International Widows Day : अंतरराष्ट्रीय विधवा दिवस प्रत्येक वर्ष 23 जून को मनाया जाता है। यह दिवस विधवाओं के अधिकारों को लेकर समाज में जागरूकता फैलाने और उनके सशक्तिकरण की दिशा में कदम उठाने का एक महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करती है। इसकी शुरूआत संयुक्त राष्ट्र द्वारा 2011 में की गई थी, ताकि विधवाओं के प्रति समाज में व्याप्त भ्रांतियों को दूर किया जा सके और उन्हें समुचित अधिकार, सम्मान एवं समान अवसर प्रदान किए जा सकें। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार, दुनियाभर में विधवाओं की कुल संख्या लगभग 25.8 करोड़ है। इनमें से कम से कम 13.6 करोड़ बाल विधवाएं हैं, जो अपने जीवन के आरंभिक चरण में ही विधवा हो गई हैं। International Widows Day
विधवाओं के सामने अनेक सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक चुनौतियां होती हैं, जो उनके भविष्य को गहराई से प्रभावित करती हैं। वर्ष 1829 में तत्कालीन वायसराय लार्ड विलियम बैटिंक के प्रयासों से देश में सती प्रथा का कानूनी उन्मूलन संभव हो पाया था। इससे पूर्व देश में विधवाओं को बल प्रयोग या दबाव के माध्यम से अपने पति की चिता पर जिंदा जला दिया जाता था। हालांकि विधवाओं के साथ भेदभाव और दुर्व्यवहार का सिलसिला आज भी कायम है।
2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में कुल 5.6 करोड़ विधवाएं हैं। यह संख्या इतनी बड़ी है कि कई देशों की कुल आबादी भी इसके बराबर नहीं है। उदाहरण के लिए, केन्या और म्यांमार जैसे देशों की कुल आबादी भी इतनी नहीं है। यही नहीं देश में विधवाओं की कुल संख्या इटली और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों की कुल आबादी के लगभग बराबर है। विधवाओं की बड़ी तादाद का होना देश में समाज और सरकार के सामने एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। भारत में विधवाओं को अक्सर सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है। International Widows Day
भेदभाव विधवाओं के जीवन के हर पहलू को प्रभावित करता है
पारंपरिक दृष्टिकोण और मान्यताओं के कारण कई बार उन्हें समाज में दूसरे दर्जे का नागरिक समझा जाता है। यह भेदभाव उनके जीवन के हर पहलू को प्रभावित करता है। विधवाएं समाजिक भेदभाव, आर्थिक असुरक्षा और मानसिक उत्पीड़न का सामना करती हैं। कई बार इन्हें अपनी संपत्ति के अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता है और समाज में इन्हें एक कमजोर वर्ग के रूप में देखा जाता है।
भारत में बनारस और वृंदावन दो ऐसे शहर हैं, जो ‘विधवाओं के शहर’ के रूप में विख्यात रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार, बनारस में 38 हजार, जबकि वृंदावन में 20 हजार विधवाएं हैं। इन शहरों में बने दर्जनों विधवाश्रम उन हजारों विधवाओं के लिए पनाहगार बने हुए हैं, जो परिवार से तिरस्कृत, सुख-साधन से वंचित और ईश्वरीय अराधना में लीन होकर मौत का सुखद इंतजार कर रही हैं। विधवापन या विधुर होना निश्चय ही इस सृष्टि के सबसे पीड़ादायक अनुभवों में से है। सात जन्मों का साथ निभाने का वादा करने वाले जीवनसाथी के खोने से जीवन में खालीपन आना स्वाभाविक है। यह अनुभव स्त्री और पुरुष दोनों के लिए अत्यंत कष्टदायक और तनावपूर्ण होता है।
