– Media Democracy –
देश में लोकसभा चुनावों के लिए मतदान के दो चरण पूरे हो चुके हैं। पार्टियों द्वारा आज भी टिकट बांटने का कार्य जारी है। मीडिया भी चुनावों की हर बारीकी को पेश करने के लिए उतावला रहता है परंतु अति उत्साह में मीडिया का एक वर्ग भी लोकतंत्र (Media Democracy) के नियमों को नजरअंदाज कर रहा है। मीडिया इस बात को बड़ी तव्वजो दे रहा है कि किस धर्म को, किस जाति के नेता को टिकट दी गई। सुर्खियों में आम पढ़ा जाता है कि उस पार्टी ने जाट चेहरे पर दाव खेला, कहीं लिखा होता है पार्टी हिंदू चेहरे की तलाश कर रही है या सिख चेहरा ढूंढ रही है। ऐसा कुछ ही खत्री, कम्बोज और अन्य जातियों संबंधी धड़ाधड़ लिखा जाता है। ऐसी शब्दावली समाज में जातिवाद की ढीली पड़ रही पकड़ को फिर मजबूत करती है।
पार्टी की अदरुनी रणनीति को जाहिर करने की होड़ में मीडिया भी उसी पिछड़ी सोच को उभारने का कार्य कर जाता है जिसे खत्म करने के लिए लोकतंत्र समानता की भावना और इंसानियत का आगे लाने के लिए प्रयत्नशील है। वास्तव में अंग्रेजों द्वारा चलाई गई संप्रदायिक चुनाव प्रणाली को हमारे आजाद लोकतंत्र और मानववादी संविधान ने खत्म कर दिया था। मीडिया फिर संप्रदायिक व जातिसूचक शब्द प्रयोग कर नई पीढ़ी की मानसिकता में जातिवाद की जड़ें गहरी करने का काम अनजाने में ही कर रहा है। बेशक पार्टियां टिकट बांटते समय धर्म, जाति को ध्यान में रखती हैं फिर भी पार्टियां अपनी इस कमजोरी को लोकतंत्र विरोधी होने के कारण सरेआम गाने से परहेज करती हैं। मीडिया को भी इस मामले में संयम और मर्यादा रखनी चाहिए।