उत्तराखण्ड के जनपद उत्तरकाशी के यमुनोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर धरासू और बड़कोट के बीच सिल्क्यारा के नजदीक निमार्णाधीन करीब 4531 मीटर लम्बी सुरंग है जिसमें सिल्क्यारा की तरफ से 2340 मीटर और बड़कोट की तरफ से 1600 मीटर निर्माण हो चुका है। यहां बीती 12 नवम्बर, सुबह करीब पांच बजे सिल्क्यारा की तरफ से करीब 270 मीटर अन्दर, करीब 30 मीटर क्षेत्र में ऊपर से मलबा सुरंग में गिरने की वजह से 41 लोग फंस गये थे। Uttarkashi Tunnel Collapse
यह टनल चार धाम रोड प्रोजेक्ट के तहत बनाई जा रही है, जो हर मौसम में खुली रहेगी। टनल कटिंग का करीब 90 प्रतिशत काम पूरा हो चुका है। हाल ही में अधिकारियों ने दावा किया था कि टनल के अंदर दिसंबर तक वाहनों की आवाजाही शुरू हो जाएगी. मजदूरों के फंस जाने की खबर से देशवासी चिंतित हैं। मजदूरों को बाहर निकालने के लिए बचाव कार्य जारी हैं। इस दुर्घटना का सबसे दुखद पक्ष यह है कि इस सुरंग का एक हिस्सा 2019 में भी धंसा था। संयोग है कि उस वक्त कोई मजदूर उसमें नहीं फंसा था। Uttarkashi Tunnel Collapse
इस हादसे ने एक बार फिर दुर्गम और पहाड़ी क्षेत्रों में विकास कार्यों के स्याह पक्ष को रेखांकित किया है। यह स्याह पक्ष है विकास परियोजनाओं के चलते कुछ ही देर की तेज बरसात से पहाड़ों के भरभरा कर गिरने और भूस्खलन की बढ़ती घटनाओं का। कमजोर होते पहाड़ों की वजह से जब-तब आने वाली आपदा का। उत्तरकाशी की मिट्टी बहुत नर्म है। इसके चलते ऊपर से चट्टानें, मिट्टी आदि लगातार नीचे गिर रही है। इसके कारण भी बचाव कार्य में बड़ी दिक्कतें आ रही हैं।
संतुलन कायम करना वक्त की सबसे बड़ी जरूरत | Uttarkashi Tunnel Collapse
दूसरी तरफ सडकों और पनबिजली योजनाओं के जरिए उत्तराखंड जैसे राज्य के दुर्गम और विकास से अछूते क्षेत्रों की आर्थिक विकास को संभव बनाने का उजला पक्ष भी है। जाहिर है कि इस उजले और स्याह पक्ष के बीच संतुलन कायम करना वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है। यह जरूरत इसलिए भी है क्योंकि पहाड़ ही नहीं बचेंगे तो सडकों के बिछते जाल और दूसरी बुनियादी सुविधाएं जुटाने का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। Uttarakhand News
संतुलन भी तभी संभव है जबकि किसी भी तरह की परियोजनाओं को धरातल पर उतारने से पहले उनसे जुड़े नफा-नुकसान का पूर्व आकलन ठीक से कर लिया जाए। जान जोखिम में डालकर निर्माण कार्यों में जुटे श्रमिकों की सुरक्षा भी हर मोर्चे पर सुनिश्चित करनी होगी। ऐसा तब ही संभव होगा जब तमाम एहतियाती कदम भी उठा लिए जाएं। सवाल यही है कि आखिर निर्माण प्रक्रिया में गुणवत्ता प्रबंधन की ‘शून्य दोष’ अवधारणा सिर्फ किताबों तक ही सीमित क्यों रहे? यह सही है कि आपदा कभी कह कर नहीं आती और न ही ऐसे हादसों का पूवार्नुमान संभव है। लेकिन इस हादसे में तो आपदा प्रबंधन में जुटे अधिकारियों ने भी माना है कि यदि बेहतर सुरक्षा उपाय और अलार्म सिस्टम होता तो मजदूर इस तरह से सुरंग में नहीं फंसते।
पूरी हिमालयीन पर्वत श्रृंखला अपेक्षाकृत पृथ्वी पर होने वाला नया प्राकृतिक निर्माण
अक्सर हादसे होने के बाद ही तकनीकी खामियां उजागर होती हैं, पहले इनकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता। बाद में लकीर पीटने का काम जरूर होता है। ऐसे हादसों की वजह संबंधित एजेंसी का कमजोर तकनीकी पक्ष तो है ही, भू-वैज्ञानिकों की चेतावनियों की अनदेखी भी इसके लिए जिम्मेदार है।
उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश समेत पूरी हिमालयीन पर्वत श्रृंखला अपेक्षाकृत पृथ्वी पर होने वाला नया प्राकृतिक निर्माण है। कुछ ही स्थलों को छोड़ दें तो कम आयु की यह पर्वतमाला ज्यादातर स्थलों पर कच्ची है। भूवैज्ञानिकों के अनुसार इसका निर्माण अब भी जारी है। उसमें भी उत्तराखंड की मिट्टी तो और भी भुरभुरी होने के कारण पृथ्वी की परतों के नीचे होने वाली हलचलों का असर हिमाचल प्रदेश के साथ इसी क्षेत्र में सर्वाधिक पड़ता है। नेपाल में बार-बार आने वाले भूकम्पों का कारण भी यही भूगर्भीय हलचलें हैं।
