बुजुर्गों ने सांझा की गुजरे जमाने की यादें | Remembers
ओढां (सच कहूँ/राजू)। Remembers: समय के साथ हर चीज में बदलाव आता है, बात चाहे रिश्ते-नातों की हो या आपसी मेलजोल की, या फिर खानपान की। बड़े बुजुर्गों का कहना है कि काश वो वक्त फिर लौट आए, लेकिन ऐसा असंभव है। जब उनसे गुजरे हुए उस वक्त की बात करते हैं तो उनके झुर्रियों भरे चेहरों पर एक अलग ही मुस्कान लौट आती है। Sirsa News
एक वो वक्त था जब खेतों में अनाज निकालने का दौर कई-कई महीने चलता था और एक ये दौर है जहां चंद घंटों में ही अनाज घर व मंडी में पहुंच जाता है। यानी वैज्ञानिक युग में अब कुछ भी असंभव नहीं रहा। इस बारे गांव नुहियांवाली के कुछ बुजुर्गों ने अतीत में झांकते हुए अपनी बातों को कुछ यूं बताया।
देसी खानपान की जगह आया फास्ट फूड | Remembers
- देसी खानपान की जगह आया फास्ट फूड
टेम तो म्हारे आला था, अब तो टेम पास है। हमारे समय में बारानी फसल होती थी, जिसमें चना, ग्वार, मूंग व मोठ ही मुख्य थे। एक माह तक तो फसल काटते और फिर उतना ही समय फसल को निकालने में लगता था। चने की फसल एक जगह इकट्ठी कर लेते और फिर कृषि यंत्रों की सहायता से उसकी कुटाई करते। फिर ऊंटों को उसके ऊपर सुबह से लेकर शाम तक घुमाते। एक-दूसरे का ऊंट मांगकर ले जाते थे, ताकि अनाज जल्दी निकले। दिन में अनाज निकालते और रात को ऊंटों पर लादकर घर लाते।
चने की फसल को कई-कई वर्षों तक बुखारी (भंडारण की जगह) में डालकर उस पर बालू रेत डालकर ढक कर रखते थे। उस समय चने के दाम करीब 5 रुपये प्रति मण था। कार्य भले ही कठिन था, लेकिन कभी थकान महसूस ही नहीं होती थी। लेकिन आज लोग मशीनों पर आश्रित हो गए हैं और देसी खानपान की जगह फास्ट फूड ने ले ली। जिसके चलते बीमारियों ने घरों मेंं डेरा डाल रखा है।
– देवीलाल (87 वर्षीय)
मशीनी युग में सुविधा के साथ बड़ी परेशानी | Sirsa News
टेम-टेम की बात है। जमाना तो वो था, हम फसल निकालते थे तो अड़ोसी-पड़ोसी एक-दूसरे का सहयोग करते थे। मुझे अच्छी तरह याद है एक बार चने के दाम बढ़कर 7-8 रुपये प्रति मण तक पहुंच गए थे। जिस पर लोगों ने बड़ी खुशी मनाई। गेहूं नाममात्र ही होती थी। लोग जमाने का इंतजार करते थे कि जमाना आएगा और बहुत सारी फसल होगी। खेतों में काम करते-करते मिलकर बैठकर छाछ, दलिया व हलवा खाना और फिर रात को ठंडी हवा में फसल के ढेर पर ही सो जाना। वो जमाना कुछ और ही था। अब तो लोगों को नींद के लिए गोलियां लेनी पड़ती है। क्योंकि मशीनी युग सुविधा के साथ-साथ बहुत सारी टेंशन भी लेकर आया है।
– भागाराम (80 वर्षीय)
कई-कई साल बखारी में रखते थे अनाज
टेम-टेम गी बातां है। उस समय न बिजली थी और न ही नहरें। सब तरफ बारानी भूमि थी। पीने के लिए दूर-दराज से ऊंटों पर लादकर पानी लाते और फिर फसल काटने में जुट जाते। पूरा परिवार फसल काटने में मदद करता था। फसल जब निकल जाती तो पहला छाज भरकर अलग रख लेते, जिसे बेचकर मिठाई लाते थे। घर के बच्चे अनाज मांगते जिसे देसी भाषा में रिड़ी कहा जाता था। Sirsa News
ऊंटों से अनाज के ढेर को खुरगा करते और उसके बाद हवा देखकर सफाई हेतु चने बरसाते थे। लोग फालतू के खर्च से बचते थे, अकाल की आशंका के चलते अनाज को कई-कई सालों तक बखारी में भरकर रखते थे। उस टेम लोगों में प्रेम-स्नेह तथा रिश्तों के प्रति वफादारी बहुत थी। लेकिन वक्त के साथ सब-कुछ बदल गया है, काश! वो वक्त फिर लौट आए। – चेतराम (80 वर्षीय)
त्यौहारों पर गुड़ से बनाते थे पकवान | Remembers
ना वो टेम रेहया और ना वो माणस। उस समय लोग सीधे-साधे और दिल के बहुत सच्चे थे। मुझे अच्छी तरह याद है, अढ़ाई बीघा जमीन में 50 मण चना हुआ जिसे हमने सहजकर रखा था कि इसे बेचकर बहन की शादी करेंगे। शादी बड़ी धूमधाम से की जिस पर 200 रुपये का खर्च आया। उस समय गुड़ को भी संभाल कर व छुपाकर रखते थे। मुझे वो समय भी याद है जब मेरी मां ने कुछ गुड़ और शक्कर को यह कहकर घड़े में डालकर ऊपर से मिट्टी से बंद कर दिया था कि कुछ महीने बाद त्यौहार में काम आएगा, क्यों फालतू का खर्चा करें। आखा तीज के दिन देसी घी का हलवा व खीर बनती थी। बहुत अनाज होता था। खास बात यह भी थी कि फसलों में कोई बीमारी नहीं होती थी। – मनफूल (84 वर्षीय)
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