूक का ही परिणाम है कि झारखंड में बच्चा चोरी की अफवाहों के चलते क्रुद्ध भीड़ ने 6 लोगों को पीट-पीटकर मार डाला था। यह कहां का न्याय है। यह कहां की सभ्यता है।
हत्या का शिकार कोई एक समाज या धर्म का व्यक्ति नहीं होता बल्कि सभी समुदायों के लोग इसका शिकार हो रहे हैं। ऐसा लगता है कि अपराधियों और अराजक तत्वों को कानून का कोई खौफ नहीं है। जिस तरह से सीतापुर में बिजनेसमैन के परिवार के 3 सदस्यों की घर की पार्किंग में घुस कर हत्या की गई और जिस तरह से हरियाणा के जींद में राह चलते एक युवक की हत्या की गई उससे स्पष्ट हो जाता है कि हिंसा करने वालों को कानून से कोई डर नहीं लगता।
कानून के दुश्मनों के निशाने पर पुलिस वाले भी आ गए हैं। उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था को लेकर होहल्ला मचाया जा रहा है लेकिन कानून व्यवस्था की बदतर हालत तो अन्य कई राज्यों में है। तेजी से बढ़ता हिंसक दौर किसी एक प्रान्त का दर्द नहीं रहा। इसने हर भारतीय दिल को जख्मी बनाया है। अब इन हिंसक होती स्थितियों को रोकने के लिये प्रतीक्षा नहीं, प्रक्रिया आवश्यक है।
यदि समाज में पनप रही इस हिंसा को और अधिक समय मिला तो हम हिंसक वारदातें सुनने और निर्दोष लोगों की लाशें गिनने के इतने आदी हो जायेंगे कि वहां से लौटना मुश्किल बन जायेगा। इस पनपती हिंसक मानसिकता के समाधान के लिये ठंडा खून और ठंडा विचार नहीं, क्रांतिकारी बदलाव के आग की तपन चाहिए।
कितने असुरक्षित हैं हम? निर्दोष मारा जा रहा है और अपराधी साफ-साफ बच निकलता है। राजनीति की छांव तले होने वाली भीड़तंत्र की वारदातें हिंसक रक्तक्रांति का कलंक देश के माथे पर लगा रहे हैं चाहे वह एंटी रोमियो स्क्वायड के नाम पर हो या गौरक्षा के नाम पर।
कहते हैं भीड़ पर किसी का नियंत्रण नहीं होता। वह आजाद है, उसे चाहे जब भड़काकर हिंसक वारदात खड़ी की जा सकती है। उसे राजनीतिक संरक्षण मिला हुआ है जिसके कारण वह कहीं भी कानून को धत्ता बताते हुए मनमानी करती है। भीड़ इकट्ठी होती है, किसी को भी मार डालती है। जिस तरह से भीड़तंत्र का सिलसिला शुरू हुआ
उससे तो लगता है कि एक दिन हम सब इसकी जद में होंगे। जब एक पुलिस वाला किसी को भी झूठे केस में फंसाने की तरकीबें स्टिंग आपरेशन में बताएगा तो फिर पुलिस वालों का खौफ कहां बचेगा? किसी भी राज्य में हिंसक घटनाओं का ग्राफ तब बढ़ता है जब अपराधियों और पुलिस में सांठगांठ हो जाए।
हिंसा एवं अराजकता की बढ़ती इन घटनाओं के लिये केकड़ावृत्ति की मानसिकता जिम्मेदार है। जब-जब जनता के निर्णय से राजनीतिक दल सत्ता से दूर हुए हैं, उन्होंने ऐसे ही अराजक एवं हिंसक माहौल निर्मित किये हैं। आज राजनेता अपने स्वार्थों की चादर ताने खड़े हैं अपने आपको तेज धूप से बचाने के लिये या सत्ता के करीब पहुंचने के लिये।
सबके सामने एक ही अहम सवाल आ खड़ा है कि ‘जो हम नहीं कर सकते है, वो तुम कैसे करोगे?’ लगता है इसी स्वार्थी सोच ने, आग्रही पकड़ ने, राजनीतिक स्वार्थ की मनोवृत्ति ने देश को हिंसा की आग में झोंक रखा है। महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में किसानों का आन्दोलन एवं किसानों के आत्महत्या करने की घटनाएं इसी की निष्पत्ति हैं।
राजनीतिक स्वार्थों के लिये हिंसा को हथियार बनाया जा रहा है। किसी न किसी विचारधारा से जोड़कर अपनी सेनाएं बना लेने की परम्परा विकसित की जा रही हैं, कोई भीम सेना बना रहा है, तो कोई रावण सेना, कोई अपना ही रक्षक दल बना रहा है, तो कोई अल्पसंख्यकों की अपनी सेना गठित कर रहा है। बहुसंख्यक अपनी सेना बना रहा है तो हर गली-मौहल्ले में भी ऐसे ही संगठन हिंसा करने के लिये खड़े किये जा रहे हैं।
सहारनपुर के दंगे इस बात का प्रमाण हैं कि ये सेनाएं कैसे समाज में विष घोल रही हैं। भीड़तंत्र भेड़तंत्र में बदलता जा रहा है। इस लिहाज से सरकार को अधिक चुस्त होना पड़ेगा। कुछ कठोर व्यवस्थाओं को स्थापित करना होगा, अगर कानून की रक्षा करने वाले लोग ही अपराधियों से हारने लगेंगे तो फिर देश के सामान्य नागरिकों का क्या होगा? देश बदल रहा है, हम इसे देख भी रहे हैं।
एक ऐसा परिवर्तन जिसमें अपराधी बेखौफ घूम रहे हैं और भीड़ खुद फैसला करने लगी है। हिंसा ऐसी चिंनगारी है, जो निमित्त मिलते ही भड़क उठती है। इसके लिये सत्ता के करीबी और सत्ता के विरोधी हजारों तर्क देंगे, हजारों बातें करेंगे लेकिन यह दिशा ठीक नहीं है। जब समाज में हिंसा को गलत प्रोत्साहन मिलेगा तो उसकी चिंनगारियों से कोई नहीं बच पायेगा।
-ललित गर्ग
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