विधुर होने के बाद पुरुषों पर भी दु:खों का पहाड़ टूट पड़ता है, लेकिन समाज में उनके दर्द को अक्सर उन महिलाओं की तुलना में कमतर आंका जाता है, जो विधवा होती हैं। विधुरों के दर्द को भी उतनी ही संवेदनशीलता और सहानुभूति के साथ देखना चाहिए, जितना कि विधवाओं के दर्द को देखा जाता है। हालांकि यह भी सत्य है कि विधवापन की त्रासदी का सामना अधिकांशत: महिलाओं को ही करना पड़ता है। उन्हें समाज में अपनी पहचान और आत्मसम्मान के लिए संघर्ष करना पड़ता है। उनके पास अपने अधिकारों के बारे में जागरूकता की कमी होती है और वे समाज के अन्यायपूर्ण नियमों और परंपराओं का शिकार होती हैं।
विधवा बनना एक गहरी व्यक्तिगत त्रासदी है
विधवाओं का सामाजिक जीवन चुनौतिपूर्ण होता है। सामाजिक मान्यताओं के कारण विधवाओं को विभिन्न धार्मिक और सामाजिक आयोजनों में शामिल होने से रोका जाता है। उन्हें अशुभ और दुर्भाग्य का प्रतीक माना जाता है, जिससे उनकी सामाजिक स्थिति और भी दयनीय हो जाती है। विधवा बनना एक गहरी व्यक्तिगत त्रासदी है। ऐसे समय में जब वह अकेलेपन से जूझती है, समाज उनसे अमानवीय व्यवहार करता है। नि:संदेह विधवापन एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, लेकिन प्राकृतिक मौत और बीमारी के अलावे सशस्त्र संघर्ष, विस्थापन, आपदा और प्रवासन के कारण भी महिलाएं असमय अपनी जीवनसाथी को खो देती हैं।
महिलाओं पर आज भी अपने पति की मौत के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। विधवाएं सामान्य महिलाओं से अलग वेशभूषा व श्रृंगार धारण करने को अभिशप्त होती हैं। पति की मौत के बाद महिलाओं का आत्मविश्वास कमजोर हो जाता है। ईश्वरचंद विद्यासागर के प्रयासों से 1856 में विधवा पुनर्विवाह अधिनियम ने कानूनी स्वरूप तो ले लिया, लेकिन आज भी विधवा महिलाएं पति की मौत के बाद दूसरे विवाह के बारे में सोच नहीं पाती हैं। फलस्वरूप ऐसी अधिकांश महिलाएं उदासी और दयनीय जीवन जी रही होती हैं।
विधवाओं के समक्ष आर्थिक सुरक्षा का अभाव दिखाई देता है। दरअसल आत्मनिर्भर न होने के कारण पति के निधन के बाद तथा पारिवारिक संपत्ति में अधिकार न मिलने के कारण अधिकांश विधवाओं के पास आय के स्रोत समाप्त हो जाते हैं। नौकरी की इच्छुक विधवाओं को कई बार भेदभाव का सामना करना पड़ता है। विधवाओं के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण के कारण भी उन्हें वित्तीय सहायता प्राप्त करने में कठिनाई होती है। बहुत सी विधवाओं के पास शिक्षा और कौशल की कमी होती है, जिससे वे रोजगार प्राप्त नहीं कर पाती हैं।
जीवन गुजारने के लिए विधवाएं मजदूरी करने, भीख मांगने को मजबूर होती हैं
वहीं विधवाओं को सरकारी योजनाओं और सुविधाओं के बारे में जानकारी न होने के कारण भी आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। आर्थिक स्रोतों तक पहुंच के अभाव के कारण विधवाएं बच्चों की शिक्षा, सेहत और भरण-पोषण पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाती हैं। इससे उनकी गरीबी और भी बढ़ जाती है। अपना जीवन गुजारने के लिए विधवाएं मजदूरी करने, भीख मांगने के लिए मजबूर होती हैं।
विधवाओं को अपनी स्थिति से बाहर निकालने और उन्हें समाज में सम्मानित स्थान दिलाने के लिए बहुत सारे प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। समाज को यह समझना होगा कि विधवापन एक जीवन का अंत नहीं, बल्कि एक नया अध्याय है। उन्हें आत्मनिर्भर बनाने और उन्हें समाज के मुख्यधारा में लाने के लिए शिक्षा, रोजगार और सामाजिक समर्थन की आवश्यकता होती है। अत: विधवाओं और विधुरों दोनों के दर्द को समझना और उनकी सहायता करना समाज की जिम्मेदारी है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि वे अपनी पहचान और आत्मसम्मान के साथ एक सम्मानजनक जीवन जी सकें। International Widows Day
सुधीर कुमार (यह लेखक के अपने विचार हैं)
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