गत वर्षों से विशेषज्ञ इस बात को दोहराते जा रहे हैं कि भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र में कई प्रकार की खामियां विद्यमान हैं। कहीं न कहीं समय-समय की सरकारों द्वारा पर्याप्त उपाय करने में कमी रह गई, जिसके कारण अब तक सभी वर्गों के लोगों को स्वास्थ्य उपचार का लाभ नहीं प्राप्त हो रहा। इस संबंध में हाल ही में उच्चतम न्यायालय के एक आदेश पर विशेष ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। इस आदेश में सभी अस्पतालों और चिकित्सकीय प्रतिष्ठानों को निर्देश दिया है कि वे रोगियों के लाभ के लिए उपलब्ध करवाएं। सभी प्रकार की सेवाओं और सुविधाओं की दरों की सूची को अंग्रेजी तथा स्थानीय भाषाओं में प्रमुख स्थाानों पर प्रदर्शित करें और साथ ही केन्द्र सरकार द्वारा प्रत्येक प्रकार की प्रक्रिया और सेवा के लिए जारी की गई दरों को प्रदर्शित करें। Supreme Court
न्यायमूर्ति बीआर गवई और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की खंडपीठ गैर सरकारी संगठन वेटरन्स फोरम फोर टांसपैरेंसी इन पब्लिक लाइफ द्वारा दायर की गई याचिका पर सुनवाई कर रहे थे। जनहित याचिका में चिकित्सकीय खर्चों पर स्पष्टता की मांग की गई और केन्द्र से आग्रह किया गया कि क्लिनिकल एस्टेब्लिसमेंट रूल्स 2012 के नियम 9 के आधार पर रोगियों से ली जाने वाली शुल्क की दर निर्धारित की जाए और इस संबंध में यह निर्णय महत्वपूर्ण है।
अस्पतालों की दशा में सुधार अवश्य हुआ है | Supreme Court
आज देश में स्वास्थ्य का मुद्दा बेहद चिंताजनक स्थिति में है। कई अस्पतालों ने इसे व्यवसाय बन लिया है और निजी अस्पतालों में मध्यवर्गीय लोग अधिक दरों पर उपचार करवाने में सक्षम नहीं हैं। दरअसल, अब प्रश्न उठता है कि गरीब लोगों को समुचित उपचार कैसे मिले। देश में इस बात का सर्वेक्षण नहीं किया गया है कि कितने गरीब लोगों का समुचित ढंग से निदान किया गया है और उनमें से कितने लोगों को उपचार मिला है। इसके अलावा निजी क्षेत्र में उपचार की लागत अधिक है विशेषकर जीवन को खतरा पैदा करने वाले रोगों के उपचार की लागत अत्यधिक है।
सभी जानते हैं कि आज तक देश में संचालित ग्रामीण स्वास्थ्य केन्द्रों और अस्पतालों की दशा में सुधार अवश्य हुआ है, नई-नई मशीनों को इंस्टाल किया गया है। यही नहीं आयुष्मान भारत योजना बेहद कारगर साबित हो रही है। गरीबों व मध्यवर्गीय लोगों को पांच लाख रुपये तक के निशुल्क उपचार की सुविधा का लाभ मिल रहा है। देशभर के कई जिलों में स्थानीय स्तर पर डिस्पेंसिरयां खोली गई हैं और अस्पतालों को भी अपग्रेड किया गया है, फिर भी अस्पतालों में डॉक्टरों भी कमी है। कई जगहों पर उपकरणों की कमी है, विशेष उपचारों का अभाव है।
यह तभी हो सकता है जब स्वास्थ्य सुविधाएं सस्ती दरों पर उपलब्ध हों
कुछ विशेषज्ञ प्रश्न उठाते हैं कि इस बारे में भी कोई सर्वेक्षण नहीं किया गया है कि समाज के निचले वर्ग के लोगों को समुचित उपचार कराने के लिए कितना पैसा खर्च करना पड़ता है, उनमें से कितने लोग ये उपचार करा पाते हैं और उन्हें इस उपचार के लिए कितनी दूर जाना पड़ता है। ऐसा पाया गया है कि गरीब लोगों को अपने उपचार के लिए अपनी अचल संपत्ति, भूमि, भवन, गहनों आदि को बेचना पड़ता है या भारी उच्च दरों पर ऋण लेना पड़ता है। उपचार की दरों के मानकीकरण के लिए आदेश दशकों पहले लिए जाने चाहिए थे ताकि सभी वर्गों को स्वास्थ्य लाभ प्राप्त हो सके। न्यायालय के इस निर्णय पर यदि गंभीरता से कार्य किया जाए तो इससे आम आदमी को काफी फायदा होगा। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार होना चाहिए किंतु यह तभी हो सकता है जब स्वास्थ्य सुविधाएं सस्ती दरों पर उपलब्ध हों। Supreme Court
बीमा नियामक ने पहल की है कि बीमाकर्ता किसी भी निजी अस्पताल या नर्सिंग होम में कैशलेस उपचार ले सकता है चाहे वह अस्पताल या नर्सिंग होम बीमा कंपनी के नेटवर्क में हो या नहीं। पहले ऐसे नर्सिंग होम में उपचार कराने के लिए जो बीमा कंपनी के नेटवर्क में शमिल नहीं थे, रोगियों को पूरी राशि का भुगतान करना पड़ता था और फिर उसे प्राप्त करने के लिए एक जटिल प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था। इससे मध्यम वर्ग के लोगों को फायदा होगा जो ऐसी बीमा सुविधा का लाभ उठाते हैं।
20 प्रतिशत बिस्तर गरीब लोगों के लिए आरक्षित किए जाएं
नि:संदेह स्वास्थ्य एक महत्वपूर्ण मानव कल्याण है और इस मुद्दे पर समग्रता से विचार किया जाना चाहिए और इस संबंध में प्रभावी समाधान ढूंढे जाने चाहिए। न्यायपालिका ने उचित हस्तक्षेप किया है। अब यह केन्द्र सरकार पर निर्भर करता है कि वह राज्यों को निर्देश दें कि वह निजी नर्सिंग होमों के कार्यकरण पर अंकुश लगाए और न केवल यह सुनिश्चित करें कि उपचार की दरों का मानकीकरण किया जाए अपितु यह भी सुनिश्चित करें कि कम से कम 20 प्रतिशत बिस्तर गरीब लोगों के लिए आरक्षित किए जाएं जिनसे शल्य चिकित्सा की केवल वास्तविक लागत और डॉक्टरों की न्यूनतम फीस वसूल की जाए। केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा इस संबंध में प्रभावी कदम नहीं उठाए जाते।
हो सकता है कि ऐसा समय आए जब न्यायपालिका पुन: हस्तक्षेप करे और राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करने का निर्देश कि गरीब लोगों को बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित न रखा जाए। सामाजिक-आर्थिक विकास बेहतर स्वास्थ्य से जुडा हुआ है और इस संबंध में न्यायालय के इस आदेश का यदि पालन किया जाए तो यह निजी स्वास्थ्य केन्द्रों के कार्यकरण में आमूल-चूल बदलाव लाएगा। Supreme Court
धुर्जति मुखर्जी (यह लेखक के अपने विचार हैं)