पहाड़ों के साथ जैसा बर्ताव मानव जाति की ओर से हो रहा है उसका एक और उदाहरण इस हादसे के रूप में सबके सामने है। अब यह सोचने का वक्त आ गया है कि किस तरीके से पहाड़ों में विकास कार्य किये जायें कि प्रकृति को न्यूनतम नुकसान हो और कम से कम ऐसे दर्दनाक हादसे तो न ही घटें। उल्लेखनीय है कि इसी साल की जनवरी में जोशीमठ में कई जगहों पर जमीनों पर बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गईं। अनेक घरों में भी दरारें आई हैं जिसके कारण सैकड़ों लोगों ने जोशीमठ ही छोड़ दिया है। उन्हें अस्थायी शिविरों में शरण लेनी पड़ी थी। आज भी यहां के लगभग 700 मकानों में दरारें देखी जा सकती हैं। यह कस्बा एक तरह से खाली हो गया है।
पिछले साल 34 पर्वतारोहियों की मौत हो गई थी | Uttarkashi Tunnel Collapse
पिछले साल अक्टूबर में उत्तरकाशी के ही भटवाड़ी इलाके में द्रौपदी के डांडा-2 पर्वत शिखर पर जोरदार बर्फीला तूफान आया था। इससे 34 पर्वतारोहियों की मौत हो गई थी। इनमें 25 प्रशिक्षु थे जबकि 2 प्रशिक्षक थे। अक्टूबर 1991 में जोरदार भूकंप आया था जिससे करीब एक हजार लोग मारे गये थे। हजारों मकान भी पूरी तरह से बर्बाद हो गये थे। तब यह अविभाजित उत्तर प्रदेश का हिस्सा था। ऐसे ही, काफी पहले पिथौरागढ़ जिले का माल्पा गांव भूस्खलन के चलते पूरी तरह से उजड़ गया था। इस हादसे में 255 लोगों की मौत हुई थी जिनमें कैलाश मानसरोवर जाने वाले 55 से ज्यादा श्रद्धालु थे। चमोली जिले में रिएक्टर स्केल पर 6.8 की तीव्रता वाले भूकंप के चलते 100 से अधिक लोगों को जान गंवानी पड़ी थी। इससे सटे हुए जिले रुद्रप्रयाग में भी भारी नुकसान हुआ था और अनेक घरों, सड़कों तथा जमीनों में दरारें आई थीं। Uttarkashi Tunnel Collapse
सुरंग में फंसे श्रमिकों को सकुशल बाहर निकालने के लिए युद्धस्तर पर प्रयास जारी हैं। और उम्मीद है कि सभी श्रमिक सकुशल बाहर निकलेंगे। बता दें कि इस तरह की घटना कहीं भी घटती है तो बचाव कार्य में समय लगता है। इससे पहले 2018 में थाईलैंड में इस तरह की एक घटना हुई थी। इस दौरान थाईलैंड में फुटबॉल टीम के 12 बच्चे और एक कोच था। इसके बाद सभी को 18 दिन बाद जाकर लोगों को टनल से निकाला गया था।
परिणाम ऐसी ही त्रासदियों एवं हादसों के रूप में सामने आ रहे हैं
बीते कई सालों में सरकारों द्वारा नयी सड़कें या उनका चौड़ीकरण, पुल, सुरंग आदि का निर्माण बड़े पैमाने पर हो रहा है। इसके लिये होने वाले विस्फोटों व मशीनों के कारण भी पहाड़ों को भारी नुकसान होता है। इससे जलवायु में भी परिवर्तन हो रहा है। अब तो पहाड़ों के ऋ तु चक्र में तक बदलाव दर्ज हो रहे हैं। ऊपरी इलाकों में स्थित ग्लेशियरों के पिघलने के कारण इन पहाड़ों से निकलने वाली नदियों का जल स्तर बढ़ने तथा भूगर्भीय जल के कारण सतह के ऊपर बड़ी टूट-फूट हो रही है। नये-नये निर्माण कार्यों के परिणाम ऐसी ही त्रासदियों एवं हादसों के रूप में सामने आ रहे हैं।
न केवल उत्तराखंड बल्कि दूसरे पहाड़ी राज्यों में बीते वर्षों में सडक निर्माण या जलविद्युत परियोजना से जुड़ी सुरंगों के धंसने के कई हादसे हुए हैं। 2013 की केदारनाथ त्रासदी की भयावहता की कल्पना करते ही सिहरन हो उठती है। यह हाल के वर्षों में उत्तराखंड की सर्वाधिक बड़ी त्रासदी मानी जाती है जिसमें पता नहीं कितने लोगों की मौत हो गई थी। आज तक यह ठीक-ठीक नहीं बताया जा सका है कि कितने लोग मारे गये।
विकास की आवश्यकता से कोई इंकार नहीं कर सकता लेकिन इन त्रासदियों एवं हादसों को देखते हुए नियंत्रित व वैज्ञानिक तरीके से निर्माण किये जाने चाहिये। दोनों पहाड़ी राज्यों हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में तबाही के मंजर को हम प्राकृतिक आपदा का नाम भले ही देते हों लेकिन प्रकृति के मूल स्वरूप से छेड़छाड़ करने की मानवीय प्रवृत्ति ही ऐसे हादसों को न्योता देती है, यह सबको समझना होगा। Uttarkashi Tunnel Collapse
आशीष वशिष्ठ, वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार
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